Leo Tolstoy – Sevastopol Ka Morcha | लेव तोल्सतोय – सिवस्तॅपोल का मोर्चा | Story | Hindi Kahani | Translated by Narottam Nagar
Hindi Kala presents Russian Author Leo Tolstoy Story Sevastopol Ka Morcha | लेव तोल्सतोय – सिवस्तॅपोल का मोर्चा in Hindi translated by Narottam Nagar. Please read this story and share your views in the comments.

Leo Tolstoy Story Sevastopol Ka Morcha | लेव तोल्सतोय – सिवस्तॅपोल का मोर्चा
सुबह की आभा ने सापून पहाड़ी के ऊपर क्षितिज में अभी-अभी अपना रंग भरना शुरू किया है। समुद्र की काली-नीली सतह ने रात की उदासी को उतार फेंका है और अब केवल सूरज की पहली किरणों में उसके ख़ुशी से चमचमा उठने की क़सर है। कच्ची ठण्डी धुँध खाड़ी से रेंगती हुई आ रही है। बर्फ़ अब कहीं नहीं है – चारों ओर काली धरती दिखायी देती है, लेकिन सुबह का कुरकुरा पाला गालों में चिकोटी-सी काटता और पाँव पड़ने पर कचरने की आवाज़ करता है। केवल दूर से आती समुद्र की अनवरत मर्मर ध्वनि, जो सिवस्तॅपोल की तोपों की काँपती हुई इक्की-दुक्की विरल गूँज में डूब जाती है, सुबह की निस्तब्धता को भंग करती है। जहाज़ों से आठ बजने के गजर की दूरागत ध्वनि सुनायी देती है।
उत्तर की ओर दिन की चहल-पहल धीरे-धीरे रात के सन्नाटे का स्थान ले रही है। इधर देखिये, सैनिकों की एक टुकड़ी अपनी बन्दूक़ें खड़खड़ाती रात की गारद को मुक्त करने जा रही है, और उधर एक डॉक्टर तुर्त-फ़ुर्ती अस्पताल की ओर लपका जा रहा है, एक सैनिक अपनी खोह से बाहर रेंगकर बर्फ़ीले पानी में ताँबे-सा तपा अपना मुँह धोता है, और सुबह की लाली से लाल पूर्व की ओर मुँह करके ईश-प्रार्थना करता और जल्द-जल्द सलीब के चिह्न बनाता है। चरमर करती एक ऊँची मज़ारा गाड़ी पास से गुज़रती है जिसमें ऊँट जुते हैं और जो क़रीब-क़रीब ऊपर तक ख़ून से लथपथ लाशों से अटी है। इन्हें क़ब्रिस्तान में दफ़नाने के लिए ले जाया जा रहा है। घाट के निकट पहुँचने पर कोयले, खाद, सीजन और मांस की एक विचित्र गन्ध थपेड़े मारती है। विभिन्न प्रकार की हज़ारों चीज़ें – जलाने की लकड़ी, मांस, मोर्चेबन्दी के लिए मिट्टी-भरे बेपेंदी पीपे, आटे की बोरियाँ, लोहा-लक्कड़ आदि – घाट पर ढेरों पड़ी हैं। विभिन्न रेजीमेण्टों के सैनिक, कुछ थैले और बन्दूक़ लिये और कुछ बिना थैलों और बन्दूक़ों के, रेल-पेल मचाये हैं। वे सिगरेट का धुआँ उड़ाते, कोसते और झल्लाते, घाट के पास खडे़ एक स्टीमर पर भारी सामान लाद रहे हैं। स्टीमर के तूतू से धुआँ निकल रहा है। भाँति-भाँति के लोगों – सैनिकों, नाविकों, सौदागरों, स्त्रिायों – से लदी नौकाओं का लंगर डालने अथवा विदा होने के लिए ताँता लगा है।
“ग्राफ़्सकाया तो नहीं जा रहे हैं, श्रीमान? आइये, भीतर आ जाइये, उस पार पहुँचा दूँगा।” दो या तीन पुराने नाविक, जो नौसेना से छुट्टी मिलने पर अब यही धन्धा करते हैं, आवाज़ लगाते और आपकी सेवा करने के लिए अपनी नौकाओं पर खड़े हो जाते हैं।
निकटतम नाव पर आपकी नज़र टिकती है। नाव के पास ही कीचड़ में किसी घोड़े की एक अधसड़ी ठठरी पड़ी है। उसे लाँघकर आप नाव पर चढ़ जाते हैं और पतवार की घिरनी के पास बैठ जाते हैं। नाव घाट छोड़ देती है और चारों ओर समुद्र ही समुद्र दिखायी देता है, जो अब सूरज की धूप में चमचमा रहा है। आपकी ओर मुँह किये ऊँट के बालों का कोट पहने एक बूढ़ा नाविक और सन जैसे बालों वाला एक युवक चुपचाप पूरी लगन से डाँड़ चला रहे हैं। खाड़ी के ओर-छोर में, दूर-दूर तक, भीमाकार धारीदार जहाज़ और चमचमाती नील सतह पर काले धब्बों की भाँति तैरती छोटी नावें नज़र आती हैं। सामने तट पर नगर की हल्के रंग की सुन्दर इमारतें दिखायी देती हैं जिन्हें सुबह के सूरज ने गुलाबी रंग से रँग दिया है। तैरते हुए लट्ठों-बाड़ों और जल-मग्न जहाज़ों के इर्द-गिर्द झागों की सफ़ेद रेखाएँ बन गयी हैं। उन जहाज़ों के मस्तूलों की चोटियाँ, उदास और उपेक्षित, पानी से बाहर निकली हैं। दूर, बिल्लौरी क्षितिज के पास, दुश्मन के बेड़े की छायाएँ अधर में लटकी-सी दिखायी देती हैं। झागदार लहरियाँ और चप्पुओं के पानी में गिरने से बने खारे बुलबुलों के नाचते भँवर नज़र आ रहे हैं। चप्पुओं की तालयुक्त छपाछप, लोगों की पानी पर तिरती आती आवाज़ें और सिवस्तॅपोल में तोपों के दगने की गर्वीली गूँजें, जो बराबर गहरी होती जान पड़ती हैं, सुनायी दे रही हैं।
यह भावना-मात्र कि हम सिवस्तॅपोल में हैं, बरबस हृदय में साहस और गर्व का संचार कर देती है। तथा रगों में ख़ून की रवानी अनायास ही तेज़ हो जाती है।
“अब आप किस्त्येन्तिन जहाज़ के पास से गुज़र रहे हैं, मालिक!” बूढ़ा नाविक आपको बताता है और दाहिनी ओर मुड़कर देखता है कि नौका ठीक दिशा में जा रही है या नहीं।
“अभी भी यह अपनी सब तोपों से लैस है!” जहाज़ के पास से गुज़रते समय उसकी ओर देखते हुए सन जैसे बालों वाला युवक कह उठता है।
“बेशक, बेशक!” जहाज़ के ओर देखते हुए बूढ़ा नाविक भी कहता है।
“नया जहाज़ है। कोर्नीलोव इसी पर रहा है।”
“वह देखो, उधर! कहाँ जाकर फटा है!” लम्बी चुप्पी के बाद लड़का चिल्लाकर कहता है। उसकी आँखें धुएँ के एक छोटे, सफ़ेद और विलीन होते हुए बादल पर टिकी हैं जो कि यकायक एक गोले के फटने की तेज़ आवाज़ के बाद दक्खिन खाड़ी पर मँडराने लगा था।
“आज वह नयी बैटरी से गोलाबारी कर रहा है,” बूढ़ा नाविक कहता और उपेक्षा के भाव से अपने हाथों पर थूककर उन्हें मलता है। “देखो मिश्का, अब ज़रा ज़ोर लगाओ। हमें उस बजरे से आगे निकलना है।”
और आपकी नौका खाड़ी के चौड़े विस्तार पर अब और भी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ चलती है, और गाँठों से लदे भारी बजरे को सचमुच पीछे छोड़ देती है, जिसे कुछ अनगढ़-से सैनिक ऐण्डे-बैण्डे ढंग से खे रहे हैं। हर काट और छाँट की नौकाओं के टिड्डी दल के बीच से रास्ता बनाती आपकी नाव ग्राफ़्सकाया घाट से जा लगती है।
