Hindi Kala presents a Complete Collection of Akbar Allahabadi Poetry, Shayari, Ghazals. Nazm, famous Sher from a prominent Urdu poet and satirist from India.
About Akbar Allahabadi
जन्म/ Birthday: 16 नवम्बर 1846
निधन/Death: 9 सितम्बर 1921
जन्म स्थान/Birthday Place: इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश / Allahabad (Now Prayagraj), Uttar Pradesh
मूल नाम: सय्यद अकबर हुसैन रिज़वी / Syed Akbar Hussain Rizvi
Akbar Allahabadi, a prominent Urdu poet and satirist from India, left an indelible mark on Urdu literature with his sharp wit and insightful poetry. Born in Allahabad in 1846, his verses were characterized by social and political commentary, often critiquing the societal norms and the ruling elite of his time. His works reflected the pulse of society, addressing issues of injustice, hypocrisy, and inequality with a blend of humor and criticism. Through his poetry, Akbar Allahabadi challenged the status quo and advocated for social reform, earning him a revered place in the pantheon of Urdu literature.
Ghazals of Akbar Allahabadi | अकबर इलाहाबादी की ग़ज़लें
Aab-e-Zamzam Se Kaha Maine Mila Ganga Se Kyon | आबे ज़मज़म से कहा मैंने मिला गंगा से क्यों
आबे ज़मज़म से कहा मैंने मिला गंगा से क्यों
क्यों तेरी तीनत में इतनी नातवानी आ गई?
(तीनत = नीयत; नातवानी = अक्षमता)
वह लगा कहने कि हज़रत! आप देखें तो ज़रा
बन्द था शीशी में, अब मुझमें रवानी आ गई
Aah Jo Dil Se Nikalai Jayegi | आह जो दिल से निकाली जाएगी
आह जो दिल से निकाली जाएगी
क्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी
इस नज़ाकत पर ये शमशीर-ए-जफ़ा
आप से क्यूँकर सँभाली जाएगी
क्या ग़म-ए-दुनिया का डर मुझ रिंद को
और इक बोतल चढ़ा ली जाएगी
शैख़ की दावत में मय का काम क्या
एहतियातन कुछ मँगा ली जाएगी
याद-ए-अबरू में है ‘अकबर’ महव यूँ
कब तिरी ये कज-ख़याली जाएगी
Aaj Aaraish-e-Gesu-e-Dota Hoti Hai | आज आराइश-ए-गेसू-ए-दोता होती है
आज आराइश-ए-गेसू-ए-दोता होती है
फिर मिरी जान गिरफ़्तार-ए-बला होती है
शौक़-ए-पा-बोसी-ए-जानाँ मुझे बाक़ी है हनूज़
घास जो उगती है तुर्बत पे हिना होती है
फिर किसी काम का बाक़ी नहीं रहता इंसाँ
सच तो ये है कि मोहब्बत भी बला होती है
जो ज़मीं कूचा-ए-क़ातिल में निकलती है नई
वक़्फ़ वो बहर-ए-मज़ार-ए-शोहदा होती है
जिस ने देखी हो वो चितवन कोई उस से पूछे
जान क्यूँ-कर हदफ़-ए-तीर-ए-क़ज़ा होती है
नज़्अ’ का वक़्त बुरा वक़्त है ख़ालिक़ की पनाह
है वो साअ’त कि क़यामत से सिवा होती है
रूह तो एक तरफ़ होती है रुख़्सत तन से
आरज़ू एक तरफ़ दिल से जुदा होती है
ख़ुद समझता हूँ कि रोने से भला क्या हासिल
पर करूँ क्या यूँही तस्कीन ज़रा होती है
रौंदते फिरते हैं वो मजमा-ए-अग़्यार के साथ
ख़ूब तौक़ीर-ए-मज़ार-ए-शोहदा होती है
मुर्ग़-ए-बिस्मिल की तरह लोट गया दिल मेरा
निगह-ए-नाज़ की तासीर भी क्या होती है
नाला कर लेने दें लिल्लाह न छेड़ें अहबाब
ज़ब्त करता हूँ तो तकलीफ़ सिवा होती है
जिस्म तो ख़ाक में मिल जाते हुए देखते हैं
रूह क्या जाने किधर जाती है क्या होती है
हूँ फ़रेब-ए-सितम-ए-यार का क़ाइल ‘अकबर’
मरते मरते न खुला ये कि जफ़ा होती है
Aalam Hai Bekhudi Ka Maiy Ki Dukaan Par Hai | आलम है बे-ख़ुदी का मय की दुकान पर हैं
‘आलम है बे-ख़ुदी का मय की दुकान पर हैं
साक़ी पे हैं निगाहें होश आसमान पर हैं
दिल अपनी ज़िद पे क़ाइम वो अपनी आन पर हैं
जितनी मुसीबतें हैं सब मेरी जान पर हैं
दुनिया बदल गई है वो हैं हमीं कि अब तक
अपने मक़ाम पर हैं अपने मकान पर हैं
ये सूरतें तुम्हारी ये नाज़ ये अदाएँ
क़ुर्बान ऐ बुतो हम ख़ालिक़ की शान पर हैं
शुक्र-ए-ख़ुदा कि उन के क़दमों पे सर है अपना
इस वक़्त कुछ न पूछो हम आसमान पर हैं
अब तक समझ रहे हैं दिल में मुझे मुसलमाँ
क़ाइम हुनूज़ ये बुत अपने गुमान पर हैं
उस्लूब-ए-नज़्म-ए-‘अकबर’ फ़ितरत से है क़रीं-तर
अल्फ़ाज़ हैं महल पर मा’नी मकान पर हैं
Aankhein Mujhe Talwo Se Woh Malne Nahi Dete | आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मिरे दिल के निकलने नहीं देते
ख़ातिर से तिरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को सँभलने नहीं देते
किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते
परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यूँ हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते
हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
गर्मी-ए-मोहब्बत में वो हैं आह से माने’
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते
Aapse Behad Muhabbat Hai Mujhe | आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे
आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे
आप क्यों चुप हैं ये हैरत है मुझे
शायरी मेरे लिए आसाँ नहीं
झूठ से वल्लाह नफ़रत है मुझे
रोज़े-रिन्दी है नसीबे-दीगराँ
शायरी की सिर्फ़ क़ूवत है मुझे
(रोज़े-रिन्दी = शराब पीने का दिन; नसीबे-दीगराँ = दूसरों की क़िस्मत में; क़ूवत = ताक़त)
नग़मये-योरप से मैं वाक़िफ़ नहीं
देस ही की याद है बस गत मुझे
दे दिया मैंने बिलाशर्त उन को दिल
मिल रहेगी कुछ न कुछ क़ीमत मुझे
Aayi Hogi Kisi Ko Hijra Mein Maut | आई होगी किसी को हिज्र में मौत
आई होगी किसी को हिज्र में मौत
मुझ को तो नींद भी नहीं आती
‘आक़िबत में बशर से है ये सिवा
जानवर को हँसी नहीं आती
हाल वो पूछते हैं मैं हूँ ख़मोश
क्या कहूँ शा’इरी नहीं आती
हम-नशीं बिक के अपना सर न फिरा
रंज में हूँ हँसी नहीं आती
‘इश्क़ को दिल में दे जगह ‘अकबर’
‘इल्म से शा’इरी नहीं आती
Ab Se Iss Zindgi Par Gafilo Ka Fakhra Karna Hai | अबस इस ज़िंदगी पर ग़ाफ़िलों का फ़ख़्र करना है
‘अबस इस ज़िंदगी पर ग़ाफ़िलों का फ़ख़्र करना है
ये जीना कोई जीना है कि जिस के साथ मरना है
जो मुस्तक़बिल के ‘आशिक़ हैं उन्हें उलझन मुबारक हो
हमें तो सिर्फ़ अब गुज़रा ज़माना याद करना है
गुल-ए-पज़मुर्दा से ग़ुंचे को हमदर्दी नहीं मुमकिन
अभी तो इस को खिलना है अभी इस को सँवरना है
मिरा दिल मुझ से कहता है मिरे सीने में ऐ ‘अकबर’
त’अज्जुब है कि रहना सहल है मुश्किल ठहरना है
ख़ुदा जाने वो क्या समझे कि बिगड़े इस क़दर मुझ पर
कहा था मैं ने इतना ही मुझे कुछ ‘अर्ज़ करना है
Afsos Hai Gulshan Khiza Loot Rahi Hai | अफ़्सोस है गुल्शन ख़िज़ाँ लूट रही है
अफ़्सोस है गुल्शन ख़िज़ाँ लूट रही है
शाख़े-गुले-तर सूख के अब टूट रही है
इस क़ौम से वह आदते-देरीनये-ताअत
बिलकुल नहीं छूटी है मगर छूट रही है
Agar Dil Waqif-e-Nairangi-e-Tab-e-Sanam Hota | अगर दिल वाक़िफ़-ए-नैरंगी-ए-तब-ए-सनम होता
अगर दिल वाक़िफ़-ए-नैरंगी-ए-तब-ए-सनम होता
ज़माने की दो-रंगी का उसे हरगिज़ न ग़म होता
ये पाबंद-ए-मुसीबत दिल के हाथों हम तो रहते हैं
नहीं तो चैन से कटती न दिल होता न ग़म होता
उन्हीं की बे-वफ़ाई का ये है आठों-पहर सदमा
वही होते जो क़ाबू में तो फिर काहे को ग़म होता
लब-ओ-चश्म-ए-सनम गर देखने पाते कहीं शाइ’र
कोई शीरीं-सुख़न होता कोई जादू-रक़म होता
बहुत अच्छा हुआ आए न वो मेरी अयादत को
जो वो आते तो ग़ैर आते जो ग़ैर आते तो ग़म होता
अगर क़ब्रें नज़र आतीं न दारा-ओ-सिकन्दर की
मुझे भी इश्तियाक़-ए-दौलत-ओ-जाह-ओ-हशम होता
लिए जाता है जोश-ए-शौक़ हम को राह-ए-उल्फ़त में
नहीं तो ज़ोफ़ से दुश्वार चलना दो-क़दम होता
न रहने पाए दीवारों में रौज़न शुक्र है वर्ना
तुम्हें तो दिल-लगी होती ग़रीबों पर सितम होता
Apne Pehlu Se Woh Gairo Ko Utha Hi Na Sake | अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके
अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके
उन को हम क़िस्सा-ए-ग़म अपना सुना ही न सके
ज़ेहन मेरा वो क़यामत कि दो-आलम पे मुहीत
आप ऐसे कि मिरे ज़ेहन में आ ही न सके
देख लेते जो उन्हें तो मुझे रखते मा’ज़ूर
शैख़-साहिब मगर उस बज़्म में जा ही न सके
अक़्ल महँगी है बहुत इश्क़ ख़िलाफ़-ए-तहज़ीब
दिल को इस अहद में हम काम में ला ही न सके
हम तो ख़ुद चाहते थे चैन से बैठें कोई दम
आप की याद मगर दिल से भुला ही न सके
इश्क़ कामिल है उसी का कि पतंगों की तरह
ताब नज़्ज़ारा-ए-माशूक़ की ला ही न सके
दाम-ए-हस्ती की भी तरकीब अजब रक्खी है
जो फँसे उस में वो फिर जान बचा ही न सके
मज़हर-ए-जल्वा-ए-जानाँ है हर इक शय ‘अकबर’
बे-अदब आँख किसी सम्त उठा ही न सके
ऐसी मंतिक़ से तो दीवानगी बेहतर ‘अकबर’
कि जो ख़ालिक़ की तरफ़ दिल को झुका ही न सके
Apni Girah Se Kuch Na Mujhe Aap Dijiye | अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए
अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए
अख़बार में तो नाम मिरा छाप दीजिए
देखो जिसे वो पाइनियर ऑफ़िस में है डटा
बहर-ए-ख़ुदा मुझे भी कहीं छाप दीजिए
चश्म-ए-जहाँ से हालत-ए-असली छुपी नहीं
अख़बार में जो चाहिए वो छाप दीजिए
दा’वा बहुत बड़ा है रियाज़ी में आप को
तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ को तो नाप दीजिए
सुनते नहीं हैं शैख़ नई रौशनी की बात
इंजन की उन के कान में अब भाप दीजिए
इस बुत के दर पे ग़ैर से ‘अकबर’ ने कह दिया
ज़र ही मैं देने लाया हूँ जान आप दीजिए
Apni Marzi Ke Muaafiq Dah Ko Kyunkar Karu | अपनी मर्ज़ी के मुआफ़िक़ दह्र को क्यूँकर करूँ
अपनी मर्ज़ी के मुआफ़िक़ दह्र को क्यूँकर करूँ
बेहद आता है मुझे ग़ुस्सा मगर किस पर करूँ
चल बसे छोटे बड़े था जिन से लुत्फ़-ए-ज़िंदगी
मुझ पे किस को नाज़ है मैं नाज़ अब किस पर करूँ
वस्ल की शब हस्ब-ए-मौसम हो ही जाएगी सहर
लुत्फ़ उठाऊँ या दराज़ी की दु’आ शब-भर करूँ
दौर-ए-बे-मेहरी है उम्मीद-ए-मोहब्बत किस से हो
उड़ रही है ख़ाक हर सू किस के दिल में घर करूँ
Armaan Mere Dil Ka Nikalne Nahi Dete | अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते
ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते
किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्लमिलन की रात
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते
परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते
हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़भरा हुआ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने
पंखा नफ़स-ए-सर्दठंडी सांस का झलने नहीं देते
Baagh-e-Duniya Mein Nazar Ghamnaak Ho Kar Rah Gayi | बाग़-ए-दुनिया में नज़र ग़मनाक हो कर रह गई
बाग़-ए-दुनिया में नज़र ग़मनाक हो कर रह गई
रंग बदले ख़ाक ने फिर ख़ाक हो कर रह गई
दाख़िल-ए-इस्कूल हो दुख़्तर तो कुछ हासिल करे
क्या नतीजा सिर्फ़ अगर बेबाक हो कर रह गई
वो तरक़्क़ी है कि जो कर दे शगुफ़्ता मिस्ल-ए-गुल
वो कली क्या जो गरेबाँ-चाक हो कर रह गई
Bahaar Aayi, Maye-Gulku Ke Fabbare Huye Jaari | बहार आई, मये-गुल्गूँ के फ़व्वारे हुए जारी
बहार आई, मये-गुल्गूँ के फ़व्वारे हुए जारी
यहाँ सावन से बढ़कर साक़िया फागुन बरसता है
फ़रावानी हुई दौलत की सन्नाआने योरप में
यह अब्रे-दौरे-इंजन है कि जिससे हुन बरसता है
Bahut Raha Hai Kabhi Lutf-e-Yaar Hum Par Bhi | बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी
उरूस-ए-दहर को आया था प्यार हम पर भी
ये बेसवा थी किसी शब निसार हम पर भी
बिठा चुका है ज़माना हमें भी मसनद पर
हुआ किए हैं जवाहिर निसार हम पर भी
अदू को भी जो बनाया है तुम ने महरम-ए-राज़
तो फ़ख़्र क्या जो हुआ ए’तिबार हम पर भी
ख़ता किसी की हो लेकिन खुली जो उन की ज़बाँ
तो हो ही जाते हैं दो एक वार हम पर भी
हम ऐसे रिंद मगर ये ज़माना है वो ग़ज़ब
कि डाल ही दिया दुनिया का बार हम पर भी
हमें भी आतिश-ए-उल्फ़त जला चुकी ‘अकबर’
हराम हो गई दोज़ख़ की नार हम पर भी
Behase Fuzool Thi Yah Khula Haal Der Se | बहसें फ़ुजूल थीं यह खुला हाल देर से
बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में
है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़
कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर मे
हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग
बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में
छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में
Benaala-o-Fariyaad-o-Fuga Rah Nahi Sakte | बे-नाला-ओ-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ रह नहीं सकते
बे-नाला-ओ-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ रह नहीं सकते
क़हर इस पे ये है इस का सबब कह नहीं सकते
मौजें हैं तबी’अत में मगर उठ नहीं सकतीं
दरिया हैं मिरे दिल में मगर बह नहीं सकते
पतवार शिकस्ता है नहीं ताक़त-ए-गर्मी
है नाव में सूराख़ मगर कह नहीं सकते
कह दोगे कि है तज्रबा इस बात के बर-‘अक्स
क्यूँकर ये कहें ज़ुल्म-ओ-सितम सह नहीं सकते
‘इज़्ज़त कभी वो थी कि भुलाए से न भूले
तहक़ीर अब ऐसी है जिसे सह नहीं सकते
Be-Takalluf Bosa-e-Zulf-e-Chaleepa Lijiye | बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए
बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए
नक़्द-ए-दिल मौजूद है फिर क्यूँ न सौदा लीजिए
दिल तो पहले ले चुके अब जान के ख़्वाहाँ हैं आप
इस में भी मुझ को नहीं इंकार अच्छा लीजिए
पाँव पड़ कर कहती है ज़ंजीर-ए-ज़िंदाँ में रहो
वहशत-ए-दिल का है ईमा राह-ए-सहरा लीजिए
ग़ैर को तो कर के ज़िद करते हैं खाने में शरीक
मुझ से कहते हैं अगर कुछ भूक हो खा लीजिए
ख़ुश-नुमा चीज़ें हैं बाज़ार-ए-जहाँ में बे-शुमार
एक नक़द-ए-दिल से या-रब मोल क्या क्या लीजिए
कुश्ता आख़िर आतिश-ए-फ़ुर्क़त से होना है मुझे
और चंदे सूरत-ए-सीमाब तड़पा लीजिए
फ़स्ल-ए-गुल के आते ही ‘अकबर’ हुए बेहोश आप
खोलिए आँखों को साहब जाम-ए-सहबा लीजिए
Bithayi Jayegi Parde Mein Biwiya Kab Tak | बिठाई जाएंगी पर्दे में बीबियाँ कब तक
बिठाई जाएंगी परदे में बीबियाँ कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक
हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियाँ कब तक
(हरम-सरा= भवन का वह भाग जहाँ स्त्रियाँ रहती हैं; तेग़= तलवार;)
मियाँ से बीबी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर
मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक
तबीयतों का नमू है हवाए-मग़रिब में
यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियाँ कब तक
(नमू=उठान; मग़रिब=पश्चिम; ग़ैरत= हयादारी; हरारत= गर्मी;)
अवाम बांध ले दोहर को थर्ड-वो-इंटर में
सिकण्ड-ओ-फ़र्स्ट की हों बन्द खिड़कियाँ कब तक
(अवाम= जनता)
जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस
छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियाँ कब तक
(मुसिर= ज़िद्द करना)
जनाबे हज़रते ‘अकबर’ हैं हामिए-पर्दा
मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक
(हामिए-पर्दा= पर्दे का समर्थन करने वाला)
Charkh Se Kuch Ummeed Thi Hi Nahi | चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं
चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं
आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
चाहता था बहुत सी बातों को
मगर अफ़्सोस अब वो जी ही नहीं
जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल क्या होती
नज़र-ए-लुत्फ़ उस ने की ही नहीं
इस मुसीबत में दिल से क्या कहता
कोई ऐसी मिसाल थी ही नहीं
आप क्या जानें क़द्र-ए-या-अल्लाह
जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं
शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया
मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं
पूछा ‘अकबर’ है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं
Chasme Jahan Se Haalatein Asli Nahi Chhupti | चश्मे जहाँ से हालते असली नहीं छुपती
चश्मे जहाँ से हालते असली नहीं छुपती
अख्बार में जो चाहिए वह छाप दीजिए
दावा बहुत बड़ा है रियाजी मे आपको
तूले शबे फिराक को तो नाप दीजिए
सुनते नहीं हैं शेख नई रोशनी की बात
इंजन कि उनके कान में अब भाप दीजिए
जिस बुत के दर पे गौर से अकबर ने कह दिया
जार ही मैं देने लाया हूँ जान आप दीजिए
Chhida Hai Raag Bhoure Ka Hawa Ki Hai Nayi Dhun Bhi | छिड़ा है राग भौंरे का हवा की है नई धुन भी
छिड़ा है राग भौंरे का हवा की है नई धुन भी
ग़ज़ब है साल के बारह महीनों में ये फागुन भी
ये रंग-ए-हुस्न-ए-गुल ये नग़्मा-ए-मस्ताना-ए-बुलबुल
इशारा करती है फ़ितरत इधर आ देख भी सुन भी
बड़े दर्शन तुम्हारे हो गए राजा की सेवा से
मगर मन का पनपना चाहते हो तो करो पुन भी
हुए रौशन ये मा’नी चाँद क्यों शा’इर को प्यारा है
कमाल इस में ये है आरिज़ भी है अबरू भी नाख़ुन भी
Dard To Maujood Hai Dil Mein Dawa Ho Ya Na Ho | दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो
दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो
बंदगी हालत से ज़ाहिर है ख़ुदा हो या न हो
झूमती है शाख़-ए-गुल खिलते हैं ग़ुंचे दम-ब-दम
बा-असर गुलशन में तहरीक-ए-सबा हो या न हो
वज्द में लाते हैं मुझ को बुलबुलों के ज़मज़मे
आप के नज़दीक बा-मअ’नी सदा हो या न हो
कर दिया है ज़िंदगी ने बज़्म-ए-हस्ती में शरीक
उस का कुछ मक़्सूद कोई मुद्दआ हो या न हो
क्यूँ सिवल-सर्जन का आना रोकता है हम-नशीं
इस में है इक बात ऑनर की शिफ़ा हो या न हो
मौलवी साहिब न छोड़ेंगे ख़ुदा गो बख़्श दे
घेर ही लेंगे पुलिस वाले सज़ा हो या न हो
मिमबरी से आप पर तो वार्निश हो जाएगी
क़ौम की हालत में कुछ इस से जिला हो या न हो
मो’तरिज़ क्यूँ हो अगर समझे तुम्हें सय्याद दिल
ऐसे गेसू हूँ तो शुबह दाम का हो या न हो
Dasht-e-Gurbat Hai Alaalat Bhi Hai Tanhai Bhi | दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी
दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी
और उन सब पे फ़ुज़ूँ बादिया-पैमाई भी
ख़्वाब-ए-राहत है कहाँ नींद भी आती नहीं अब
बस उचट जाने को आई जो कभी आई भी
याद है मुझ को वो बे-फ़िक्री ओ आग़ाज़-ए-शबाब
सुख़न-आराई भी थी अंजुमन-आराई भी
निगह-ए-शौक़-ओ-तमन्ना की वो दिलकश थी कमंद
जिस से हो जाते थे राम आहु-ए-सहराई भी
हम सनम-ख़ाना जहाँ करते थे अपना क़ाइम
फिर खड़े होते थे वाँ हूर के शैदाई भी
अब न वो उम्र न वो लोग न वो लैल ओ नहार
बुझ गई तब्अ’ कभी जोश पे गर आई भी
अब तो शुबहे भी मुझे देव नज़र आते हैं
उस ज़माने में परी-ज़ाद थी रुस्वाई भी
काम की बात जो कहनी हो वो कह लो ‘अकबर’
दम में छिन जाएगी ये ताक़त-ए-गोयाई भी
Daur-e-Gardu Mein Kisi Ne Meri Gham Khawari Na Ki | दौर-ए-गर्दूं में किसी ने मेरी ग़म-ख़्वारी न की
दौर-ए-गर्दूं में किसी ने मेरी ग़म-ख़्वारी न की
दुश्मनों ने दुश्मनी की यार ने यारी न की
हश्र का सौदा हुआ ज़ौक़-ए-जमाल-ए-दोस्त में
हम ने बाज़ार-ए-जहाँ में कुछ ख़रीदारी न की
क़हक़हों की मश्क़ से मैं ने निकाला अपना काम
जब किसी ने क़द्र-ए-आह-ओ-नाला-ओ-ज़ारी न की
कू-ए-जानाँ का पता दे कर मैं पहुँचा ख़ुल्द में
मुझ से कुछ रिज़वाँ ने बहस-ए-नाजी-ओ-नारी न की
वक़्त साए का अभी आया नहीं मग़रिब है दूर
क्यों पसंद उस बर्क़-वश ने मशरिक़ी सारी न की
जामा-ज़ेबों की नज़र भी दल्क़-ए-‘अकबर’ पर पड़ी
शान ही कुछ और थी उस ख़िर्क़ा-ए-पारीना की
Dil-e-Mayus Mein Woh Shorishein Barpa Nahi Hoti | दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं
दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं
उमीदें इस क़दर टूटीं कि अब पैदा नहीं होतीं
मिरी बेताबियाँ भी जुज़्व हैं इक मेरी हस्ती की
ये ज़ाहिर है कि मौजें ख़ारिज अज़ दरिया नहीं होतीं
वही परियाँ हैं अब भी राजा इन्दर के अखाड़े में
मगर शहज़ादा-ए-गुलफ़ाम पर शैदा नहीं होतीं
यहाँ की औरतों को इल्म की पर्वा नहीं बे-शक
मगर ये शौहरों से अपने बे-परवा नहीं होतीं
तअ’ल्लुक़ दिल का क्या बाक़ी मैं रक्खूँ बज़्म-ए-दुनिया से
वो दिलकश सूरतें अब अंजुमन-आरा नहीं होतीं
हुआ हूँ इस क़दर अफ़्सुर्दा रंग-ए-बाग़-ए-हस्ती से
हवाएँ फ़स्ल-ए-गुल की भी नशात-अफ़्ज़ा नहीं होतीं
क़ज़ा के सामने बे-कार होते हैं हवास ‘अकबर’
