पौरोणिक कथाओं के जनुसार सप्तऋषियों में एक ऋषि भृगु थे, वो स्त्रियों को तुच्छ समझते थे। वो शिवजी को गुरुतुल्य मानते थे, किन्तु माँ पार्वती को वो अनदेखा करते थे।

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एक तरह से वो माँ को भी आम स्त्रियों की तरह साधारण और तुच्छ ही समझते थे। महादेव भृगु के इस स्वभाव से चिंतित और खिन्न थे।

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एक दिन शिव जी ने माता से कहा, आज ज्ञान सभा में आप भी चले। माँ ने शिव जी के इस प्रस्ताव को स्वीकार की और ज्ञान सभा में शिव जी के साथ विराजमान हो गई। सभी ऋषिगण और देवताओ ने माँ और परमपिता को नमन किया और उनकी प्रदक्षिणा की और अपना अपना स्थान ग्रहण किया।

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किन्तु भृगु माँ और शिव जी को साथ देख कर थोड़े चिंतित थे, उन्हें समझ नही आ रहा था कि वो शिव जी की प्रदक्षिणा कैसे करे। बहुत विचारने के बाद भृगु ने महादेव जी से कहा कि वो पृथक खड़े हो जाये।

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शिव जी जानते थे भृगु के मन की बात। वो माँ को देखे, माता ने उनके मन की बात पढ़ ली और वो शिव जी के आधे अंग से जुड़ गई और अर्धनारीश्वर रूप में विराजमान हो गई।

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अब तो भृगु और परेशान, कुछ पल सोचने के बाद भृगु ने एक राह निकाली। भवरें का रूप लेकर शिवजी के जटा की परिक्रमा की और अपने स्थान पर खड़े हो गए।

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माता को भृगु के ओछी सोच पे क्रोध आ गया। उन्होंने भृगु से कहा, भृगु तुम्हे स्त्रियों से इतना ही परहेज है तो क्यूँ न तुम्हारे में से स्त्री शक्ति को पृथक कर दिया जाये। और माँ ने भृगु से स्त्रीत्व को अलग कर दिया।

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अब भृगु न तो जीवितों में थे न मृत थे। उन्हें आपार पीड़ा हो रही थी। वो माँ से क्षमा याचना करने लगे। तब शिव जी ने माँ से भृगु को क्षमा करने को कहा। 

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माँ ने उन्हें क्षमा किया और बोली, संसार में स्त्री शक्ति के बिना कुछ भी नही। बिना स्त्री के प्रकृति भी नही पुरुष भी नही। दोनों का होना अनिवार्य है और जो स्त्रियों को सम्मान नही देता वो जीने का अधिकारी नही।

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आज संसार में अनेकों ऐसे सोच वाले लोग हैं। उन्हें इस प्रसंग से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। वो स्त्रियों से उनका सम्मान न छीने। खुद जिए और स्त्रियों के लिए भी सुखद संसार की व्यवस्था बनाए रखने में योगदान दें।

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