घाट ख़ाकी वर्दी पहने सैनिकों, काली वर्दी पहने नाविकों तथा रंग-बिरंगे कपड़े पहने स्त्रिायों से अटा है। ख़ूब शोर मच रहा है। स्त्रिायाँ मैदा के पूए बेच रही हैं और रूसी दहकान भाप छोड़ते समोवार लगाये चिल्ला रहे हैं – “गरमागरम स्बीतेन!”(एक प्रकार की मीठी मसालेदार पेय वस्तु) और ठीक यहीं, घाट पर लोहे की तोपें, ज़ंग लगे गोले, तोपगोले और छर्रे चारों ओर बिखरे हैं। कुछ और आगे चलकर एक खुला हुआ बड़ा मैदान है जिसमें भारी-भरकम लट्ठे, तोपगाड़ियाँ और नींद में डूबे सैनिक पड़े हैं। घोड़े, गाड़ियाँ, तोपें, हरे रंग की बारूद-गाड़ियाँ और एक-दूसरे के सहारे टिकी बन्दूक़ों के पुंज खड़े हैं। सैनिकों, नाविकों, अफ़सरों, औरतों, बच्चों और कारबारी लोगों का ताँता बँधा है। घास, बोरों या पीपों से लदी गाड़ियाँ खड़खड़ करती गुज़र रही हैं। जब-तब घोड़े पर सवार कोई कस्साक अथवा अफ़सर या द्राश्की में बैठा कोई जनरल निकल जाता है। दाहिनी ओर की सड़क बैरीकेड से रुकी है जिसकी दरारों से छोटी तोपों के मुँह झाँक रहे हैं। एक नाविक जो पाइप पी रहा है, उनके पास बैठा है। बायीं ओर एक ख़ूबसूरत-सी इमारत है जिसकी ड्योढ़ी पर रोमन अंक बने हैं; उसके बाहर ख़ून से सने स्ट्रेचर लिये सैनिक प्रतीक्षा कर रहे हैं। चारों ओर जिधर भी नज़र डालो, फ़ौजी पड़ाव के अप्रिय चिह्न दिखायी देते हैं। आपके हृदय पर जो पहली छाप यहाँ पड़ेगी, वह निश्चय ही अप्रिय होगी: फ़ौजी छावनी और नागरिक जीवन का तथा एक सुन्दर नगर और खुले आकाश के नीचे वीभत्स पड़ाव का एक अजीब मिश्रण आपको नज़र आयेगा जो सौन्दर्य की भावना का संचार करना तो दूर, बल्कि अपनी भयानक अव्यवस्था से आपको स्तब्ध कर देगा। यहाँ तक कि ऐसा मालूम होगा मानो भय ने सभी को जकड़ लिया है और सभी बिना किसी लक्ष्य के इधर-उधर भटक रहे हैं, करने-धरने के लिए उनके पास कुछ नहीं है। लेकिन अपने चारों ओर हरकत करते इन लोगों के चेहरों की ओर अगर आप ज़रा और ध्यान से देखें तो एकदम कुछ और ही नज़र आयेगा। मिसाल के लिए माल ढोने की एक छोटी गाड़ी के इस सैनिक को देखिये जो तीन घोड़ों को थामे उन्हें पानी पिलाने ले जा रहा है और बड़ी निश्चिन्तता से किसी गीत की धुन गुनगुना रहा है। साफ़ मालूम होता है कि वह इस बेढब भीड़ में, जिसके अस्तित्व तक से वह बेख़बर है, न केवल यह कि खो नहीं जायेगा, बल्कि अपने कर्तव्य को भी – अब यह कर्तव्य चाहे घोड़ों को पानी पिलाना हो अथवा तोपों को खींचना – उतने ही शान्त भाव और विश्वास के साथ अबाध गति से पूरा करेगा, कुछ इस तरह मानो यह सब तुला में, या सारांस्क में, हो रहा हो। ऐसा ही भाव उस अफ़सर के चेहरे पर दिखायी देता है जो निरे बुर्राक दस्ताने पहने टहलता हुआ जा रहा है। वह नाविक जो बैरीकेड के पास बैठा पाइप पी रहा है, और वे सैनिक जो भूतपूर्व असेम्बली-भवन की ड्योढ़ी में स्ट्रेचरों के साथ प्रतीक्षा कर रहे हैं, इन सभी के चेहरों पर वही भाव दिखायी देता है। और उस युवती को देखिये जो सड़क को पार कर रही है और धूल-मिट्टी से बचाने के लिए अपनी गुलाबी घाघरे की फुफँदी को ऊपर उठाये बड़ी नफ़ासत से एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर पाँव रख रही है – उसके चेहरे पर भी वही भाव नज़र आता है।
फिर भी यह बात पक्की है कि सिवस्तॅपोल की पहली यात्रा से आपको निराशा होगी। लोगों के चेहरों पर आपको चिन्ता के, तनाव के, अथवा यहाँ तक कि उत्साह और मौत को गले लगाने की तत्परता या भयानक दृढता के, कोई चिह्न नज़र नहीं आयेंगे, इस तरह की कोई चीज़ आपको दिखायी नहीं देगी। अपने चारों ओर केवल साधारण लोग आपको दिखायी देंगे, अपने रोज़ के काम-धन्धे से आते-जाते हुए, और शायद आप अपने आपको लताड़ना भी चाहें कि व्यर्थ ही आपने इतने अधिक उत्साह का परिचय दिया। हो सकता है कि आप सिवस्तॅपोल के रक्षकों की वीरता के उस चित्र के सही होने में भी सन्देह करने लगें जिसे कि आपने “उत्तरी पक्ष” की आवाज़ों, कहानियों और वर्णनों को सुनकर तथा दृश्यों को देखकर अपने दिमाग़ में खड़ा कर लिया था। लेकिन इस तरह के सन्देहों से विचलित होने से पहले क़िलेबन्दियों में पहुँचना और सिवस्तॅपोल के रक्षकों को उन जगहों में जाकर देखना चाहिए जिनकी रक्षा करने के लिए वे लड़ रहे हैं। या फिर सड़क के ठीक उस पार उस इमारत में जाकर देखिये जो कभी असेम्बली-भवन थी और जहाँ अब सिपाही अपने स्ट्रेचर लिये प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह और भी अच्छा होगा। वहाँ आपको सिवस्तॅपोल के रक्षक तथा भयानक और उदास, गौरवमय और दिलचस्प, लेकिन साथ ही अद्भुत और पे्ररणादायक दृश्य देखने को मिलेंगे।
असेम्बली भवन के बड़े हॉल में आप प्रवेश करते हैं। दरवाज़ा खोलते न खोलते चालीस या पचास मरीज़ों पर आँखें जमती हैं और उनकी गन्ध आकर आप से टकराती है। ये मरीज़ वे हैं जिनके अंग काट डाले गये हैं और जो बुरी तरह से घायल हुए हैं। उनमें से कुछ बिस्तरों पर और ज़्यादातर फ़र्श पर पड़े हैं। डरिये नहीं, उस भावना पर ध्यान न दीजिये जिसने आपके पाँव चौखट से बाँध रखे हैं – वह एक बुरी और कुत्सित भावना है। उसकी परवाह न कर सीधे आगे बढ़ चलिये, और इस बात को लेकर ज़रा भी शर्म महसूस मत कीजिये कि आप घायलों का तमाशा देखने आये हैं, शर्म को छोड़ आप सीधे उनके पास पहुँच जाइये और उनसे बातें कीजिये। दुख के मारे वे इस बात के भूखे हैं कि उन्हें सहृदय मानव का चेहरा दिखायी दे। अपने कष्ट के बारे में बातें करना और संवेदना तथा सहानुभूति के शब्द सुनना उन्हें अच्छा लगता है। बिस्तरों के बीच से आप जाइये और किसी ऐसे चेहरे की टोह कीजिये जो कम कठोर और पीड़ा की मार से कम त्रस्त हो, ताकि आप उसके पास जाने और उससे बातें करने का साहस कर सकें।
“घाव कहाँ लगा है आपके?”