खुली होती हैं गो आँखें मगर बीना नहीं होतीं
Dil-e-Zakhmi Se Khoon Yeh Humnashi Kuch Kam Nahi Nikla | दिल-ए-ज़ख़्मी से ख़ूँ ऐ हमनशीं कुछ कम नहीं निकला
दिल-ए-ज़ख़्मी से ख़ूँ ऐ हमनशीं कुछ कम नहीं निकला
तड़पना था मगर क़िस्मत में लिक्खा दम नहीं निकला
हमेशा ज़ख़्म-ए-दिल पर ज़ह्र ही छिड़का ख़यालों ने
कभी इन हम-दमों की जेब से मरहम नहीं निकला
हमारा भी कोई हमदर्द है इस वक़्त दुनिया में
पुकारा हर तरफ़ मुँह से किसी के हम नहीं निकला
तजस्सुस की नज़र से सैर-ए-फ़ितरत की जो ऐ ‘अकबर’
कोई ज़र्रा न था जिस में कि इक ‘आलम नहीं निकला
Dil Ho Kharab Deen pe Jo Kuch Asar Pade | दिल हो ख़राब दीन पे जो कुछ असर पड़े
दिल हो ख़राब दीन पे जो कुछ असर पड़े
अब कार-ए-आशिक़ी तो बहर-कैफ़ कर पड़े
इश्क़-ए-बुताँ का दीन पे जो कुछ असर पड़े
अब तो निबाहना है जब इक काम कर पड़े
मज़हब छुड़ाया इश्वा-ए-दुनिया ने शैख़ से
देखी जो रेल ऊँट से आख़िर उतर पड़े
बेताबियाँ नसीब न थीं वर्ना हम-नशीं
ये क्या ज़रूर था कि उन्हीं पर नज़र पड़े
बेहतर यही है क़स्द उधर का करें न वो
ऐसा न हो कि राह में दुश्मन का घर पड़े
हम चाहते हैं मेल वजूद-ओ-अदम में हो
मुमकिन तो है जो बीच में उन की कमर पड़े
दाना वही है दिल जो करे आप का ख़याल
बीना वही नज़र है कि जो आप पर पड़े
होनी न चाहिए थी मोहब्बत मगर हुई
पड़ना न चाहिए था ग़ज़ब में मगर पड़े
शैतान की न मान जो राहत-नसीब हो
अल्लाह को पुकार मुसीबत अगर पड़े
ऐ शैख़ उन बुतों की ये चालाकियाँ तो देख
निकले अगर हरम से तो ‘अकबर’ के घर पड़े
Dil Mera Jis Se Behalta Koi Aisa Na Mila | दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बंदे मिले अल्लाह का बंदा न मिला
बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला
(बज़्म-ए-याराँ=मित्रसभा; बाद-ए-बहारी=वासन्ती हवा; मायूस=निराश; आमादा-ए-सौदा=पागल होने को तैयार)
गुल के ख़्वाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्र-फ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़मा-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला
(ख्व़ाहाँ=चाहने वाले; इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले; तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों का इच्छुक)
वाह क्या राह दिखाई है हमें मुर्शिद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला
(मुर्शिद=गु्रू; कलीसा=चर्च,गिरजाघर)
रंग चेहरे का तो कॉलेज ने भी रक्खा क़ाइम
रंग-ए-बातिन में मगर बाप से बेटा न मिला
सय्यद उट्ठे जो गज़ट ले के तो लाखों लाए
शैख़ क़ुरआन दिखाते फिरे पैसा न मिला
(गज़ट=समाचार पत्र)
होशयारों में तो इक इक से सिवा हैं ‘अकबर’
मुझ को दीवानों में लेकिन कोई तुझ सा न मिला
Dil Mera Unpe Jo Aaya To Kaza Bhi Aayi | दिल मिरा उन पे जो आया तो क़ज़ा भी आई
दिल मिरा उन पे जो आया तो क़ज़ा भी आई
दर्द के साथ ही साथ उस की दवा भी आई
आए खोले हुए बालों को तो शोख़ी से कहा
मैं भी आया तिरे घर मेरी बला भी आई
वाए-क़िस्मत कि मिरे कुफ़्र की वक़’अत न हुई
बुत को देखा तो मुझे याद-ए-ख़ुदा भी आई
हुईं आग़ाज़-ए-जवानी में निगाहें नीची
नश्शा आँखों में जो आया तो हया भी आई
डस लिया अफ़’ई-ए-शाम-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त ने मुझे
फिर न जागूँगा अगर नींद ज़रा भी आई
Do Aalam Ki Bina Kya Jaane Kya Hai | दो-‘आलम की बिना क्या जाने क्या है
दो-‘आलम की बिना क्या जाने क्या है
निशान-ए-मा-सिवा क्या जाने क्या है
हक़ीक़त पूछ गुल की बुलबुलों से
भला उस को सबा क्या जाने क्या है
हुआ हूँ उन का ‘आशिक़ है ये इक जुर्म
मगर इस की सज़ा क्या जाने क्या है
मिरे मक़्सूद-ए-दिल तो बस तुम्हीं हो
तुम्हारा मुद्द’आ क्या जाने क्या है
न ‘अकबर’ सा कोई नादाँ न ज़ी-होश
हर इक शय को कहा क्या जाने क्या है
Dum Labo Par Tha Dilezar Ke Ghabrane Se | दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से
दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से
आ गई है जाँ में जाँ आपके आ जाने से
तेरा कूचा न छूटेगा तेरे दीवाने से
उस को काबे से न मतलब है न बुतख़ाने से
शेख़ नाफ़ह्म हैं करते जो नहीं क़द्र उसकी
दिल फ़रिश्तों के मिले हैं तेरे दीवानों से
(नाफ़ह्म = नासमझ)
मैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं
कारे-दुनिया न रुकेगा तेरे मर जाने से
कौन हमदर्द किसी का है जहाँ में ‘अक़बर’
इक उभरता है यहाँ एक के मिट जाने से
Duniya Ka Zara Yeh Rang To Dekh Ek Ek Ko Khaye Jata Hai | दुनिया का ज़रा ये रंग तो देख एक एक को खाए जाता है
दुनिया का ज़रा ये रंग तो देख एक एक को खाए जाता है
बन-बन के बिगड़ता जाता है और बात बनाए जाता है
इंसान की ग़फ़्लत कम न हुई क़ानून-ए-फ़ना की ‘इबरत से
हर गाम पे कितने पाँव भी हैं और सर भी उठाए जाता है
इस को न ख़बर कुछ उस की है उस को है न कुछ पर्वा इस की
रोता है रुलाए जाता है हँसता है हँसाए जाता है
कुछ सोच नहीं कुछ होश नहीं फ़ित्नों के सिवा कुछ जोश नहीं
वो लूट के भागा जाता है ये आग लगाए जाता है
Duniya Mein Hoon Duniya Ka Talabgaar Nahi Hoon | दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ
ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर-चंद कि हूँ होश में हुश्यार नहीं हूँ
इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बे-लौस
साया हूँ फ़क़त नक़्श-ब-दीवार नहीं हूँ
अफ़्सुर्दा हूँ इबरत से दवा की नहीं हाजत
ग़म का मुझे ये ज़ोफ़ है बीमार नहीं हूँ
वो गुल हूँ ख़िज़ाँ ने जिसे बर्बाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ
या रब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ
गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा मे
बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ
अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं ‘अकबर’
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दीं-दार नहीं हूँ
तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला; ज़ीस्त= जीवन; लज़्ज़त= स्वाद; ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर; बेलौस= लांछन के बिना; फ़क़्त= केवल; नक़्श= चिन्ह, चित्र; अफ़सुर्दा= निराश; इबारत= शब्द, लेख; हाजित(हाजत)= आवश्यकता; जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी, क्षीणता; गुल= फूल; ख़िज़ां= पतझड़; ख़ार= कांटा; महफ़ूज़= सुरक्षित; इनायत= कृपा; तलबगार= इच्छुक; अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़= निराशा और क्षीणता; क़ाफ़िर= नास्तिक; दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला।
Falsafi Ko Behas Ke Andar Khuda Milta Nahi | फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं
मा’रिफ़त ख़ालिक़ की आलम में बहुत दुश्वार है
शहर-ए-तन में जब कि ख़ुद अपना पता मिलता नहीं
ग़ाफ़िलों के लुत्फ़ को काफ़ी है दुनियावी ख़ुशी
आक़िलों को बे-ग़म-ए-उक़्बा मज़ा मिलता नहीं
कश्ती-ए-दिल की इलाही बहर-ए-हस्ती में हो ख़ैर
नाख़ुदा मिलते हैं लेकिन बा-ख़ुदा मिलता नहीं
ग़ाफ़िलों को क्या सुनाऊँ दास्तान-ए-इश्क़-ए-यार
सुनने वाले मिलते हैं दर्द-आश्ना मिलता नहीं
ज़िंदगानी का मज़ा मिलता था जिन की बज़्म में
उन की क़ब्रों का भी अब मुझ को पता मिलता नहीं
सिर्फ़ ज़ाहिर हो गया सरमाया-ए-ज़ेब-ओ-सफ़ा
क्या तअ’ज्जुब है जो बातिन बा-सफ़ा मिलता नहीं
पुख़्ता तबओं पर हवादिस का नहीं होता असर
कोहसारों में निशान-ए-नक़्श-ए-पा मिलता नहीं
शैख़-साहिब बरहमन से लाख बरतें दोस्ती
बे-भजन गाए तो मंदिर से टिका मिलता नहीं
जिस पे दिल आया है वो शीरीं-अदा मिलता नहीं
ज़िंदगी है तल्ख़ जीने का मज़ा मिलता नहीं
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
कह दो बे उस के जवानी का मज़ा मिलता नहीं
अहल-ए-ज़ाहिर जिस क़दर चाहें करें बहस-ओ-जिदाल
मैं ये समझा हूँ ख़ुदी में तो ख़ुदा मिलता नहीं
चल बसे वो दिन कि यारों से भरी थी अंजुमन
हाए अफ़्सोस आज सूरत-आश्ना मिलता नहीं
मंज़िल-ए-इशक़-ओ-तवक्कुल मंज़िल-ए-एज़ाज़ है
शाह सब बस्ते हैं याँ कोई गदा मिलता नहीं
बार तकलीफों का मुझ पर बार-ए-एहसाँ से है सहल
शुक्र की जा है अगर हाजत-रवा मिलता नहीं
चाँदनी रातें बहार अपनी दिखाती हैं तो क्या
बे तिरे मुझ को तो लुत्फ़ ऐ मह-लक़ा मिलता नहीं
मा’नी-ए-दिल का करे इज़हार ‘अकबर’ किस तरह
लफ़्ज़ मौज़ूँ बहर-ए-कश्फ़-ए-मुद्दआ मिलता नहीं
Fasaad Niyat Mein Jab Nahi To Phir Mujhe Khatra Kyon Kahin Hai | फ़साद निय्यत में जब नहीं है तो फिर मुझे ख़तरा क्यों कहीं है
फ़साद निय्यत में जब नहीं है तो फिर मुझे ख़तरा क्यों कहीं है
बहुत मुकल्लफ़ हैं ये इशारे कि इस से बचिए और इस से बचिए
बरस रही हो जो चीज़ हम पर ख़याल उस का न आए क्यूँकर
शु’ऊर हो किस तरह मो’अत्तल कहाँ ये मुमकिन कि हिस से बचिए
वो इक ज़माने से बद-गुमाँ हैं ख़बर नहीं क्या असर कहाँ हैं
समझ में आता नहीं कुछ ‘अकबर’ कि किस से अब मिलिए किस से बचिए
Fikra-e-Manzil Ho Gayi Unka Gujarna Dekhkar | फ़िक्र-ए-मंज़िल हो गई उन का गुज़रना देख कर
फ़िक्र-ए-मंज़िल हो गई उन का गुज़रना देख कर
ज़िंदा-दिल मैं हो गया औरों का मरना देख कर
आसमाँ की छत बहुत नीची सर-ए-नख़्वत को है
किब्र से कह दो कि दुनिया में उभरना देख कर
ज़ीस्त बे-वक़’अत हुई है मेरे शौक़-ए-ज़ीस्त से
मौत हैराँ है मिरा मरने से डरना देख कर
Fitna Uthe Koi Ya Ghaat Mein Dushman Baithe | फ़ित्ना उट्ठे कोई या घात में दुश्मन बैठे
फ़ित्ना उट्ठे कोई या घात में दुश्मन बैठे
कार-ए-उल्फ़त पे तो अब हज़रत-ए-दिल ठन बैठे
शैख़ का’बे में कलीसा में बरहमन बैठे
हम तो कूचे में तिरे मार के आसन बैठे
सू-ए-दौलत नज़र आई न जो राह-ए-ए’ज़ाज़
मसनद-ए-सब्र-ओ-तवक्कुल ही पे हम तन बैठे
हूँ मैं वो रिंद अगर हश्र में मुल्ज़िम ठहरूँ
फ़ैसले के लिए हूरों का कमीशन बैठे
इंक़िलाब-ए-रविश-ए-चर्ख़ को देख ऐ ‘अकबर’
कल जो थे दोस्त मिरे आज ‘अदू बन बैठे
हिन्द से आप को हिजरत हो मुबारक ‘अकबर’
हम तो गंगा ही पे अब मार के आसन बैठे