एक क्षीणकाय बूढ़े सैनिक से, जिसकी सहृदयतापूर्ण आँखें अपने बिस्तरे से इस तरह आपकी ओर देख रही थीं, मानो आपको अपने पास आने का बुलावा दे रही हों, हिचकिचाते हुए और डरे हुए-से स्वर में आप पूछते हैं। “डरे हुए स्वर में” इसलिए कि दुखपूर्ण दृश्य, न जाने क्यों, हृदय में गहरी सहानुभूति का ही नहीं बल्कि भय का संचार करता है, यह भय कि जो दुखी है, उसे कोई चोट न लगने पाये। उसके प्रति एक गहरी श्रद्धा हृदय में जन्म लेती है।
“टाँग में,” वह जवाब देता है, लेकिन जिस कम्बल से वह ढँका है, उसकी सलवटें बताती हैं कि वह टाँग जँघा तक काट डाली गयी है।
“अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ,” वह कहता है। “बस, अस्पताल से छुट्टी मिलने का इन्तज़ार कर रहा हूँ।”
“आपको घायल हुए काफ़ी दिन हो गये?”
“क़रीब छह सप्ताह, श्रीमान।”
“अब भी दर्द मालूम होता है?”
“नहीं, अब दर्द नहीं मालूम होता। अब सब ठीक है। केवल कभी-कभी जब मौसम ख़राब होता है, मेरी पिण्डली में कुछ पीड़ा-सी मालूम होती है। अन्यथा सब ठीक है।”
“आप कैसे घायल हुए?”
“यह पाँचवीं बासचोन (फ़्रांसीसी “बास्त्यों” (क़िलेबन्दी के आगे निकले नुकीले भाग या व्यूहाग्र कोण) का रूसी सिपाहियों द्वारा विकृत उच्चारण।) की घटना है, श्रीमान, उस समय की जब कि पहली बमबारी हुई थी। अपनी बन्दूक़ को साधे मैं अगले ढूह की ओर बढ़ ही रहा था कि मेरी टाँग में गोली आ लगी। मुझे ऐसा मालूम हुआ मानो मैं किसी गड्ढे में गिर गया हूँ। देखने पर पता चला कि मेरी टाँग ग़ायब है।”
“शुरू के क्षणों में दर्द नहीं मालूम हुआ?”
“नहीं, बस ऐसा लगा मानो किसी गरम चीज़ ने टाँग को सूँत दिया हो।”
“और इसके बाद?”
“इसके बाद भी कोई ख़ास बुरा नहीं मालूम हुआ, केवल उस समय को छोड़कर जब खाल को ताना जाने लगा। तब काफ़ी तकलीफ़ हुई। लेकिन मुख्य चीज़ तो यह है श्रीमान कि दुख के बारे में ज़्यादा न सोचो। सोचना ही मुसीबत है। न सोचो तो कुछ नहीं होता। आदमी सोचता है, इसीलिए उसे दुख इतना अधिक सताता है।”
इसी समय धारीदार भूरे कपड़े पहने और काला रूमाल बाँधे एक स्त्री आपके निकट आती है और बातों में शामिल हो जाती है। वह आपको सैनिक के बारे में, उसके दुख के बारे में और उस विकट स्थिति के बारे में बताती है जिसमें कि वह चार सप्ताह से पड़ा हुआ है। वह बताती है कि सैनिक कब और कैसे घायल हुआ, किस प्रकार उसने स्ट्रेचर-वाहकों से रुकने के लिए कहा जिससे कि वह हमारी बैटरी को गोला दाग़ते देख सके, किस प्रकार “बड़े नवाब” ने उससे बातें कीं और उसे पच्चीस रूबल भेंट किये, और यह कि किस प्रकार वह ज़िद्द करता है कि उसे फिर क़िलेबन्दी के मोर्चे पर भेज दिया जाये, कहता है कि वह ख़ुद लड़ने के योग्य नहीं रहा तो क्या, अन्य युवकों को सिखा तो सकता है। एक ही साँस में वह यह सब बता जाती है। बोलते समय कभी वह आपकी तरफ़ देखती है और कभी सैनिक की ओर, जो इस तरह मुँह फेर लेता है मानो कुछ सुन ही नहीं रहा है, और अपने तकिये पर से पट्टी के कपड़े का टुकड़ा उठाकर अपने-आपको उसी में उलझा लेता है। स्त्री की मुग्ध आँखें एक अद्भुत आवेश की चमक से थिरकने लगती हैं।
“यह मेरी पत्नी है, श्रीमान!” सैनिक क्षमा-याचना करता हुआ-सा कहता है, कुछ ऐसे स्वर में जो यह कहता प्रतीत होता है: “इसका बुरा न मानना। आप तो जानते ही हैं कि ऊल-जलूल बातों से स्त्रिायों को दूर रखना विधाता के भी बस की बात नहीं है।”
सिवस्तॅपोल के रक्षकों को अब आप कुछ समझना शुरू करते हैं और जाने क्यों इस आदमी की उपस्थिति में एक अजीब दुविधा और संकोच का अनुभव होता है। अपनी संवेदना और सराहना को व्यक्त करने के लिए आप बहुत कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन शब्द पकड़ में नहीं आते। अथवा यह कहिये कि जो शब्द दिमाग़ में आते हैं वे ओछे मालूम होते हैं और आप इस आदमी की मूक, अपने-आपसे बेख़बर महानता, दृढता, अपने गुणों के बारे में उसकी झिझक के सामने चुपचाप अपना माथा झुका लेते हैं।
“ख़ुदा आपको जल्द अच्छा करे,” अन्त में इतना ही आप उससे कह पाते हैं और दूसरे मरीज़ की ओर बढ़ जाते हैं जो फ़र्श पर पड़ा है और बेहद पीड़ा से त्रस्त है, मानो मौत की प्रतीक्षा कर रहा है।
उसके बाल सुनहरे, चेहरा सूजा हुआ और पीला है। वह कमर के बल लेटा है, और उसकी बायीं बाँह पीछे की ओर इस तरह फेंकी हुई है जिससे उसके दारुण कष्ट का पता चलता है। उसका पपड़ी जमा हुआ मुँह खुला है जिसके रास्ते घरघराहट की आवाज़ करता हुआ वह कष्ट से साँस ले रहा है। उसकी जस्ती नीली आँखें ऊपर को उलट गयी हैं और उसकी दाहिनी बाँह का पट्टी बँधा ठूँठ चुरेमुरे कम्बल के नीचे से दिखायी पड़ रहा है। सड़ते हुए मांस की गन्ध दिमाग़ को और भी ज़्यादा भन्ना देती है और ऐसा मालूम होता है मानो रोगी के अंगों में व्याप्त जानलेवा हरारत ख़ुद आपके शरीर में भी प्रवेश कर गयी हो।
“यह बेहोश है?” आप उसी स्त्री से पूछते हैं जो आपके साथ-साथ चली आयी है और कुछ ऐसी कोमल दृष्टि से आपकी ओर देख रही है मानो आप उसके प्रियजनों में से हों।
“नहीं, उसकी सुनने की शक्ति अभी भी मौजूद है,” वह जवाब देती है, और इसके बाद फुसफुसाकर कहती है: “लेकिन इसकी हालत बेहद ख़राब है। मैंने इसे आज चाय दी थी – अजनबी होने से ही कोई तरस खाना छोड़ नहीं देता – लेकिन इसने शायद ही मुँह से लगायी हो।”
“क्यों, जी कैसा है?” आप उससे पूछते हैं।
आपकी आवाज़ सुनकर घायल व्यक्ति की आँखें टेरने लगती हैं, लेकिन वह आपको देख या समझ नहीं पाता।
“मेरे हृदय में जैसे लपटें उठ रही हैं।”
कुछ ही और आगे एक बूढ़े सैनिक पर आपकी नज़र पड़ती है जो अपनी क़मीज़ बदल रहा है। उसका चेहरा और बदन कत्थई रंग का है। वह केवल हड्डियों का ढाँचा-भर दिखायी देता है। उसकी एक बाँह ग़ायब है। उसे कन्धे से काट डाला गया है। वह अच्छी तरह बैठ सकता है, अच्छा भी हो गया है, लेकिन उसकी जीवनहीन पथराई-सी आँखें, बुरी तरह क्षीण उसका शरीर, और उसके चेहरे पर पड़ी गहरी झुर्रियाँ साफ़ बताती हैं कि इस दयनीय जीव के जीवन का श्रेष्ठम भाग मुसीबतों की भेंट चढ़ चुका है।
दूसरी ओर, एक बिस्तरे पर, एक स्त्री का पीड़ा से त्रस्त कोमल चेहरा दिखायी देता है – जिस पर मौत का पीलापन छाया है और गाल बुख़ार से धधक रहे हैं।
“यह हमारे नाविकों में से एक की पत्नी है,” आपकी पथ-प्रदर्शिका बताती है। “अपने पति के लिए क़िले पर खाना ले जा रही थी। तभी, पाँच तारीख़ को, टाँग में एक गोला आ लगा।”
“इसकी भी टाँग काट डाली गयी?”
“हाँ, ठीक घुटने के ऊपर से काटी गयी है।”
और अब, अगर आपके हृदय के स्नायु कमज़ोर नहीं हैं तो, बायीं ओर के दरवाज़े को पार कर उस कमरे में चलिये जहाँ घावों की मरहम-पट्टी और चीर-फाड़ की जाती है। वहाँ आपको सर्जन दिखायी देंगे जिनकी बाँहें कोहिनी तक ख़ून से लथपथ हैं, जिनके चेहरे पीले और कठोर हैं। वे एक बिस्तरे के पास खड़े कुछ कर रहे हैं जिस पर क्लोरोफ़ार्म से बेहोश किया हुआ एक घायल पड़ा है। उसकी आँखें एकदम खुली हैं और अटपटे शब्द उसके मुँह से निकल रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि सरसाम में होता है। कभी-कभी उसके मुँह से सीधे-सादे प्यार भरे सम्बोधन भी प्रकट हो जाते हैं। सर्जन अंग काटने के घिनौने पर हितकर काम में जुटे हैं। एक तेज़ हँसिये जैसा चाकू सफ़ेद, स्वस्थ मांस में प्रवेश करता है, घायल के मुँह से यकायक निकली भयानक, ख़ून जमा देने वाली चीख़ सुनायी देती है और वह ज़ोरों से गालियाँ बकता हुआ होश में आ जाता है। सर्जन का सहायक कटी बाँह को एक कोने में फेंक देता है। कमरे के दूसरे हिस्से में एक अन्य अभागा स्टेªचर पर लेटा हुआ अपने साथी की बाँह को कटते हुए देखकर तड़पता-कराहता है – काया कष्ट से इतना नहीं जितना कि उस यातना की कल्पना से जो कि चीर-फाड़ के समय होगी।
इस कमरे में भयानक और हृदय को चीर देने वाले दृश्य आपको दिखायी देंगे। युद्ध को आप ऐसे रूप में नहीं देखेंगे जो सैनिक प्रदर्शनों के समय दिखायी देता है – जब सैनिक बहुत ही बढ़िया पाँतों में, क़दम से क़दम मिलाये, संगीत और नगाड़े की आवाज़ के साथ मार्च करते हैं, झण्डे हवा में लहराते हैं और जनरल घोड़ों पर थिरकते हैं। नहीं, युद्ध को यहाँ आप उसके असली रूप में देखेंगे – एक ऐसे रूप में जिसमें ख़ून है, हाहाकार है, मौत है…
वेदना के इस घर से बाहर निकलने पर आप निश्चय ही राहत की एक भावना का अनुभव करेंगे, गहरी साँस लेकर ताज़ी हवा अपने फेफड़ों में भरना चाहेंगे और अपने को स्वस्थ तथा भला-चंगा देखकर ख़ुश होंगे; लेकिन उन दुखों का ख़याल आपको अपनी नगण्यता का भान करा देगा और आप अब शान्त तथा स्थिर होकर, बिना किसी हिचक के, क़िले की ओर बढ़ चलेंगे।
“इतने अधिक दुख और इतनी अधिक मौतों की तुलना में मेरे जैसे तुच्छ कीड़े के दुखों और मौत की क्या गिनती है?”
लेकिन स्वच्छ आकाश, चमचमाते हुए सूरज, सुन्दर नगर, खुले हुए गिरजे और हर ओर सैनिक लोगों की चहल-पहल तथा भीड़भाड़ देखकर शीघ्र ही आपके हृदय का प्रकृत हलकापन लौट आयेगा, छोटी-मोटी चिन्ताएँ फिर आपको घेर लेंगी और वर्तमान के सिवा अन्य बातों का आपको ध्यान ही नहीं रहेगा।
रास्ते में गिरजे से विदा होता एक मातमी जुलूस दिखायी देता है। गुलाबी रंग के ताबूत में किसी अफ़सर के शव को दफ़नाने के लिए ले जाया जा रहा है। झण्डे और पताकाएँ हवा में लहरा रही हैं, बैण्ड बज रहा है। या फिर क़िले से गोलाबारी की आवाज़ सुनायी देती है। इन सबका पहले वाले विचारों से कोई तालमेल नहीं मिलता। मातमी जुलूस एक बहुत ही सुन्दर सैनिक समारोह की भाँति मालूम होता है, ध्वनियाँ सैन्य संगीत की भाँति सुन्दर हैं; और आप इस जुलूस और इन ध्वनियों को मृत्यु और हाहाकार के उन सुस्पष्ट विचारों से सम्बद्ध नहीं कर सकते जो कि मरहम-पट्टी केन्द्र में आपके रोम-रोम में समा गये थे।
गिरजे और बैरीकेड को पार करने के बाद आप नगर के सबसे ज़्यादा चहल-पहल वाले भाग में प्रवेश करते हैं। सड़क के दोनों ओर दुकानों की सजधज, कहवाख़ाने, व्यापारी, फ़ीतों से कढ़ी मख़मली टोपियाँ या रूमाल बाँधे स्त्रिायाँ, और चुस्त-दुरुस्त अफ़सर – सभी से नागरिकों की दृढ़ता, आत्मविश्वास और निश्चिन्तता की भावना का परिचय मिलता है।
अगर आप यह सुनना चाहते हैं कि नाविक और अफ़सर क्या बातें करते हैं, तो दाहिनी ओर के कहवाख़ाने में चलिये। निश्चय ही पिछली रात की घटनाएँ, छोकरी फेनिया की करतूतें, चौबीस तारीख़ की लड़ाई, आदि उनकी बातों का विषय बन चुकी हैं। उनकी बातों से आपको मालूम होगा कि मांस के कबाब कितने महँगे और ख़राब मिलते हैं और किस प्रकार यह या वह साथी मारा गया।
“शैतान की मार, हमारी जगह तो आज अच्छा-ख़ासा नरक बन गयी है!” सुनहरी बालों वाला, दाढ़ी घुटा और बुना हुआ रूमाल बाँधे एक नाटा समुद्री अफ़सर मोर के जैसे षड्ज सप्तक से निकली गहरी आवाज़ में कहता है।
“आपकी जगह कौन-सी है?” दूसरा पूछता है।
“चौथा व्यूहमुख,” युवक अफ़सर जवाब देता है।
“चौथा व्यूहमुख!” – यह सुनते ही सुनहरी बालोंवाले इस अफ़सर को आप और भी ज़्यादा दिलचस्पी और यहाँ तक कि कुछ हद तक भय के साथ देखने लगते हैं। लापरवाही की उसकी अतिरंजित भावना, उसका अंग-संचालन, उसकी ज़ोरदार आवाज़ और ठहाका मारकर हँसना, जिसे आप एक अटपटा दिखावा-मात्र समझ बैठे थे, अब आपको “अहसान नाख़ुदा का उठाये मेरी बला” वाली वह भावना मालूम होती है जो कि, ख़तरे को गले से लगाने के बाद, एकदम नवयुवक लोगों में आजकल सिर उभारती है। आप शायद आशा करेंगे कि अब वह बमबारी तथा गोलियों की बौछार का ज़िक्र करेगा जिनकी वजह से चौथा व्यूहमुख नरक मालूम होता है। लेकिन नहीं, वह ऐसा नहीं करता। चौथे व्यूहमुख को नरक बनाने वाली जिस चीज़ का नाम सामने आता है, वह है कीचड़।
“आप बैटरी के पास तक नहीं पहुँच सकते,” घुटनों तक कीचड़ से सने अपने जूतों की ओर संकेत करके वह बताता है।
“मेरा सबसे बढ़िया गोलन्दाज़ आज मारा गया – गोली एकदम माथे के आर-पार हो गयी!” दूसरा कहता है।
“कौन था वह – मित्यूखि़न तो नहीं?”