Gale Lagaye Kare Tum Ko Pyaar Eid Ke Din | गले लगाएँ करें तुम को प्यार ईद के दिन
गले लगाएँ करें तुम को प्यार ईद के दिन
इधर तो आओ मिरे गुल-एज़ार ईद के दिन
ग़ज़ब का हुस्न है आराइशें क़यामत की
अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार ईद के दिन
सँभल सकी न तबीअ’त किसी तरह मेरी
रहा न दिल पे मुझे इख़्तियार ईद के दिन
वो साल भर से कुदूरत भरी जो थी दिल में
वो दूर हो गई बस एक बार ईद के दिन
लगा लिया उन्हें सीने से जोश-ए-उल्फ़त में
ग़रज़ कि आ ही गया मुझ को प्यार ईद के दिन
कहीं है नग़्मा-ए-बुलबुल कहीं है ख़ंदा-ए-गुल
अयाँ है जोश-ए-शबाब-ए-बहार ईद के दिन
सिवय्याँ दूध शकर मेवा सब मुहय्या है
मगर ये सब है मुझे नागवार ईद के दिन
मिले अगर लब-ए-शीरीं का तेरे इक बोसा
तो लुत्फ़ हो मुझे अलबत्ता यार ईद के दिन
Gamza Nahi Hota Ki Ishara Nahi Hota | ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता
जल्वा न हो मा’नी का तो सूरत का असर क्या
बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता
अल्लाह बचाए मरज़-ए-इश्क़ से दिल को
सुनते हैं कि ये आरिज़ा अच्छा नहीं होता
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
मैं नज़्अ’ में हूँ आएँ तो एहसान है उन का
लेकिन ये समझ लें कि तमाशा नहीं होता
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
Gandhi To Hamara Bhola Hai | गाँधी तो हमारा भोला है
गाँधी तो हमारा भोला है, और शेख़ ने बदला चोला है
देखो तो ख़ुदा क्या करता है, साहब ने भी दफ़्तर खोला है
आनर की पहेली बूझी है, हर इक को तअल्ली सूझी है
जो चोकर था वह सूजी है, जो माशा था वह तोला है
यारों में रक़म अब कटती है, इस वक़्त हुकूमत बटती है
कम्पू से तो ज़ुल्मत हटती है, बे-नूर मोहल्ला-टोला है
Gham Kya Jo Aasmaan Hai Mujhse Phira Hua | ग़म क्या जो आसमान है मुझसे फिरा हुआ
ग़म क्या जो आसमान है मुझसे फिरा हुआ
मेरी नज़र से ख़ुद है ज़माना घिरा हुआ
मग़रिब ने खुर्दबीं से कमर उनकी देख ली
मशरिक की शायरी का मज़ा किरकिरा हुआ
Haal-e-Dil Main Suna Nahi Sakta | हाल-ए-दिल मैं सुना नहीं सकता
हाल-ए-दिल मैं सुना नहीं सकता
लफ़्ज़ मानी को पा नहीं सकता
इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता
होशे-आरिफ़ की है यही पहचान
कि ख़ुदी में समा नहीं सकता
पोंछ सकता है हम-नशीं आँसू
दाग़-ए-दिल को मिटा नहीं सकता
मुझ को हैरत है उस की क़ुदरत पर
इल्म उस को घटा नहीं सकता
Haasil Ho Kuch Mashay Yeh Mehnat Ki Baat Hai | हासिल हो कुछ मआश ये मेहनत की बात है
हासिल हो कुछ मआश ये मेहनत की बात है
लेकिन सुरूर-ए-क़ल्ब ये क़िस्मत की बात है
आपस की वाह वाह लियाक़त की बात है
सरकार की क़ुबूल ये हिकमत की बात है
वो मुख़्बिर-ए-रक़ीब है मैं हूँ शहीद-ए-‘इश्क़
ये अपनी अपनी हिम्मत-ओ-ग़ैरत की बात है
बीए भी पास हों मिले बीबी भी दिल-पसंद
मेहनत की है वो बात ये क़िस्मत की बात है
तहज़ीब-ए-मग़रिबी में है बोसे तलक मु’आफ़
इस से अगर बढ़ो तो शरारत की बात है
Hai Do Roza Kayaam-e-Sara-e-Fana Na Bahut Ki Khushi Hai Na Kam Ka Gila | है दो-रोज़ा क़याम-ए-सरा-ए-फ़ना न बहुत की ख़ुशी है न कम का गिला
है दो-रोज़ा क़याम-ए-सरा-ए-फ़ना न बहुत की ख़ुशी है न कम का गिला
ये कहाँ का फ़साना-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ जो गया वो गया जो मिला वो मिला
न बहार जमी न ख़िज़ाँ ही रही किसी अहल-ए-नज़र ने ये ख़ूब कही
ये करिश्मा-ए-शान-ए-ज़हूर हैं सब कभी ख़ाक उड़ी कभी फूल खिला
नहीं रखता मैं ख़्वाहिश-ए-‘ऐश-ओ-तरब यही साक़ी-ए-दह्र से बस है तलब
मुझे ता’अत-ए-हक़ का चखा दे मज़ा न कबाब खिला न शराब पिला
है फ़ुज़ूल ये क़िस्सा-ए-ज़ैद-ओ-बकर हर इक अपने ‘अमल का चखेगा समर
कहो ज़ेहन से फ़ुर्सत-ए-‘उम्र है कम जो दिला तो ख़ुदा ही की याद दिला
Hakim-e-Dil Ban Gayi Hai Yeh Theatre Waliya | हाकिम-ए-दिल बन गई हैं ये थियेटर वालियाँ
हाकिम-ए-दिल बन गई हैं ये थियेटर वालियाँ
मैं लगाऊँगा गुल-ए-दाग़-ए-जिगर की डालियाँ
ज़ब्त के जामे के बख़िया टूटते हैं दोस्तो
हाए ये बेलें कशीदे और ऐसी जालियाँ
हूर मुस्तक़बिल परी माज़ी मगर ये हाल हैं
दी-ओ-फ़र्दा क्या करूँ पाऊँ जो ये ख़ुश-हालियाँ
आसमाँ से क्या ग़रज़ जब है ज़मीं पर ये चमक
माह-ओ-अंजुम से हैं बढ़ कर उन के बुंदे बालियाँ
फ़ूल वो कहती हैं मुझ को मैं उन्हें समझा हूँ फूल
हैं गुल-ए-रंगीं से बेहतर उन गुलों की गालियाँ
Halke Nahi Hai Zulf Ke Halke Hai Jaal Ke | हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के
हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के
हाँ ऐ निगाह-ए-शौक़ ज़रा देख-भाल के
पहुँचे हैं ता-कमर जो तिरे गेसू-ए-रसा
मा’नी ये हैं कमर भी बराबर है बाल के
बोस-ओ-कनार-ओ-वस्ल-ए-हसीनाँ है ख़ूब शग़्ल
कमतर बुज़ुर्ग होंगे ख़िलाफ़ इस ख़याल के
क़ामत से तेरे साने-ए-क़ुदरत ने ऐ हसीं
दिखला दिया है हश्र को साँचे में ढाल के
शान-ए-दिमाग़ इश्क़ के जल्वे से ये बढ़ी
रखता है होश भी क़दम अपने सँभाल के
ज़ीनत मुक़द्दमा है मुसीबत का दहर में
सब शम्अ’ को जलाते हैं साँचे में ढाल के
हस्ती के हक़ के सामने क्या अस्ल-ए-ईन-ओ-आँ
पुतले ये सब हैं आप के वहम-ओ-ख़याल के
तलवार ले के उठता है हर तालिब-ए-फ़रोग़
दौर-ए-फ़लक में हैं ये इशारे हिलाल के
पेचीदा ज़िंदगी के करो तुम मुक़द्दमे
दिखला ही देगी मौत नतीजा निकाल के
Har Ik Yeh Kehta Hai Ab Kaar-e-Di To Kuch Bhi Nahi | हर इक ये कहता है अब कार-ए-दीं तो कुछ भी नहीं
हर इक ये कहता है अब कार-ए-दीं तो कुछ भी नहीं
ये सच भी है कि मज़ा बे-यक़ीं तो कुछ भी नहीं
तमाम उम्र यहाँ ख़ाक उड़ा के देख लिया
अब आसमान को देखूँ ज़मीं तो कुछ भी नहीं
मिरी नज़र में तो बस है उन्हीं से रौनक़-ए-बज़्म
वही नहीं हैं जो ऐ हम-नशीं तो कुछ भी नहीं
हरम में मुझ को नज़र आए सिर्फ़ ज़ाहिद-ए-ख़ुश्क
मकान ख़ूब है लेकिन मकीं तो कुछ भी नहीं
तिरे लबों से है अलबत्ता इक हलावत-ए-ज़ीस्त
नबात-ए-क़ंद-ए-शकर अंग्बीं तो कुछ भी नहीं
दिमाग़ अब तो मिसों का है चर्ख़-ए-चारुम पर
बढ़ा दिया मिरी ख़्वाहिश ने थीं तो कुछ भी नहीं
ब-क़ौल-ए-हज़रत-ए-‘महशर’ कलाम शायर का
पसंद आए तो सब कुछ नहीं तो कुछ भी नहीं
वो कहते हैं कि तुम्हीं हो जो कुछ हो ऐ ‘अकबर’
हम अपने दिल में हैं कहते हमीं तो कुछ भी नहीं
Har Kadam Kehta Hai Tu Aaya Hai Jaane Ke Liye | हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
मंज़िल-ए-हस्ती नहीं है दिल लगाने के लिए
क्या मुझे ख़ुश आए ये हैरत-सरा-ए-बे-सबात
होश उड़ने के लिए है जान जाने के लिए
दिल ने देखा है बिसात-ए-क़ुव्वत-ए-इदराक को
क्या बढ़े इस बज़्म में आँखें उठाने के लिए
ख़ूब उम्मीदें बंधीं लेकिन हुईं हिरमाँ नसीब
बदलियाँ उट्ठीं मगर बिजली गिराने के लिए
साँस की तरकीब पर मिट्टी को प्यार आ ही गया
ख़ुद हुई क़ैद उस को सीने से लगाने के लिए
जब कहा मैं ने भुला दो ग़ैर को हँस कर कहा
याद फिर मुझ को दिलाना भूल जाने के लिए
दीदा-बाज़ी वो कहाँ आँखें रहा करती हैं बंद
जान ही बाक़ी नहीं अब दिल लगाने के लिए
मुझ को ख़ुश आई है मस्ती शेख़ जी को फ़रबही
मैं हूँ पीने के लिए और वो हैं खाने के लिए
अल्लाह अल्लाह के सिवा आख़िर रहा कुछ भी न याद
जो किया था याद सब था भूल जाने के लिए
सुर कहाँ के साज़ कैसा कैसी बज़्म-ए-सामईन
जोश-ए-दिल काफ़ी है अकबर तान उड़ाने के लिए
Haram Kya Dair Kya Dono Yeh Veeran Hote Jate Hai | हरम क्या दैर क्या दोनों ये वीराँ होते जाते हैं
हरम क्या दैर क्या दोनों ये वीराँ होते जाते हैं
तुम्हारे मो’तक़िद गबरू मुसलमाँ होते जाते हैं
अलग सब से नज़र नीची ख़िराम आहिस्ता आहिस्ता
वो मुझ को दफ़्न कर के अब पशेमाँ होते जाते हैं
सिवा तिफ़्ली से भी हैं भोली बातें अब जवानी में
क़यामत है कि दिन पर दिन वो नादाँ होते जाते हैं
कहाँ से लाऊँगा ख़ून-ए-जिगर उन के खिलाने को
हज़ारों तरह के ग़म दिल के मेहमाँ होते जाते हैं
ख़राबी ख़ाना-हा-ए-ऐश की है दौर-ए-गर्दूं में
जो बाक़ी रह गए हैं वो भी वीराँ होते जाते हैं
बयाँ मैं क्या करूँ दिल खोल कर शौक़-ए-शहादत को
अभी से आप तो शमशीर-ए-उर्यां होते जाते हैं
ग़ज़ब की याद में अय्यारियाँ वल्लाह तुम को भी
ग़रज़ क़ाएल तुम्हारे हम तो ऐ जाँ होते जाते हैं
उधर हम से भी बातें आप करते हैं लगावट की
उधर ग़ैरों से भी कुछ अहद-ओ-पैमाँ होते जाते हैं
Haseeno Ke Gale Se Lagti Hai Zanjeer Sone Ki | हसीनों के गले से लगती है ज़ंजीर सोने की
हसीनों के गले से लगती है ज़ंजीर सोने की
नज़र आती है क्या चमकी हुई तक़दीर सोने की
न दिल आता है क़ाबू में न नींद आती है आँखों में
शब-ए-फ़ुर्क़त में क्यूँ कर बन पड़े तदबीर सोने की
यहाँ बेदारियों से ख़ून-ए-दिल आँखों में आता है
गुलाबी करती है आँखों को वाँ तासीर सोने की
बहुत बेचैन हूँ नींद आ रही है रात जाती है
ख़ुदा के वास्ते जल्द अब करो तदबीर सोने की
ये ज़र्दा चीज़ है जो हर जगह है बाइ’स-ए-शौकत
सुनी है आलम-ए-बाला में भी ता’मीर सोने की
ज़रूरत क्या है रुकने की मिरे दिल से निकलता रह
हवस मुझ को नहीं ऐ नाला-ए-शब-गीर सोने की
छपर-खट याँ जो सोने की बनाई इस से क्या हासिल
करो ऐ ग़ाफ़िलो कुछ क़ब्र में तदबीर सोने की
Hasti-e-Haq Ke Maani Jo Mera Dil Samjha | हस्ती-ए-हक़ के म’आनी जो मिरा दिल समझा
हस्ती-ए-हक़ के म’आनी जो मिरा दिल समझा
अपनी हस्ती को इक अंदेशा-ए-बातिल समझा
वो शनावर हूँ जो हर मौज को साहिल समझा
वो मुसाफ़िर हूँ जो हर गाम को मंज़िल समझा
काफ़िरी सेहर न थी ‘इश्क़-ए-बुताँ खेल न था
ब-ख़ुदा मैं तो इसी से उसे मुश्किल समझा
उतरा दरिया में प-ए-ग़ुस्ल जो वो ग़ैरत-ए-गुल
शोर-ए-अमवाज को मैं शोर-ए-अनादिल समझा
कुफ्र-ओ-इस्लाम की तफ़रीक़ नहीं फ़ितरत में
ये वो नुक़्ता है जिसे मैं भी ब-मुश्किल समझा
शैख़ ने चश्म-ए-हिक़ारत से जो देखा मुझ को
ब-ख़ुदा मैं उसे अल्लाह से ग़ाफ़िल समझा
न किया यार ने ‘अकबर’ के जुनूँ को तस्लीम
मिल गई आँख तो कुछ सोच के ‘आक़िल समझा
Hasti Ke Shazar Mein Jo Yah Chaho Ki Chamak Jao | हस्ती के शजर में जो यह चाहो कि चमक जाओ
हस्ती के शज़र में जो यह चाहो कि चमक जाओ
कच्चे न रहो बल्कि किसी रंग मे पक जाओ
मैंने कहा कायल मै तसव्वुफ का नहीं हूँ
कहने लगे इस बज़्म मे जाओ तो थिरक जाओ
मैंने कहा कुछ खौफ कलेक्टर का नहीं है
कहने लगे आ जाएँ अभी वह तो दुबक जाओ
मैंने कहा वर्जिश कि कोई हद भी है आखिर
कहने लगे बस इसकी यही हद कि थक जाओ
मैंने कहा अफ्कार से पीछा नहीं छूटता
कहने लगे तुम जानिबे मयखाना लपक जाओ
मैंने कहा अकबर मे कोई रंग नहीं है
कहने लगे शेर उसके जो सुन लो तो फडक जाओ
Hawa-e-Shab Bhi Hai Ambar Afsha Urooz Bhi Hai Meh-e-Mubi Ka | हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का
हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का
निसार होने की दो इजाज़त महल नहीं है नहीं नहीं का
अगर हो ज़ौक़-ए-सुजूद पैदा सितारा हो औज पर जबीं का
निशान-ए-सज्दा ज़मीन पर हो तो फ़ख़्र है वो रुख़-ए-ज़मीं का
सबा भी उस गुल के पास आई तो मेरे दिल को हुआ ये खटका
कोई शगूफ़ा न ये खिलाए पयाम लाई न हो कहीं का
न मेहर ओ मह पर मिरी नज़र है न लाला-ओ-गुल की कुछ ख़बर है
फ़रोग़-ए-दिल के लिए है काफ़ी तसव्वुर उस रू-ए-आतिशीं का
न इल्म-ए-फ़ितरत में तुम हो माहिर न ज़ौक़-ए-ताअत है तुम से ज़ाहिर
ये बे-उसूली बहुत बुरी है तुम्हें न रक्खेगी ये कहीं का
Haya Se Sar Jhuka Lena Adaa Se Muskura Dena | हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना
ये तर्ज़ एहसान करने का तुम्हीं को ज़ेब देता है
मरज़ में मुब्तला कर के मरीज़ों को दवा देना
बलाएँ लेते हैं उन की हम उन पर जान देते हैं
ये सौदा दीद के क़ाबिल है क्या लेना है क्या देना
ख़ुदा की याद में महवियत-ए-दिल बादशाही है
मगर आसाँ नहीं है सारी दुनिया को भुला देना
Hind Mein To Mazhabi Haalat Hai Ab Naagufta Beh | हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह
हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह
मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई
(नागुफ़्ता बेह= जिसका ना कहना ही बेहतर हो; रूबकारी=जान-पहचान)
एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान
ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई
(जाँनिसारी= जान क़ुर्बान करना)
अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र
आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई
(सैलाने-तबीयत= तबीयत की आवारागर्दी)
नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई
लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई
(नज्द= अरब के एक जंगल का नाम जहाँ मजनू मारा-मारा फिरता था।)
Ho Na Rangeen Tabiyat Bhi Kisi Ki Ya Rab | हो न रंगीन तबीयत भी किसी की या रब
हो न रंगीन तबीयत भी किसी की या रब
आदमी को यह मुसीबत में फँसा देती है
निगहे-लुत्फ़ तेरी बादे-बहारी है मगर
गुंचए-ख़ातिरे-आशिक़ को खिला देती है
Hoon Main Parwana Magar Shamma To Ho Raat To Ho | हूँ मैं परवाना मगर शम्मा तो हो रात तो हो
हूँ मैं परवाना मगर शम्मा तो हो रात तो हो
जान देने को हूँ मौजूद कोई बात तो हो
दिल भी हाज़िर सर-ए-तसलीम भी ख़म को मौजूद
कोई मरकज़ हो कोई क़िबला-ए-हाजात तो हो
दिल तो बे-चैन है इज़्हार-ए-इरादत के लिए
किसी जानिब से कुछ इज़्हार-ए-करामात तो हो
दिल-कुशा बादा-ए-साफ़ी का किसे ज़ौक़ नहीं
बातिन-अफ़रोज़ कोई पीर-ए-ख़राबात तो हो
गुफ़्तनी है दिल-ए-पुर-दर्द का क़िस्सा लेकिन
किस से कहिए कोई मुस्तफ़्सिर-ए-हालात तो हो
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल कौन कहे कौन सुने
बज़्म में मौक़ा-ए-इज़्हार-ए-ख़्यालात तो हो
वादे भी याद दिलाते हैं गिले भी हैं बहुत
वो दिखाई भी तो दें उन से मुलाक़ात तो हो
कोई वाइज़ नहीं फ़ितरत से बलाग़त में सिवा
मगर इंसान में कुछ फ़हम-ए-इशारात तो हो
Hum Kab Shareek Hote Hai Duniya Ki Jung Mein | हम कब शरीक होते हैं दुनिया की ज़ंग में
हम कब शरीक होते हैं दुनिया की ज़ंग में
वह अपने रंग में हैं, हम अपनी तरंग में
मफ़्तूह हो के भूल गए शेख़ अपनी बहस
मन्तिक़ शहीद हो गई मैदाने ज़ंग में
(मफ़्तूह = खुल कर बोलना; मन्तिक़ = तर्क शास्त्र-एक विषय)
Hungama Hai Kyun Barpa Thodi Si Jo Pee Li Hai | हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है
ना-तजरबा-कारी से वाइ’ज़ की ये हैं बातें
इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है
उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़्सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है
ऐ शौक़ वही मय पी ऐ होश ज़रा सो जा
मेहमान-ए-नज़र इस दम इक बर्क़-ए-तजल्ली है
वाँ दिल में कि सदमे दो याँ जी में कि सब सह लो
उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है
हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है
सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है
ता’लीम का शोर ऐसा तहज़ीब का ग़ुल इतना
बरकत जो नहीं होती निय्यत की ख़राबी है
सच कहते हैं शैख़ ‘अकबर’ है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है
Ik Bosa Dijiye Mera Imaan Lijiye | इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए
इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए
गो बुत हैं आप बहर-ए-ख़ुदा मान लीजिए
दिल ले के कहते हैं तिरी ख़ातिर से ले लिया
उल्टा मुझी पे रखते हैं एहसान लीजिए
ग़ैरों को अपने हाथ से हँस कर खिला दिया
मुझ से कबीदा हो के कहा पान लीजिए
मरना क़ुबूल है मगर उल्फ़त नहीं क़ुबूल
दिल तो न दूँगा आप को मैं जान लीजिए
हाज़िर हुआ करूँगा मैं अक्सर हुज़ूर में
आज अच्छी तरह से मुझे पहचान लीजिए
Inayat Mujhpe Farmate Hai Shaikh-o-Barhaman Dono | इनायत मुझ पे फ़रमाते हैं शैख़-ओ-बरहमन दोनों
‘इनायत मुझ पे फ़रमाते हैं शैख़-ओ-बरहमन दोनों
मुआफ़िक़ अपने अपने अपने पाते हैं मेरा चलन दोनों
तराने मेरे हम-आहंग दैर-ओ-का’बा में यकसाँ
ज़बाँ पर मेरी मौज़ूँ होती है हम्द और भजन दोनों
मुझे उल्फ़त है सुन्नी से भी शीआ’ से भी यारी है
अखाड़े में दिखा सकते हैं दिलकश बाँकपन दोनों
मुझे होटल भी ख़ुश आता है और ठाकुर दुवारा भी
तबर्रुक है मिरे नज़दीक प्रशाद और मटन दोनों
Inn Dino Yaar Ke Kuch Jashn-Nashi Aur Bhi Hai | इन दिनों यार के कुछ ज़ह्न-नशीं और भी है
इन दिनों यार के कुछ ज़ह्न-नशीं और भी है
जानता है कि नशिस्त उन की कहीं और भी है
एक दिल था सो दिया और कहाँ से लाऊँ
झूठ कहिए तो मैं कह दूँ कि नहीं और भी है
नाज़-ए-बे-बजा न किया कीजिए हम से इतना
इसी अंदाज़ का इक यार-ए-हसीं और भी है
कहियो उस ग़ैरत-ए-लैला से ये पैग़ाम सबा
पहलू-ए-क़ैस में इक दश्त-नशीं और भी है
मेरे बुलवाने का एहसान जताओ न बहुत
मेहरबाँ एक बुत-ए-पर्दा-नशीं और भी है
इन रदीफ़ों में ग़ज़ल क्यों न हो दुश्वार ‘अकबर’
ना-तराशीदा कोई ऐसी ज़मीं और भी है
Ishq-e-But Mein Kufra Ka Mujhko Adab Karna Pada | इश्क़-ए-बुत में कुफ़्र का मुझ को अदब करना पड़ा
इश्क़-ए-बुत में कुफ़्र का मुझ को अदब करना पड़ा
जो बरहमन ने कहा आख़िर वो सब करना पड़ा
सब्र करना फ़ुर्क़त-ए-महबूब में समझे थे सहल
खुल गया अपनी समझ का हाल जब करना पड़ा
तजरबे ने हुब्ब-ए-दुनिया से सिखाया एहतिराज़
पहले कहते थे फ़क़त मुँह से और अब करना पड़ा
शैख़ की मज्लिस में भी मुफ़्लिस की कुछ पुर्सिश नहीं
दीन की ख़ातिर से दुनिया को तलब करना पड़ा
क्या कहूँ बे-ख़ुद हुआ मैं किस निगाह-ए-मस्त से
अक़्ल को भी मेरी हस्ती का अदब करना पड़ा
इक़तिज़ा फ़ितरत का रुकता है कहीं ऐ हम-नशीं
शैख़-साहिब को भी आख़िर कार-ए-शब करना पड़ा
आलम-ए-हस्ती को था मद्द-ए-नज़र कत्मान-ए-राज़
एक शय को दूसरी शय का सबब करना पड़ा
शेर ग़ैरों के उसे मुतलक़ नहीं आए पसंद
हज़रत-ए-‘अकबर’ को बिल-आख़िर तलब करना पड़ा
Ishq-o-Majhab Mein Do Rangi Ho Gayi | इश्क़-ओ-मज़हब में दो-रंगी हो गई
‘इश्क़-ओ-मज़हब में दो-रंगी हो गई
दीन-ओ-दिल में ख़ाना-जंगी हो गई
दुख़्त-ए-रज़ शीशे से निकली बे-हिजाब
सामने रिंदों के नंगी हो गई
‘इल्म-ए-यूरोप का हुआ मैदाँ वसीअ’
रिज़्क़ में हिन्दी के तंगी हो गई
Iss Mein Aks Aap Ka Utarege | इस में ‘अक्स आप का उतारेंगे
इस में ‘अक्स आप का उतारेंगे
दिल को अपने यूँ हीं सँवारेंगे
हम से करती है ये बहुत ग़म्ज़े
हम भी दुनिया पे लात मारेंगे
रिज़्क-ए-मक़्सूम ही मिलेगा उसे
कोई दुनिया में दौड़े या रेंगे
‘इश्क़ कहता है लुत्फ़ होंगे बड़े
हिज्र कहता है जान मारेंगे
दिल की अफ़्सुर्दगी न जाएगी
हाँ वो चाहेंगे तो उभारेंगे
दिल न दूँगा मैं आप को हरगिज़
मुफ़्त में आप जान मारेंगे
पंद ‘अकबर’ को देंगे क्या नासेह
गुल को क्या बाग़बाँ सँवारेंगे
Jaan Hi Lene Ki Himkat Mein Tarakki Dekhi. | जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी
जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ
(हिकमत = विधि)
कोई हसरत मिरे दिल में कभी आई ही नहीं
था ही ऐसा कि ये मक़्बूल-ए-तमन्ना न हुआ
उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ
ज़ब्त से काम लिया दिल ने तो क्या फ़ख़्र करूँ
इसमें क्या इश्क की इज़्ज़त थी कि रुसवा न हुआ
मुझको हैरत है यह किस पेच में आया ज़ाहिद
दामे-हस्ती में फँसा, जुल्फ़ का सौदा न हुआ
दिल-फ़रेबी मिरी दुनिया ने तो बेहद चाही
मेरी ही हिम्मत-ओ-ग़ैरत का तक़ाज़ा न हुआ
Jab Yaas Huyi To Aahon Ne Seene Se Nikalna Chhod Diya | जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया
जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया
अब ख़ुश्क-मिज़ाज आँखें भी हुईं दिल ने भी मचलना छोड़ दिया
नावक-फ़गनी से ज़ालिम की जंगल में है इक सन्नाटा सा
मुर्ग़ान-ए-ख़ुश-अलहाँ हो गए चुप आहू ने उछलना छोड़ दिया
क्यूँ किब्र-ओ-ग़ुरूर इस दौर पे है क्यूँ दोस्त फ़लक को समझा है
गर्दिश से ये अपनी बाज़ आया या रंग बदलना छोड़ दिया
बदली वो हवा गुज़रा वो समाँ वो राह नहीं वो लोग नहीं
तफ़रीह कहाँ और सैर कुजा घर से भी निकलना छोड़ दिया
वो सोज़-ओ-गुदाज़ उस महफ़िल में बाक़ी न रहा अंधेर हुआ
परवानों ने जलना छोड़ दिया शम्ओं ने पिघलना छोड़ दिया