“नहीं… ऐ बैरा, क्या वह कबाब आज ले आओगे या बैठे रहें कल तक? कमीना!” – यह बैरे को सम्बोधित कर… “नहीं, मित्यूखि़न नहीं, अब्रोसिमोव। बहुत ही बढ़िया आदमी था वह। छह घावों का सेहरा उसके सिर बँधा था।”
एक अन्य मेज़ के कोने पर पैदल सेना के दो अफ़सर बैठे हैं। जिनके सामने कबाब और मटर की तश्तरियाँ तथा खट्टी क्रीमियाई मदिरा की एक बोतल रखी है जिस पर “बोर्घो” का झूठा लेबल लगा है। इनमें से एक युवक है जिसके ख़ाकी कोट पर लाल कॉलर लगा है और कन्धों के फ़ीतों पर दो-दो सितारे। वह दूसरे को, जो कि बड़ी उम्र का है और जिसके कोट का कॉलर काला तथा कन्धों के फ़ीतों पर कोई सितारा नहीं है, आल्मा की लड़ाई के बारे में बता रहा है। पहला नशे में कुछ धुत्त हो चला है, बताते-बताते वह रुक जाता है और उसकी आँखों में हिचकिचाहट झलकने लगती है, मानो वह इस दुविधा में हो कि उसकी बातों का विश्वास किया जा रहा है या नहीं। दरअसल बात यह थी कि उस समूची मुठभेड़ में उसने जो हिस्सा लिया था, वह इतना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था और जिन दृश्यों का वह वर्णन कर रहा था वे इतने रोंगटे खडे़ करने वाले थे कि उन पर सहज ही विश्वास नहीं होता था। ऐसा मालूम होता था, मानो वह निरे सत्य से बहककर बहुत दूर चला गया है। लेकिन इन कहानियों को आप जाने दीजिये। रूस के हर हिस्से में बहुत दिनों तक बहुत बार इन्हें आप सुनेंगे। आप तो इस बात के लिए उतावले हैं कि जल्द से जल्द चौथे व्यूहमुख पहुँचें जिसके बारे में आपने इतने विभिन्न प्रकार से इतना कुछ सुना है। जब भी कोई इस बात का ज़िक्र करता है कि वह चौथे व्यूहमुख हो आया है, तो उसकी आवाज़ लामुहाला एक ख़ास ख़ुशी और गर्व से गूँजने लगती है, और जब कोई कहता है कि मैं चौथे व्यूहमुख जा रहा हूँ तो उसकी आवाज़ में अवश्य ही विचलित हृदय का एक हल्का-सा कम्पन या अतिरंजित लापरवाही का पुट नज़र आयेगा। अगर कोई किसी को फटकार बताना चाहता है तो वह उससे कहता है: “तुम्हें चौथे व्यूहमुख भेज देना चाहिए”; और जब आपको स्ट्रेचर पर पड़ा कोई आदमी मिलता है और आप पूछते हैं: “कहाँ से?” तो बहुत करके यही उत्तर मिलता है: “चौथे व्यूहमुख से!”
चौथे व्यूहमुख के बारे में, वस्तुतः दो सर्वथा भिन्न मत हैं। एक तो उन लोगों का जो कभी वहाँ नहीं गये और जिनके लिए वहाँ जाना निश्चित मौत के मुँह में जाना है, और दूसरा उन लोगों का जो वहाँ रहते हैं, जैसे सुनहरी बालों वाला वह जहाज़ी अफ़सर, जो चौथे व्यूहमुख के बारे में बताते समय, केवल इस बात का ज़िक्र करता है कि वहाँ कीचड़ है या सूखा, खन्दकों में गरमी है अथवा ठण्ड, आदि-आदि।
उस आधा घण्टे के भीतर, जो कि आपने कहवाख़ाने में बिताया है, मौसम बदल जाता है। समुद्र पर जो धुँध छा गयी थी, अब घनीभूत होकर भूरे, ठण्डे और नम बादलों की चादर बन गयी है और उसने सूरज को ढँक लिया है। बारिश और बर्फ़ की ठण्डी, भयानक, झड़ी लगी है जो छतों, पगडण्डियों और सैनिकों के बरान-कोटों को गीला कर रही है…।
एक अन्य बैरीकेड को पीछे छोड़ने के बाद आप एक दरवाज़े में से गुज़रते हैं और दाहिनी ओर मुड़कर एक चौड़ी सड़क पर आ जाते हैं। इस बैरीकेड के उस पार सड़क के दोनों ओर के घर जनशून्य हैं। दुकानों पर साइनबोर्ड नहीं हैं, और दरवाज़ों पर तख़्ते चढ़े हैं। खिड़कियाँ टूटी हुई हैं। एक घर का कोना उड़ गया है और दूसरे की छत ध्वस्त है। इमारतें बड़ी उम्र के उन सैनिकों की भाँति मालूम होती हैं जो अभावों और कठिनाइयों को सह चुके हों। ऐसा मालूम होता है मानो वे गर्व और थोड़ी हिक़ारत से आपकी ओर देख रही हों। रास्ते में तोप के गोलों से ठोकर लगती है और चट्टानी धरती में उनके गिरने से बने पानी-भरे गड्ढों में पाँव धँस जाते हैं। सैनिकों, कस्साकों और अफ़सरों की टुकड़ियाँ राह में मिलती और पीछे छूटती जाती हैं। रह-रहकर कोई स्त्री या बच्चा दिखायी दे जाता है, लेकिन स्त्री फ़ीतेदार टोपी नहीं पहने है। वह किसी नाविक की पत्नी है और पुराना ऊनी कोट तथा फ़ौजी बूट पहने है। सड़क पर कुछ दूर और चलने तथा हल्के ढलवान से उतरने पर चारों ओर एक भी घर नहीं दिखायी देता, घरों के बजाय मलवे, काठ-कठंगड़, मिट्टी, लट्ठों और पत्थरों के अजीब ढूह नज़र आते हैं। सामने ही एक पहाड़ी की गहरी ढलान पर खाइयों से कटा-छँटा एक काला कीचड़-भरा स्थल अधर में लटका है। यही वह चौथा व्यूहमुख है… यहाँ बहुत ही कम लोग दिखायी देते हैं, और स्त्रिायाँ तो बिल्कुल ही नज़र नहीं आतीं। सैनिक तेज़ी से निकल जाते हैं, सड़क ख़ून से रँगी है। स्टेªचर लिये चार सैनिक कहीं न कहीं ज़रूर दिखायी पड़ जायेंगे! स्ट्रेचर पर एक पीला चेहरा और ख़ून में सना उसका फ़ौजी कोट दिखायी देगा। अगर पूछिये कि कहाँ घाव लगा है, तो स्ट्रेचर-वाहक आपकी ओर देखने का कष्ट तक नहीं करेंगे और झुँझलाकर जवाब देंगे कि टाँग या बाँह में – अगर घाव हल्का हुआ तो; वरना गहरी ख़ामोशी के साथ गुज़र जायेंगे – अगर स्ट्रेचर पर कोई सिर नहीं दिखायी देता है और जिस आदमी को वे ले जा रहे हैं, वह मर गया है या बुरी तरह घायल हो गया है।