हर गाम पे चंद आँखें निगराँ हर मोड़ पे इक लेसंस-तलब
उस पार्क में आख़िर ऐ ‘अकबर’ मैं ने तो टहलना छोड़ दिया
क्या दीन को क़ुव्वत दें ये जवाँ जब हौसला-अफ़्ज़ा कोई नहीं
क्या होश सँभालें ये लड़के ख़ुद उस ने सँभलना छोड़ दिया
इक़बाल मुसाइद जब न रहा रक्खे ये क़दम जिस मंज़िल में
अश्जार से साया दूर हुआ चश्मों ने उबलना छोड़ दिया
अल्लाह की राह अब तक है खुली आसार-ओ-निशाँ सब क़ाएम हैं
अल्लाह के बंदों ने लेकिन उस राह में चलना छोड़ दिया
जब सर में हवा-ए-ताअत थी सरसब्ज़ शजर उम्मीद का था
जब सर-सर-ए-इस्याँ चलने लगी इस पेड़ ने फलना छोड़ दिया
उस हूर-लक़ा को घर लाए हो तुम को मुबारक ऐ ‘अकबर’
लेकिन ये क़यामत की तुम ने घर से जो निकलना छोड़ दिया
Jahan Mein Haal Mera Iss Kadar Jaboon Hua | जहाँ में हाल मेरा इस क़दर ज़बून हुआ
जहाँ में हाल मेरा इस क़दर ज़बून हुआ
कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ
ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं
मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ
वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर
उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ
उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी
ज़रिया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ
निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर
हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ
Jalaye Jab Shola-e-Tahayyur TO Jehan Dhoondhe Panaah Kis Ki | जलाए जब शो’ला-ए-तहय्युर तो ज़ेहन ढूँढे पनाह किस की
जलाए जब शो’ला-ए-तहय्युर तो ज़ेहन ढूँढे पनाह किस की
ये किस के मा’नी हुए हैं साबित ये सूरतें हैं गवाह किस की
ये चश्म-ए-लैला कहाँ से आई ये क़ल्ब-ए-महज़ूँ कहाँ से उभरा
जो बा-ख़बर हैं उन्हें ख़बर है निगाह किस की है आह किस की
जमाल-ए-फ़ितरत के लाख परतव क़ुबूल-ए-परतव की लाख शक्लें
तरीक़-ए-‘इरफ़ाँ मैं क्या बताऊँ ये राह किस की वो राह किस की
ये किस के ‘इश्वों का सामना है कि लज़्ज़त-ए-होश हो गई गुम
ख़ुदी से कुछ हो चला हूँ ग़ाफ़िल पड़ी है मुझ पर निगाह किस की
Jalwa Ayaan Hai Kudrat-e-Parvardigaar Ka | जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
क्या दिल-कुशा ये सीन है फ़स्ल-ए-बहार का
नाज़ाँ हैं जोश-ए-हुस्न पे गुल-हा-ए-दिल-फ़रेब
जोबन दिखा रहा है ये आलम उभार का
हैं दीदनी बनफ़शा ओ सुम्बुल के पेच ओ ताब
नक़्शा खींचा हुआ है ख़त-ओ-ज़ुल्फ़-ए-यार का
सब्ज़ा है या ये आब-ए-ज़मुर्रद की मौज है
शबनम है बहर या गुहर-ए-आबदार का
मुर्ग़ान-ए-बाग़ ज़मज़मा-संजी में महव हैं
और नाच हो रहा है नसीम-ए-बहार का
पर्वाज़ में हैं तीतरियाँ शाद ओ चुस्त ओ मस्त
ज़ेब-ए-बदन किए हुए ख़िलअत बहार का
मौज-ए-हवा ओ ज़मज़मा-ए-अंदलीब-ए-मस्त
इक साज़-ए-दिल-नवाज़ है मिज़राब-ओ-तार का
अब्र-ए-तुनक ने रौनक़-ए-मौसम बढ़ाई है
ग़ाज़ा बना है रू-ए-उरूस-ए-बहार का
अफ़्सोस इस समाँ में भी ‘अकबर’ उदास है
सूहान-ए-रूह हिज्र है इक गुल-ए-एज़ार का
Jalwa-e-Saqi-o-Maiy Jaan Liye Lete Hai | जल्वा-ए-साक़ी-ओ-मय जान लिए लेते हैं
जल्वा-ए-साक़ी-ओ-मय जान लिए लेते हैं
शैख़ जी ज़ब्त करें हम तो पिए लेते हैं
दिल में याद उन की जो आते हुए शरमाती है
दर्द उठता है कि हम आड़ किए लेते हैं
दौर-ए-तहज़ीब में परियों का हुआ दूर नक़ाब
हम भी अब चाक-ए-गरेबाँ को सिए लेते हैं
ख़ुदकुशी मन’ ख़ुशी गुम ये क़यामत है मगर
जीना ही कितना है अब ख़ैर जिए लेते हैं
मुद्दत-ए-वस्ल को परवाने से पूछें उश्शाक़
वो मज़ा क्या है जो बे-जान-दिए लेते हैं
Jazba-e-Dil Ne Mere Taseer Dikhlayi To Hai | जज़्बा-ए-दिल ने मिरे तासीर दिखलाई तो है
जज़्बा-ए-दिल ने मिरे तासीर दिखलाई तो है
घुंघरूओं की जानिब-ए-दर कुछ सदा आई तो है
इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है
आप के सर की क़सम मेरे सिवा कोई नहीं
बे-तकल्लुफ़ आइए कमरे में तन्हाई तो है
जब कहा मैं ने तड़पता है बहुत अब दिल मिरा
हंस के फ़रमाया तड़पता होगा सौदाई तो है
देखिए होती है कब राही सू-ए-मुल्क-ए-अदम
ख़ाना-ए-तन से हमारी रूह घबराई तो है
दिल धड़कता है मिरा लूँ बोसा-ए-रुख़ या न लूँ
नींद में उस ने दुलाई मुँह से सरकाई तो है
देखिए लब तक नहीं आती गुल-ए-आरिज़ की याद
सैर-ए-गुलशन से तबीअ’त हम ने बहलाई तो है
मैं बला में क्यूँ फँसूँ दीवाना बन कर उस के साथ
दिल को वहशत हो तो हो कम्बख़्त सौदाई तो है
ख़ाक में दिल को मिलाया जल्वा-ए-रफ़्तार से
क्यूँ न हो ऐ नौजवाँ इक शान-ए-रानाई तो है
यूँ मुरव्वत से तुम्हारे सामने चुप हो रहें
कल के जलसों की मगर हम ने ख़बर पाई तो है
बादा-ए-गुल-रंग का साग़र इनायत कर मुझ
साक़िया ताख़ीर क्या है अब घटा छाई तो है
जिस की उल्फ़त पर बड़ा दावा था कल ‘अकबर’ तुम्हें
आज हम जा कर उसे देख आए हरजाई तो है
Jeene Mein Yeh Gaflat Fitrat Ne Kyon Tab-e-Bashar Mein Daakhil Ki | जीने में ये ग़फ़्लत फ़ितरत ने क्यों तब’-ए-बशर में दाख़िल की
जीने में ये ग़फ़्लत फ़ितरत ने क्यों तब’-ए-बशर में दाख़िल की
मरने की मुसीबत जानों पर क्यों क़ुदरत-ए-हक़ ने नाज़िल की
क्यों तूल-ए-अमल में उलझाया इंसान ने अपने दामन को
क्यों ज़ुल्फ़-ए-हवस के फंदे में फॅंसती है तबी’अत ग़ाफ़िल की
íक्यों हिज्र के सदमे होते हैं क्यों मुर्दों पे ज़िंदे रोते हैं
क्यों जंग में जानें जाती हैं क्यों बढ़ती है हिम्मत क़ातिल की
मंतिक़ का तो दा’वा एक तरफ़ ताक़त की ये शोख़ी एक तरफ़
क्या फ़र्क़ है ख़ैर-ओ-शर में यहाँ क्या जाँच है हक़्क़-ओ-बातिल की
Jis Baat Ko Mufeed Samajhte Ho | जिस बात को मुफ़ीद समझते हो
जिस बात को मुफ़ीद समझते हो ख़ुद करो
औरों पे उसका बार न इस्रार से धरो
हालात मुख़्तलिफ़ हैं, ज़रा सोच लो यह बात
दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो
Jo Hasrate Dil Hai Vah Nikalne Ki Nahi | जो हस्रते दिल है, वह निकलने की नहीं
जो हस्रते दिल है, वह निकलने की नहीं
जो बात है काम की, वह चलने की नहीं
यह भी है बहुत कि दिल सँभाले रहिए
क़ौमी हालत यहाँ सँभलने की नहीं
Jo Mil Gaya Woh Khana Daata Ka Naam Japna | जो मिल गया वो खाना दाता का नाम जपना
जो मिल गया वो खाना दाता का नाम जपना
इस के सिवा बताऊँ क्या तुम से काम अपना
रोना तो है इसी का कोई नहीं किसी का
दुनिया है और मतलब मतलब है और अपना
ऐ बरहमन हमारा तेरा है एक ‘आलम
हम ख़्वाब देखते हैं तू देखता है सपना
ये धूम-धाम कैसी शौक़-ए-नुमूद कैसा
बिजली को दिल की सूरत आता नहीं तड़पना
बे-इश्क़ के जवानी कटनी नहीं मुनासिब
क्यूँकर कहूँ कि अच्छा है जेठ का न तपना
Jo Naseh Mere Aage Bakne Laga | जो नासेह मिरे आगे बकने लगा
जो नासेह मिरे आगे बकने लगा
मैं क्या करता मुँह उस का तकने लगा
मोहब्बत का तुम से असर क्या कहूँ
नज़र मिल गई दिल धड़कने लगा
बदन छू गया आग सी लग उठी
नज़र मिल गई दिल धड़कने लगा
रक़ीबों ने पहलू दबाया तो चुप
मैं बैठा तो ज़ालिम सरकने लगा
जो महफ़िल में ‘अकबर’ ने खोली ज़बाँ
गुलिस्ताँ में बुलबुल चहकने लगा
Jo Yun Hi Lehza Lehza Daag-e-Hasrat Ki Tarakki Hai | जो यूं ही लहज़ा लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है
जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है
अजब क्या, रफ्ता-रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ
मदद-ऐ-रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में
मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ
ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं
अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ
अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना
मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ
Jo Tumhare Lab-e-Jaan Baksh Ka Shaida Hoga | जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
उठ भी जाएगा जहाँ से तो मसीहा होगा
वो तो मूसा हुआ जो तालिब-ए-दीदार हुआ
फिर वो क्या होगा कि जिस ने तुम्हें देखा होगा
क़ैस का ज़िक्र मेरे शान-ए-जुनूँ के आगे
अगले वक़्तों का कोई बादया-पैमा होगा
आरज़ू है मुझे इक शख़्स से मिलने की बहुत
नाम क्या लूँ कोई अल्लाह का बंदा होगा
लाल-ए-लब का तेरे बोसा तो मैं लेता हूँ मगर
डर ये है ख़ून-ए-जिगर बाद में पीना होगा
Jubaan Hai Na-Tawani Se Agar Band | ज़बाँ है ना-तवानी से अगर बंद
ज़बाँ है ना-तवानी से अगर बंद
मिरे दिल पर नहीं मा’नी के दर बंद
हमारी बेकसी कब तक छुपेगी
ख़ुदा पर तो नहीं राह-ए-ख़बर बंद
ब-याद-ए-रंज-ए-यारान-ए-नज़र-बंद
किया हम ने भी अब मिलने का दर बंद
दिलों में दर्द ही की कुछ कमी है
नहीं है आह पर राह-ए-असर बंद
बुत-ए-मशरिक़ नहीं मुहताज-ए-सामाँ
कमर ही जब नहीं कैसा कमर-बंद
कहूँगा मर्सिया इस ग़म में ऐसा
खुले मा’नी दिखाए जिस का हर बंद
ख़याल-ए-चश्म-ए-फ़त्ताँ में हुआ महव
मिरा दिल अब है सीने में नज़र-बंद
Jubaan Se Betaalluk Dil Ko Bazm-e-Yaar Mein Dekha | ज़बाँ से बे-त’अल्लुक़ दिल को बज़्म-ए-यार में देखा
ज़बाँ से बे-त’अल्लुक़ दिल को बज़्म-ए-यार में देखा
तअ’ज्जुब-ख़ेज़ ज़ब्त इस महरम-ए-असरार में देखा
इधर तस्बीह की गर्दिश में पाया शैख़ साहब को
बरहमन को उधर उलझा हुआ ज़ुन्नार में देखा
वो बाँका क़ातिल आईने की कुछ पर्वा नहीं करता
कभी देखा भी अपना ‘अक्स अगर तलवार में देखा
ज़माने ने मिरे आगे भी दुनिया पेश कर दी थी
मगर मैं ने तो अपना फ़ाएदा इंकार में देखा
Kaam Koi Mujhe Baaki Nahi Marne Ke Siva | काम कोई मुझे बाकी नहीं मरने के सिवा
काम कोई मुझे बाकी नहीं मरने के सिवा
कुछ भी करना नहीं अब कुछ भी न करने के सिवा
हसरतों का भी मेरी तुम कभी करते हो ख़याल
तुमको कुछ और भी आता है सँवरने के सिवा
Kahan Le Jau Dil Dono Jahan Mein Iski Mushkil Hai | कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है
कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है
यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है
इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं,
हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है
ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा,
मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है
जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर
अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है
हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है
Kahan Sabaat Ka Uss Ko Khayal Hota Hai | कहाँ सबात का उस को ख़याल होता है
कहाँ सबात का उस को ख़याल होता है
ज़माना माज़ी ही होने को हाल होता है
फ़रोग़-ए-बद्र न बाक़ी रहा न बुत का शबाब
ज़वाल ही के लिए हर कमाल होता है
मैं चाहता हूँ कि बस एक ही ख़याल रहे
मगर ख़याल से पैदा ख़याल होता है
बहुत पसंद है मुझ को ख़मोशी-ओ-‘उज़लत
दिल अपना होता है अपना ख़याल होता है
वो तोड़ते हैं तो कलियाँ शगुफ़्ता होती हैं
वो रौंदते हैं तो सब्ज़ा निहाल होता है
सोसाइटी से अलग हो तो ज़िंदगी दुश्वार
अगर मिलो तो नतीजा मलाल होता है
पसंद-ए-चश्म का हरगिज़ कुछ ए’तिबार नहीं
बस इक करिश्मा-ए-वहम-ओ-ख़याल होता है
Kahan Woh Ab Lutf-e-Bahami Hai Mohabbaton Mein Bahut Kami Hai | कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है
कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है
चली है कैसी हवा इलाही कि हर तबीअत में बरहमी है
मिरी वफ़ा में है क्या तज़लज़ुल मिरी इताअ’त में क्या कमी है
ये क्यूँ निगाहें फिरी हैं मुझ से मिज़ाज में क्यूँ ये बरहमी है
वही है फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से अब तक तरक़्की-ए-कार-ए-हुस्न ओ उल्फ़त
न वो हैं मश्क़-ए-सितम में क़ासिर न ख़ून-ए-दिल की यहाँ कमी है
अजीब जल्वे हैं होश-दुश्मन कि वहम के भी क़दम रुके हैं
अजीब मंज़र हैं हैरत-अफ़्ज़ा नज़र जहाँ थी वहीं थमी है
न कोई तकरीम-ए-बाहमी है न प्यार बाक़ी है अब दिलों में
ये सिर्फ़ तहरीर में डियर सर है या जनाब-ए-मुकर्रमी है
कहाँ के मुस्लिम कहाँ के हिन्दू भुलाई हैं सब ने अगली रस्में
अक़ीदे सब के हैं तीन-तेरह न ग्यारहवीं है न अष्टमी है
नज़र मिरी और ही तरफ़ है हज़ार रंग-ए-ज़माना बदले
हज़ार बातें बनाए नासेह जमी है दिल में जो कुछ जमी है
अगरचे मैं रिंद-ए-मोहतरम हूँ मगर इसे शैख़ से न पूछो
कि उन के आगे तो इस ज़माने में सारी दुनिया जहन्नमी है
Karega Kadra Jo Duniya Mein Apne Aane Ki | करेगा क़द्र जो दुनिया में अपने आने की
करेगा क़द्र जो दुनिया में अपने आने की
उसी की जान को लज़्ज़त मिलेगी जाने की
न पूछो बैठा हूँ क्यों हाथ पर मैं हाथ धरे
उठूँगा नब्ज़ ज़रा देख लूँ ज़माने की
मज़ा भी आता है दुनिया से दिल लगाने में
सज़ा भी मिलती है दुनिया से दिल लगाने की
गुहर जो दिल में निहाँ हैं ख़ुदा ही दे तो मिलें
उसी के पास है मिफ़्ताह इस ख़ज़ाने की
Karu Kya Gham Ki Duniya Se Mila Kya | करूँ क्या ग़म कि दुनिया से मिला क्या
करूँ क्या ग़म कि दुनिया से मिला क्या
किसी को क्या मिला दुनिया में था क्या
ये दोनों मसअले हैं सख़्त मुश्किल
न पूछो तुम कि मैं क्या और ख़ुदा क्या
रहा मरने की तय्यारी में मसरूफ़
मिरा काम और इस दुनिया में था क्या
वही सदमा रहा फ़ुर्क़त का दिल पर
बहुत रोए मगर इस से हुआ क्या
तुम्हारे हुक्म के ताबे’ हैं हम सब
तुम्हीं समझो बुरा क्या और भला क्या
इलाही ‘अकबर’-ए-बेकस की हो ख़ैर
ये चर्चे हो रहे हैं जा-ब-जा क्या
Kat Gayi Jhagde Mein Saari Raat Vasl-e-Yaar Ki | कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की
ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की
हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यारग़ैर की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की
ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीनतसल्ली को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की
बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ोंदोस्तों ने गली में यार की
लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की
थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की
हाल-ए-‘अकबर’ देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की
Khair Unko Kuch Na Aaye Faans Lene Ke Siva | ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा
थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा
Khatam Kiya Saba Ne Raks Gul Pe Nisaar Ho Chuki | ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी
ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी
जोश-ए-नशात हो चुका सौत-ए-हज़ार हो चुकी
रंग-ए-बनफ़शा मिट गया सुंबुल-ए-तर नहीं रहा
सेहन-ए-चमन में ज़ीनत-ए-नक़्श-ओ-निगार हो चुकी
मस्ती-ए-लाला अब कहाँ उस का प्याला अब कहाँ
दौर-ए-तरब गुज़र गया आमद-ए-यार हो चुकी
रुत वो जो थी बदल गई आई बस और निकल गई
थी जो हवा में निकहत-ए-मुश्क-ए-ततार हो चुकी
अब तक उसी रविश पे है ‘अकबर’-ए-मस्त-ओ-बे-ख़बर
कह दे कोई अज़ीज़-ए-मन फ़स्ल-ए-बहार हो चुकी
Khayaal Dauda Nigaah Uthi Kalam Ne Likha Jabaan Boli | ख़याल दौड़ा निगाह उट्ठी क़लम ने लिक्खा ज़बान बोली
ख़याल दौड़ा निगाह उट्ठी क़लम ने लिक्खा ज़बान बोली
मगर वही दिल की उलझनें हैं किसी ने इस की गिरह न खोली
लताफ़तों के नज़ाकतों के ‘अजीब मज़मून हैं चमन में
सबा ने झटका है अपना दामन मसक गई है कली की चोली
ख़याल शा’इर का है निराला ये कह गया एक कहने वाला
शबाब के साथ यूँ है रिंदी कि जैसे फागुन के साथ होली
कहो ये रिंदान-ए-एशिया से कि बज़्म-ए-इशरत के ठाठ बदले
उड़न-खटोला है अब मिसों का गई परीजान की वो डोली
Khoob Farmaya Ki Apna Pyaar Rehne Dijiye | ख़ूब फ़रमाया कि अपना प्यार रहने दीजिए
ख़ूब फ़रमाया कि अपना प्यार रहने दीजिए
आप ही ये ग़म्ज़ा-ओ-इंकार रहने दीजिए
चाँदनी बरसात की निखरी है चलती है ‘नसीम’
आज तो लिल्लाह ये इंकार रहने दीजिए
चश्म-ए-बद-दूर आप की नज़रें हैं ख़ुद मौज-ए-शराब
बस मुझे बे-मय पिए सरशार रहने दीजिए
कीजिए अपनी निगाह-ए-फ़ित्ना-अफ़ज़ा का ‘इलाज
नर्गिस-ए-बीमार को बीमार रहने दीजिए
छोड़ने का मैं नहीं अब आप को ऐ जान-ए-जाँ
है अगर मुझ पर ख़ुदा की मार रहने दीजिए
हम-किनार उस बहर-ए-ख़ूबी से न होंगे ‘अकबर’ आप
ऐसे मंसूबे समुंदर-पार रहने दीजिए
Khoob Ik Naseh-e-Mushfik Ne Yeh Irshaad Kiya | ख़ूब इक नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ने ये इरशाद किया
ख़ूब इक नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ने ये इरशाद किया
बज़्म में उस ने त’अल्ली जो कल अकबर की सुनी
न तिरी फ़ौज न शागिर्द न पैरौ न मुरीद
न तू अर्जुन है न सुक़रात ऋषी है न मुनी
किस नगीं पर हैं तिरे नक़्श के आसार ‘अयाँ
नोट-बुक तेरी शिकस्ता तिरी पेंसिल है घुनी
फ़िक्र से ज़िक्र से ‘इबरत से तुझे काम नहीं
वाह-वा के लिए लफ़्ज़ों की दुकाँ तू ने चुनी
तब’ में तेरी वही ख़ामी-ए-हिर्स-ए-दुनिया
आतिश-ए-ख़ौफ़-ए-ख़ुदा से न जली है न भुनी
ख़ुद-परस्ती है बहुत ख़ल्क़ की ख़िदमत कम है
दिल-दही कम है तो है दिल-शिकनी चार गुनी
Khuda Aligrah Ke Madarse Ko Tamaam Amraaz Shifa De | ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
भरे हुए हैं रईस-ज़ादे अमीर-ज़ादे शरीफ़-ज़ादे
लतीफ़ ओ ख़ुश-वज़्अ चुस्त-ओ-चालाक ओ साफ़-ओ-पाकीज़ा शाद-ओ-ख़ुर्रम
तबीअतों में है उन की जौदत दिलों में उन के हैं नेक इरादे
कमाल मेहनत से पढ़ रहे हैं कमाल ग़ैरत से बढ़ रहे हैं
सवार मशरिक़ की राह में हैं तो मग़रिबी राह में पियादे
हर इक है उन में का बे-शक ऐसा कि आप उसे जानते हैं जैसा
दिखाए महफ़िल में क़द्द-ए-रअना जो आप आएँ तो सर झुका दे
फ़क़ीर माँगें तो साफ़ कह दें कि तू है मज़बूत जा कमा खा
क़ुबूल फ़रमाएँ आप दावत तो अपना सरमाया कुल खिला दे
बुतों से उन को नहीं लगावट मिसों की लेते नहीं वो आहट
तमाम क़ुव्वत है सर्फ़-ए-ख़्वाँदन नज़र के भोले हैं दिल की सादे
नज़र भी आए जो ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ तो समझें ये कोई पालिसी है
इलेक्ट्रिक लाईट उस को समझें जो बर्क़-वश कोई कोई दे
निकलते हैं कर के ग़ोल-बंदी ब-नाम-ए-तहज़ीब ओ दर्द-मंदी
ये कह के लेते हैं सब से चंदे हमें जो तुम दो तुम्हें ख़ुदा दे
उन्हें इसी बात पर यक़ीन है कि बस यही असल कार-ए-दीं है
इसी सी होगा फ़रोग़-ए-क़ौमी इसी से चमकेंगे बाप दादे
मकान-ए-कॉलेज के सब मकीं हैं अभी उन्हें तजरबे नहीं हैं
ख़बर नहीं है कि आगे चल कर है कैसी मंज़िल हैं कैसी जादे
दिलों में उन के है नूर-ए-ईमाँ क़वी नहीं है मगर निगहबाँ
हवा-ए-मंतिक़ अदा-ए-तिफ़ली ये शम्अ ऐसा न हो बुझा दे
फ़रेब दे कर निकाले मतलब सिखाए तहक़ीर-ए-दीन-ओ-मज़हब
मिटा दे आख़िर को वज़-ए-मिल्लत नुमूद-ए-ज़ाती को गर बढ़ा दे
यही बस ‘अकबर’ की इल्तिजा है जनाब-ए-बारी में ये दुआ है
उलूम-ओ-हिकमत का दर्स उन को प्रोफ़ेसर दें समझ ख़ुदा दे
Khuda Ke Baab Mein Kya Aap Mujhse Behas Karte Hai | ख़ुदा के बाब में क्या आप मुझसे बहस करते हैं
ख़ुदा के बाब में क्या आप मुझसे बहस करते हैं
ख़ुदा वह है कि जिसके हुक्म से साहब भी मरते हैं
मगर इस शेर को मैं ग़ालिबन क़ायम न रक्खूँगा
मचेगा गुल, ख़ुदा को आप क्यों बदनाम करते हैं
Khuda Ki Hasti Ko Yaad Rakhna Aur Apni Hasti Ko Bhool Jaana | ख़ुदा की हस्ती को याद रखना और अपनी हस्ती को भूल जाना
ख़ुदा की हस्ती को याद रखना और अपनी हस्ती को भूल जाना
नज़र उसी पर है और बातों को मैं ने बिल्कुल फ़ुज़ूल जाना
जुनूँ हम ऐसों को क्या त’अज्जुब बहार का है समाँ ही ऐसा
सबा का अठखेलियों से चलना ख़ुशी से कलियों का फूल जाना
जहान-ए-फ़ानी की अंजुमन में यही तसलसुल हमेशा देखा
उमीद के साथ शाद आना उठा के सदमे मलूल जाना
Khudi Gum Kar Chuka Hoon Ab Khushi-o-Gham Se Kya Matlab | ख़ुदी गुम कर चुका हूँ अब ख़ुशी-ओ-ग़म से क्या मतलब
ख़ुदी गुम कर चुका हूँ अब ख़ुशी-ओ-ग़म से क्या मतलब
त’अल्लुक़ होश से छोड़ा तो अब ‘आलम से क्या मतलब
क़नाअ’त जिस को है वो रिज़्क़-ए-मा-यहताज पर ख़ुश है
समझ जिस को है उस को बहस-ए-बेश-ओ-कम से क्या मतलब
जिसे मरना न हो वो हश्र तक की फ़िक्र में उलझे