पहाड़ी पर चढ़ते समय जब कोई तोप का गोला चीख़ता-सनसनाता एकदम पास से गुज़रेगा तो एक अप्रिय सनसनी का आप अनुभव करेंगे। तब अनायास ही, और सर्वथा भिन्न रूप में, गोलाबारी की उस ध्वनि का अर्थ आपकी समझ में आ जायेगा जिसे आपने नगर में सुना था। आपके मस्तिष्क में कोई मधुर और कोमल स्मृति कौंध जायेगी, और जो कुछ आप देख रहे हैं उसके बजाय अपने बारे में आप अधिक सोचना शुरू कर देंगे। चारों ओर के वातावरण की तरफ़ से आपका ध्यान उचट जायेगा, और ढुलमुलपन की एक मनहूस भावना आपको अपने वश में कर लेगी। लेकिन पस्त कर देने वाली उस नन्ही आवाज़ के बावजूद, जिसे आप ख़तरे की स्थिति में अपने भीतर यकायक सुनने लगते हैं, और ख़ास तौर से उस समय जब आप एक सैनिक को अपने अस्त्र झुलाते हुए तरल कीचड़ के बीच ढलवान पर से रपटते और ठहाके के साथ अपने सामने से कुदकते हुए देखते हैं, तो आप उस आवाज़ का मुँह बन्द कर देते हैं, अनायास ही आपका सीना तन जाता है और अपने सिर को ऊँचा उठाकर आप फिसलनी मटियाली पहाड़ी पर चढ़ने लगते हैं। मुश्किल से कुछ ही दूर चढ़ते न चढ़ते दायें और बायें स्तुत्ज़र से गोलियाँ हवा में सनसनाने लगती हैं, और आप मन ही मन सोचते हैं कि सड़क के बजाय उसके समानान्तर जाने वाली खाई के रास्ते जाना क्या अधिक अच्छा नहीं होगा? लेकिन वह खाई घुटनों तक तरल, पीले रंग की, दुर्गन्ध-युक्त कीचड़ से भरी है। इससे पहाड़ी पर चढ़ने के लिए सड़क को ही आप ज़्यादा पसन्द करेंगे, इसलिए और भी अधिक कि हर कोई सड़क से ही जाता नज़र आता है। क़रीब दो सौ क़दम आगे बढ़ने के बाद आप अब ऐसे स्थल पर पहुँचते हैं जिसे गोलों ने छलनी कर दिया है, कीचड़ की जहाँ भरमार है और मिट्टी के बेपेंदी पीपों और तटबन्दी से जो घिरा है। यहाँ बारूद के पीपे मौजूद हैं, मंच और खन्दकें बनी हैं जिनकी छतों पर लोहे की ढली हुई तोपें तैनात हैं और उनके गोले क़ायदे से चुने हुए रखे हैं। ऐसा मालूम होता है मानो ये सब चीज़ें यहाँ बेमतलब या बिना किसी कारण के जमा हैं। नाविकों का एक दल बैटरी के आस-पास घूमघाम रहा है, और इस स्थल के बीच में एक ध्वस्त तोप कीचड़ में आधी धँसी है। पैदल सेना का एक सैनिक बन्दूक़ लिये बैटरी-क्षेत्र को पार कर रहा है। कीचड़ में धँसे पाँवों को उठाने में उसे काफ़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। समूचे स्थल में गोबर-कण्डे, हथगोले जो फूटने से रह गये, तोप के गोले और छावनी का कूड़ा-कचरा चिपचिपी कीचड़ के बीच छितरा पड़ा है। प्रत्यक्षतः एकदम अपने पास ही तोप के गोले के धम्म-से गिरने की आवाज़ आप सुनते हैं; और चारों ओर गोलियाँ सनसनाती हुई मालूम होती हैं। वे तरह-तरह की आवाज़ें करती हैं – कुछ मक्खियों की भाँति भनभनाती हैं, और कुछ – जिनकी गति तेज़ है – सीटी-सी बजाती या किसी वाद्य-यन्त्र के तार की भाँति “पिंग” की आवाज़ करती सर्र-से निकल जाती हैं। तोपों के गोलों की गड़गडाहट का तो कुछ कहना ही नहीं। वह सभी को स्तब्ध कर देती है और उसे सुनकर रूह क़ब्ज़ हो जाती है।
“सो यही है वह चौथा व्यूहमुख! यह एक भयानक – सचमुच में भयानक जगह है!” आप अपने मन में सोचते हैं और गर्व की एक नन्ही चेतना तथा अवरुद्ध भय के एक भारी बोझ का अनुभव करते हैं। लेकिन आपको निराशा होगी। असल में यह चौथा व्यूहमुख नहीं है, वहाँ अभी तक आप पहुँचे नहीं हैं। यह तो याज़ॅनोव्स्की मोर्चेबन्दी है – जो ख़तरे से अपेक्षाकृत मुक्त है, और ज़रा भी भयावह नहीं है। चौथे व्यूहमुख तक पहुँचने के लिए दाहिनी ओर मुड़कर आपको भी उसी संकरी खाई के रास्ते चलना होगा जिससे कि अभी-अभी झुककर दोहरा हुआ एक पैदल सैनिक गया है। इस खाई में आपको और भी ज़्यादा स्ट्रेचर, एक नाविक और कुदाली लिये सैनिक दिखायी देंगे, सुरंगों के पलीते और दलदली खोहें नज़र आयेंगी जिनमें दो से ज़्यादा आदमी रेंगकर नहीं समा सकते। इनके अलावा यहाँ आपको कृष्णसागर बटालियनों के स्काउट दिखायी देंगे – अपने जूते बदलते हुए, खाना खाते हुए, पाइपों से धुआँ उड़ाते और विविध प्रकार का अपना जीवन बिताते हुए। और हर कहीं, सभी काट-छाँट और आकार-प्रकार के लोहे के टुकड़े, छावनी का कूड़ा-कचरा तथा उसी दुर्गन्धपूर्ण कीचड़ की भरमार है। तीन सौ क़दम और चलने पर आप एक अन्य बैटरी-क्षेत्र में पहुँच जाते हैं। यह एक छोटा-सा चौरस स्थल है – गोलों से छलनी हुआ, रेत-भरे पीपों से लदा-फँदा, मिट्टी के ढूहों-गड्ढों से घिरा, चौतरों पर तोपों से लैस और चहारदीवारी से रक्षित। एक ढूह की ओट में चार या पाँच नाविक ताश खेलते नज़र आते हैं और एक समुद्री अफ़सर, आपको एक नया उत्सुक दर्शक समझकर, ख़ुशी से आपको घुमाता और आपकी दिलचस्पी की हर चीज़ के बारे में बताता है। यह अफ़सर पीले काग़ज़ में तम्बाकू लपेटकर सिगरेट बनाने के लिए अपनी तोप पर बैठ जाता है, या गोलाबारी के एक स्थल से दूसरे स्थल का चक्कर इतने शान्त भाव से लगाता है और चारों ओर अधिकाधिक तेज़ी से सनसनाती गोलियों के बावजूद इतने कृत्रिम अन्दाज़ में बातें करता है कि घबराहट को विदा कर आप भी शान्त हो जाते हैं। आप उससे सवाल करने लगते हैं और जो कुछ वह कहता है उसे पूरे ध्यान से सुनते हैं। अफ़सर आपको बताता है – लेकिन केवल आपके पूछने पर ही – कि पाँच तारीख़ की गोलाबारी के समय क्या हश्र बरपा हुआ था, किस प्रकार केवल एक ही तोप आग उगलने लायक़ रह गयी थी और केवल आठ आदमी जीवित बचे थे, लेकिन इस सबके बावजूद अगले दिन – छह तारीख़ की सुबह को उसकी सभी तोपों ने फिर दुश्मन को भूनना शुरू कर दिया था। वह आपको बताता है कि किस प्रकार पाँच तारीख़ को, नाविकों की एक खन्दक के ऊपर दुश्मन का गोला आकर गिरा और ग्यारह आदमियों की चिन्दियाँ बिखर गयीं। एक छेद में से – जो कि निशाना साधने के लिए बनाया गया है। – वह आपको दुश्मन की खाइयाँ दिखाता है जो यहाँ से दो अथवा तीन सौ फ़ुट से ज़्यादा दूर नहीं हैं। लेकिन एक बात का डर है। वह यह कि दुश्मन पर नज़र डालने के लिए जब आप उस छेद में से झाँकने का प्रयत्न करते हैं तो सनसनाती गोलियों के असर के मारे आप कुछ देख नहीं पाते; और अगर आप कुछ देखने में समर्थ हो सकें तो यह जानकर आपको अचरज होगा कि वह सफ़ेद चट्टानी दीवार ही, जो कि आपके इतना नज़दीक है और जिसमें से धुएँ के छोटे-छोटे गोले निकल तथा फूट रहे हैं, दुश्मन है। सैनिक और नाविक उसे – दुश्मन को – वह कहकर पुकारते हैं।
यह बिल्कुल सम्भव है कि समुद्री अफ़सर बहादुरी के जोम में आकर या केवल जी बहलाने की ख़ातिर, आपको भी निशानेबाज़ी का एक छोटा-सा नमूना दिखाना चाहे। वह हुक्म देता है: “तोपची और उसके दल को तैयार करो!”
हँसते-खेलते चौदह नाविक पाँत बाँधे बाहर निकलते हैं। एक अपना पाइप जेब में खोंस रहा है, दूसरा बिस्कुट के बाक़ी बचे हिस्से को अपने मुँह के हवाले कर रहा है। टोपीदार कीलें लगे अपने जूतों को खटखटाते वे चबूतरे पर चढ़ जाते हैं और तोप में गोले भरना शुरू कर देते हैं। इन लोगों के चेहरों को ज़रा ध्यान से देखिये। उनके अन्दाज़ और हरकतों पर नज़र रखिये। उनके तपे हुए चौड़े चेहरों की प्रत्येक रेखा, प्रत्येक मांसपेशी, उनके कन्धों की चौड़ाई, घुटने तक के जूतों में कसी उनकी सुडौल टाँगें, उनकी प्रत्येक शान्त, निरावेग, और दुविधाहीन निश्चल हरकत, उन मुख्य गुणों का परिचय देती हैं जिनमें रूसियों की शक्ति – उनकी सादगी और अडिगता – निहित है।
सहसा एक भीषण गड़गड़ाहट न केवल कानों को ही बल्कि समूचे शरीर को सन्न कर देती है और सिर से लेकर पाँव तक एक कँपकँपी-सी दौड़ जाती है। इसके बाद गोले की दूर होती हुई चीख़ सुनायी देती है और बारूद का घना धुआँ आपको, चबूतरे को और उस पर हरकत करते नाविकों को घेर लेता है। गोला दगने के बारे में नाविकों की तरह-तरह की टीका-टिप्पणी आप सुनते हैं। और उनकी आवेशपूर्ण भाव-भंगिमा का आपको ऐसा आभास मिलता है जिसकी कि शायद आप आशा नहीं करते थे – ग़ुस्से और दुश्मन से बदला लेने की प्रबल कामना का, जो हर आदमी के हृदय में हिलोरें ले रही है।
“ठीक एम्ब्राझूर (तोप का मुँह निकालने के लिए दीवार में डाली गयी सेंध।) पर निशाना लगा। दो का तो सफाया हो ही गया होगा। अरे देखो, लाशों को हटाया जा रहा है!” वे ख़ुशी से चिल्लाते हैं।
“वह अब पागल हो उठेगा और क्षण बीतते-न-बीतते वार करेगा!” दूसरा कहता है।
और सचमुच, कुछ ही क्षण बाद, आग की एक लपक और धुएँ के एक बादल पर आपकी नज़र पड़ती है। बुर्जी पर खड़ा सन्तरी चिल्लाकर कहता है: “गोला!” और एक गेंद आपके पास से सनसनाती हुई छपाक से धरती से टकराती और कीचड़ तथा पत्थरों का फ़व्वारा उछाल देती है। बैटरी कमाण्डर का पारा तेज़ हो जाता है और वह दूसरी ओर फिर तोप दाग़ने का आदेश देता है। दुश्मन इसका जवाब देता है और आप दिलचस्प भावों से रोमांचित हो उठते हैं, और दिलचस्प बातें देखने-सुनने का आपको मौक़ा मिलता है। सन्तरी फिर चिल्लाता है: “गोला!” और आप एक बार फिर गोले की चीख़, उसके गिरने का धमाका और कीचड़ का फ़व्वारा छूटता हुआ देखते हैं। यह भी हो सकता है कि सन्तरी चिल्लाकर कहे: “मोर्टर!” और आप एकरस तथा किसी हद तक सुहावनी भनभनाहट सुनें जो ज़रा भी भयानकता का आभास नहीं देती – अधिकाधिक तेज़ गति से निकट आते हुए शेल की भनभनाहट। और इसके बाद एक काली गेंद आपको दिखायी देगी, जो एक भारी धमाके के साथ ज़मीन से टकरायेगी ओर उसके भीषण विस्फोट की ध्वनि से आपके कान गूँज उठेंगे। लोहे की छेपटियाँ और टुकड़े, चीख़ते और सीटी-सी बजाते, चारों ओर छिटकेंगे, पत्थरों की बौछार होगी और आप कीचड़ से लथपथ हो जायेंगे। और इस समूचे दौरान में भय और ख़ुशी की एक मिली-जुली भावना का आप अनुभव करेंगे। क्षण-भर के लिए आपको यह पक्का यक़ीन हो जाता है कि शेल आपकी ओर ही आ रहा है और यह कि वह निश्चय ही आपके जीवन का अन्त कर देगा। लेकिन आपका गर्व आपको सँभाल लेता है और उस वेदना को कोई नहीं देख पाता जो छुरी की तरह आपके हृदय को बेध रही है। लेकिन जब शेल आपको छुए बिना ही पास से निकल जाता है तो आपमें तुरन्त स्फूर्ति आ जाती है और एक आींादपूर्ण तथा अत्यन्त सुखद भावना आपके रोम-रोम में छलछलाने लगती है। क्षण-भर के लिए ही सही, लेकिन ख़तरे में आप एक अजीब आकर्षण का अनुभव करते हैं, जीवन-मृत्यु का यह खेल आपको मुग्ध कर लेता है और आप यह चाहने लगते हैं कि गोला या शेल आपके नज़दीक, और भी ज़्यादा नज़दीक गिरे। तभी, अपनी ज़ोरदार और खुरदुरी आवाज़ में सन्तरी एक बार फिर चिल्लाता है: “मोर्टर!” और एक बार फिर शेल के आने की चीख़, उसके गिरने की आवाज़ और फटने का धमाका सुनायी देता है। लेकिन इन आवाज़ों के साथ किसी मानव-प्राणी के कराहने की आवाज़ आपको अचरज में डाल देती है। स्ट्रेचर लाया जाता है और ठीक उसी समय आप भी घायल के पास पहुँच जाते हैं। कीचड़ और ख़ून में पड़ा वह एक अजीब, क़रीब-क़रीब अमानवीय दृश्य प्रस्तुत करता है। उसके सीने का एक हिस्सा उड़ गया है। कुछ क्षणों तक उसके कीचड़ में लिथड़े चेहरे पर केवल भय तथा वेदना का बनावटी-सा दिखने वाला तथा असामयिक भाव नज़र आता है जो कि ऐसी हालत में बहुधा लोगों के चेहरों पर छा जाता है। लेकिन जब स्ट्रेचर आ जाता है और वह ख़ुद उठकर उस पर चढ़ जाता है तथा जो बाज़ू घायल नहीं है, उसके बल लेट जाता है तो यह भाव एक प्रकार के उल्लास और अव्यक्त उदात्त विचार का रूप धारण कर लेता है – उसकी आँखों में चमक दौड़ जाती है, वह अपने दाँतों को भींच लेता है, कोशिश करके अपना सिर ऊँचा कर लेता है। और जब स्ट्रेचर को उठाया जाता है तो वह स्ट्रेचर-वाहकों को रोककर अपने साथियों की ओर मुड़ता है और काँपती आवाज़ में उनसे कहता है: “मुझे माफ़ करना, बँधुओ!” वह कुछ और भी कहना चाहता है, साफ़ मालूम होता है कि वह किसी कोमल भाव को व्यक्त करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन समर्थ नहीं हो पाता, पहले वाली बात को ही दोहराकर रह जाता है: “मुझे माफ़ करना, बँधुओ!” एक नाविक साथी उसके पास तक जाता है, उसके सिर पर अपनी टोपी पहना देता है – घायल सैनिक इसके लिए अपना सिर उठाता है। इसके बाद, अपनी बाँहों को झुलाता हुआ, शान्त और निश्चल भाव से वह अपनी तोप के पास लौट आता है।
“इसी तरह प्रतिदिन हमारे सात या आठ आदमी कम हो जाते हैं,” आपके चेहरे पर भय के आसार देखकर समुद्री अफ़सर जवाब देता है और जम्हाई लेकर पीले काग़ज़ में तम्बाकू लपेटते हुए एक और सिगरेट तैयार करने लगता है…
हाँ तो अब आप सिवस्तॅपोल के रक्षकों को गोले बरसाते और उनकी मार सहते देख चुके हैं। इसके बाद जब आप वापस लौटते हैं तो, कारण चाहे जो भी हो, रास्ते-भर सिर के ऊपर सनसनाती गोलियों और गोलों की ज़रा भी चिन्ता नहीं करते। आपके क़दम शान्त और उल्लसित भाव से ध्वस्त युद्ध-क्षेत्र का समूचा पथ पार करते हैं। मुख्य चीज़ वह सुखद विश्वास है जिसे आप वहाँ से अपने साथ लाते हैं – यह विश्वास कि सिवस्तॅपोल घुटने नहीं टेक सकता, और केवल यही नहीं कि वह घुटने नहीं टेक सकता, बल्कि यह भी कि रूसी लोगों की आत्मा को कहीं भी, किसी जगह भी, डिगाना असम्भव है। और इस असम्भवता को आपने अनगिनत मोड़ों-चौराहों, रक्षा-दीवारों और पेंचदार खाई-खन्दकों, सुरंगों और तोपों के अम्बारों में नहीं – उन बेतुके और बेमानी अम्बारों में नहीं – जैसा कि आपको मालूम हुआ था – बल्कि सिवस्तॅपोल के रक्षकों की आँखों में, उनकी वाणी में, उनके हर अन्दाज़ में, और उस चीज़ में देखा है जिसे उनकी आत्मा कहा जाता है। जो कुछ भी वे करते हैं, बहुत ही सादगी और सहज भाव से करते हैं। उन्हें देखकर ज़रा भी सन्देह नहीं रहता कि जो कुछ वे कर रहे हैं, उससे सौ-गुना ज़्यादा और कर सकते हैं… कुछ भी उनके लिए असम्भव नहीं है। आप अनुभव करते हैं कि उनके कृत्यों के पीछे किसी तुच्छता, महत्त्वाकांक्षा या अपने-आपको भुलाने की वह भावना नहीं जिसने कि आपको अनुप्राणित किया था, बल्कि कोई दूसरी भावना है – इनसे कहीं अधिक प्रबल और आवेगमयी। इस भावना ने ही उन्हें गोली-गोलों की बौछारों के बीच शान्त रहने की क्षमता प्रदान की है, उन्हें ऐसी परिस्थितियों में रहना सिखाया है जिसमें जीवन का एक भी नहीं लेकिन मौत के सौ अवसर आते रहते हैं और जिसमें निरन्तर श्रम करना, जागरूक रहना और गन्दगी को सिर पर ओढ़ना पड़ता है। किसी तरह भी एक तमग़े या उपाधि के लिए, या दण्ड के भय से लोग इतनी भयावह परिस्थितियों को बरदाश्त नहीं कर सकते। कोई अन्य ज़्यादा शुभ और ऊँची भावना उन्हें अनुप्राणित करती है। सिवस्तॅपोल के घेरे के प्रारम्भिक दिनों की कहानियाँ – उन दिनों की कहानियाँ जबकि न क़िलेबन्दियाँ थीं, न सेनाएँ थीं, क़िले को बचाये रखने की कोई भौतिक सम्भावना तक नहीं थी, और इतने पर भी किसी को ज़रा भी यह सन्देह नहीं था कि वह दुश्मन के सामने घुटने टेक देगा। यही दिन थे जब कोर्नीलोव ने – उस वीर ने जिस पर प्राचीन यूनान तक गर्व कर सकता है – अपनी सेनाओं का मुआइना करते समय कहा था: “जवानो हम मर जायेंगे, पर सिवस्तॅपोल को घुटने नहीं टेकने देंगे!” और हमारे रूसी लोगों ने, जो कभी डींग नहीं मारते, जवाब में कहा था: “हम मर मिटेंगे, जय हो!” – सिवस्तॅपोल के उन दिनों की कहानियाँ अनगिनत सुन्दर ऐतिहासिक दन्त-कथाएँ न रहकर अब आपके लिए प्रामाणिक बन जाती हैं, सत्य का रूप धारण कर लेती हैं। अब आप उन लोगों को, जिन्हें देखकर आप अभी-अभी लौटे हैं – उन वीरों को जिन्होंने कठिनतम दिनों में हिम्मत नहीं हारी, बल्कि जो और भी ऊँचे उठे और किसी एक नगर के लिए नहीं, बल्कि अपनी मातृभूमि पर जान न्योछावर करने के लिए तैयार हो गये, अच्छी तरह समझ पायेंगे और उनकी तस्वीर आपके मस्तिष्क में स्पष्ट होकर उभरेगी। सिवस्तॅपोल का यह महाकाव्य, जिसमें रूसी जनता ने वीर नायक की भूमिका अदा की, अपनी गहरी छाप से दीर्घकाल तक रूस को अनुप्राणित करता रहेगा…
साँझ का धुँधलका धरती पर उतर रहा है। आकाश भूरे बादलों से आच्छादित है। छिपता हुआ सूरज एकाएक बादलों के पीछे से झाँकता है और अपनी रक्तिम किरणों से गुलाबी बादलों को, समुद्र की हरी सतह को जिसके विशाल शान्त वक्ष पर धब्बों की भाँति छितरे जहाज़ और नौकाएँ हिचकोलें खा रही हैं, और नगर की सफ़ेद इमारतों तथा उसके बाज़ारों में चलते-फिरते लोगों को रँग देता है। रेजीमेण्ट का बैण्ड सड़क पर वाल्त्स की एक प्राचीन धुन बजा रहा है, जो पानी पर से तैरती हुई, दुर्ग से छूटने वाली गरज के साथ मिलकर एक अलौकिक संगीत की सृष्टि करती है।
सिवस्तॅपोल,
25 अप्रैल, 1885
(अनुवाद: नरोत्तम नागर)
Russian Story by Leo Tolstoy & Translated by: Narottam Nagar
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