बदलती है अगर दुनिया तो बदले हम से क्या मतलब
मिरी फ़ितरत में मस्ती है हक़ीक़त-बीं है दिल मेरा
मुझे साक़ी की क्या हाजत है जाम-ओ-जम से क्या मतलब
ख़ुद अपनी रीश में उलझे हुए हैं हज़रत-ए-वा’इज़
भला उन को बुतों के गेसू-ए-पुर-ख़म से क्या मतलब
नई ता’लीम को क्या वास्ता है आदमिय्यत से
जनाब-ए-डार्विन को हज़रत-ए-आदम से क्या मतलब
सदा-ए-सरमदी से मस्त रहता हूँ सदा ‘अकबर’
मुझे नग़्मों की क्या पर्वा मुझे सरगम से क्या मतलब
Khushi Hai Sab Ko Ki Operation Mein Khoob Nashtar Chal Raha Hai | ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है
ख़ुशी है सब को कि ऑपरेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है
किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है
(नश्तर = चाकू, काँटा)
फ़ना इसी रंग पर है क़ायम फ़लक वही चाल चल रहा है
शिकस्ता-ओ-मुन्तशिर है वो कल जो आज साँचे में ढल रहा है
(फ़ना = लुप्त हो जाना; शिकस्ता-ओ-मुन्तशिर = टूटा हुआ और बिखरा हुआ)
ये देखते हो जो कासा-ए-सर ग़ुरूर-ए-ग़फ़लत से कल था ममलू
यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है
(कासा-ए-सर = सर का प्याला; ग़ुरूर-ए-ग़फ़लत = अज्ञान का घमण्ड; ममलू =भरा हुआ;
समझ हो जिस की बलीग़ समझे नज़र हो जिस की वसीअ’ देखे
अभी यहाँ ख़ाक भी उड़ेगी जहाँ ये क़ुल्ज़ुम उबल रहा है
(बलीग़= अर्थपूर्ण; वसीअ= फैला हुआ; क़ुल्ज़ुम=समुद्र)
कहाँ का शर्क़ी कहाँ का ग़र्बी तमाम दुख सुख है ये मसावी
यहाँ भी एक बामुराद ख़ुश है वहाँ भी इक ग़म से जल रहा है
(शर्क़ी =पूर्वी; ग़र्बी = पश्चिमी; मसावी = बराबर क़ौम का उत्थान और पतन)
उरूज-ए-क़ौमी ज़वाल-ए-क़ौमी ख़ुदा की क़ुदरत के हैं करिश्मे
हमेशा रद्द-ओ-बदल के अंदर ये अम्र पोलिटिकल रहा है
मज़ा है स्पीच का डिनर में ख़बर ये छपती है पाइनियर में
फ़लक की गर्दिश के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है
(गर्दिश = आसमान का चक्कर या फेरा)
Khushi Kya Ho Jo Meri Baat Woh But Maan Jata Hai | ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
मज़ा तो बेहद आता है मगर ईमान जाता है
बनूँ कौंसिल में स्पीकर तो रुख़्सत क़िरअत-ए-मिस्री
करूँ क्या मेम्बरी जाती है या क़ुरआन जाता है
ज़वाल-ए-जाह ओ दौलत में बस इतनी बात अच्छी है
कि दुनिया में बख़ूबी आदमी पहचान जाता है
नई तहज़ीब में दिक़्क़त ज़ियादा तो नहीं होती
मज़ाहिब रहते हैं क़ाइम फ़क़त ईमान जाता है
थिएटर रात को और दिन को यारों की ये स्पीचें
दुहाई लाट साहब की मिरा ईमान जाता है
जहाँ दिल में ये आई कुछ कहूँ वो चल दिया उठ कर
ग़ज़ब है फ़ित्ना है ज़ालिम नज़र पहचान जाता है
चुनाँ बुरूँद सब्र अज़ दिल के क़िस्से याद आते हैं
तड़प जाता हूँ ये सुन कर कि अब ईमान जाता है
Kis Kis Adaa Se Tune Jalwa Dikha Ke Maara | किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा
अव्वलपहले बना के पुतला, पुतले में जान डाली
फिर उसको ख़ुद क़ज़ामौत की सूरत में आके मारा
आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा
ग़ुंचों में आके महका, बुलबुल में जाके चहका
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
सोसनएक कश्मीरी पौधा की तरह ‘अकबर’, ख़ामोश हैं यहाँ पर
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा
Koi Hans Raha Hai Koi Ro Raha Hai | कोई हँस रहा है कोई रो रहा है
कोई हँस रहा है कोई रो रहा है
कोई पा रहा है कोई खो रहा है
íकोई ताक में है किसी को है गफ़लत
कोई जागता है कोई सो रहा है
कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई
कोई बीज उम्मीद के बो रहा है
इसी सोच में मैं तो रहता हूँ ‘अकबर’
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है
Kuch Aaj Ilaaz-e-Dil-e-Beemar To Kar Le | कुछ आज इलाज-ए-दिल-ए-बीमार तो कर लें
कुछ आज इलाज-ए-दिल-ए-बीमार तो कर लें
ऐ जान-ए-जहाँ आओ ज़रा प्यार तो कर लें
मुँह हम को लगाता ही नहीं वो बुत-ए-काफ़िर
कहता है ये अल्लाह से इंकार तो कर लें
समझे हुए हैं काम निकलता है जुनूँ से
कुछ तजरबा-ए-सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार तो कर लें
सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर
पहले वो मुझे अपना गुनहगार तो कर लें
हज से हमें इंकार नहीं हज़रत-ए-वाइ’ज़
तौफ़-ए-हरम-ए-कूचा-ए-दिलदार तो कर लें
मंज़ूर वो क्यों करने लगे दा’वत-ए-‘अकबर’
ख़ैर इस से है क्या बहस हम इसरार तो कर लें
Kya Hi Rah Rah Ke Tabiyat Meri Ghabrati Hai | क्या ही रह रह के तबीअ’त मिरी घबराती है
क्या ही रह रह के तबीअ’त मिरी घबराती है
मौत आती है शब-ए-हिज्र न नींद आती है
वो भी चुप बैठे हैं अग़्यार भी चुप मैं भी ख़मोश
ऐसी सोहबत से तबीअ’त मिरी घबराती है
क्यूँ न हो अपनी लगावट की नज़र पर नाज़ाँ
जानते हो कि दिलों को ये लगा लाती है
बज़्म-ए-इशरत कहीं होती है तो रो देता हूँ
कोई गुज़री हुई सोहबत मुझे याद आती है
Kya Janiye Saiyyad The Haq Aagaah Kahan Tak | क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
समझे न कि सीधी है मिरी राह कहाँ तक
मंतिक़ भी तो इक चीज़ है ऐ क़िबला ओ काबा
दे सकती है काम आप की वल्लाह कहाँ तक
अफ़्लाक तो इस अहद में साबित हुए मादूम
अब क्या कहूँ जाती है मिरी आह कहाँ तक
कुछ सनअत ओ हिरफ़त पे भी लाज़िम है तवज्जोह
आख़िर ये गवर्नमेंट से तनख़्वाह कहाँ तक
मरना भी ज़रूरी है ख़ुदा भी है कोई चीज़
ऐ हिर्स के बंदो हवस-ए-जाह कहाँ तक
तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है ‘अकबर’
अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक
Kya Jurm Hai Yeh Haal To Jaane Khuda-e-Maut | क्या जुर्म है ये हाल तो जाने ख़ुदा-ए-मौत
क्या जुर्म है ये हाल तो जाने ख़ुदा-ए-मौत
हर नफ़्स के लिए है मगर याँ सज़ा-ए-मौत
कहती है ‘अक़्ल मौत ये है बहर-ए-ज़िंदगी
वो ज़िंदगी कि जो नहीं होगी बराए-मौत
दुनिया की ज़िंदगी तो है इक जुज़्व-ए-मौत ही
इस का नतीजा हो नहीं सकता सिवाए मौत
साँचा ये ज़िंदगी है फ़क़त रूह के लिए
जब ढल चुके तो साँचे को जाएज़ है आए मौत
कैसी ढली इसी का है लाज़िम हमें ख़याल
ने’मत बनाएँ मौत को क्यों हो जफ़ा-ए-मौत
होता है ग़म ज़रूर मगर कुछ है मस्लहत
अल्लाह कर दे तब’ को राज़-आश्ना-मौत
Lutf Chaho Ek But-e-Nau-Khej Ko Raazi Karo | लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो
लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो
नौकरी चाहो किसी अंग्रेज़ को राज़ी करो
लीडरी चाहो तो लफ़्ज़-ए-क़ौम है मेहमाँ-नवाज़
गप-नवीसों को और अहल-ए-मेज़ को राज़ी करो
ताअत-ओ-अम्न-ओ-सुकूँ का दिल को लेकिन हो जो शौक़
सब्र पर तब-ए-हवस-अंगेज़ को राज़ी करो
ज़क-ज़क-ओ-बक़-बक़ में दुनिया के न हो ‘अकबर’ शरीक
चुप ही रहने पर ज़बान-ए-तेज़ को राज़ी करो
Maani Ko Bhula Deti Hai Soorat Hai To Yeh Hai | मा’नी को भुला देती है सूरत है तो ये है
मा’नी को भुला देती है सूरत है तो ये है
नेचर भी सबक़ सीख ले ज़ीनत है तो ये है
कमरे में जो हँसती हुई आई मिस-ए-राना
टीचर ने कहा इल्म की आफ़त है तो ये है
ये बात तो अच्छी है कि उल्फ़त हो मिसों से
हूर उन को समझते हैं क़यामत है तो ये है
पेचीदा मसाइल के लिए जाते हैं इंग्लैण्ड
ज़ुल्फ़ों में उलझ आते हैं शामत है तो ये है
पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से
साहब मिरे ईमान की क़ीमत है तो ये है
Majhab Ka Ho Kyun Kar Ilam-O-Amal Dil HI Nahi Bhai Ek Taraf | मज़हब का हो क्यूँकर इल्म-ओ-अमल दिल ही नहीं भाई एक तरफ़
मज़हब का हो क्यूँकर इल्म-ओ-अमल दिल ही नहीं भाई एक तरफ़
क्रिकेट की खिलाई एक तरफ़ कॉलेज की पढ़ाई एक तरफ़
क्या ज़ौक़-ए-इबादत हो उन को जो बस के लबों के शैदा हैं
हलवा-ए-बहिश्ती एक तरफ़ होटल की मिठाई एक तरफ़
ताऊन-ओ-तप और खटमल मच्छर सब कुछ है ये पैदा कीचड़ से
बम्बे की रवानी एक तरफ़ और सारी सफ़ाई एक तरफ़
मज़हब का तो दम वो भरते हैं बे-पर्दा बुतों को करते हैं
इस्लाम का दा’वा एक तरफ़ ये काफ़िर-अदाई एक तरफ़
हर सम्त तो है एक दाम-ए-बला रह सकते हैं ख़ुश किस तरह भला
अग़्यार की काविश एक तरफ़ आपस की लड़ाई एक तरफ़
क्या काम चले क्या रंग जमे क्या बात बने कौन उस की सुने
है ‘अकबर’-ए-बेकस एक तरफ़ और सारी ख़ुदाई एक तरफ़
फ़रियाद किए जा ऐ ‘अकबर’ कुछ हो ही रहेगा आख़िर-कार
अल्लाह से तौबा एक तरफ़ साहब की दुहाई एक तरफ़
Maut Aayi Ishq Mein To Humein Neend Aa Gayi | मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई
मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई
निकली बदन से जान तो काँटा निकल गया
बाज़ारे-मग़रिबी की हवा से ख़ुदा बचाए
मैं क्या, महाजनों का दिवाला निकल गया
Mayus Kar Raha Hai Nayi Roshni Ka Rang | मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
इसका न कुछ अदब है न एतबार है
तक़दीस मास्टर की न लीडर का फ़ातेहा
यानी न नूरे-दिल है, न शमये मज़ार है
Meharbaani Hai Adayat Ko Jo Aate Hai Magar | मेहरबानी है अयादत को जो आते हैं मगर
मेहरबानी है अयादत को जो आते हैं मगर
किस तरह उन से हमारा हाल देखा जाएगा
दफ़्तर-ए-दुनिया उलट जाएगा बातिल यक-क़लम
ज़र्रा ज़र्रा सब का असली हाल देखा जाएगा
आफ़िशियल आमाल-नामा की न होगी कुछ सनद
हश्र में तो नामा-ए-आमाल देखा जाएगा
बच रहे ताऊन से तो अहल-ए-ग़फ़लत बोल उठे
अब तो मोहलत है फिर अगले साल देखा जाएगा
तह करो साहब नसब-नामी वो वक़्त आया है अब
बे-असर होगी शराफ़त माल देखा जाएगा
रख क़दम साबित न छोड़ ‘अकबर’ सिरात-ए-मुस्तक़ीम
ख़ैर चल जाने दे उन की चाल देखा जाएगा
Mere Dil Ko Woh Bute-e-Dil Khawah Jo Chahe Kare | मेरे दिल को वो बुत-ए-दिल-ख़्वाह जो चाहे करे
मेरे दिल को वो बुत-ए-दिल-ख़्वाह जो चाहे करे
अब तो दे डाला उसे अल्लाह जो चाहे करे
शैख़ की मंतिक़ हो या चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़-ए-बुताँ
सीधा-सादा हूँ मुझे गुमराह जो चाहे करे
देख कर पोथी बरहमन कहते हैं इस ‘अह्द में
शादी तो आसाँ नहीं हाँ ब्याह जो चाहे करे
ख़र्च की तफ़्सील पूछूँगा न माँगूँगा हिसाब
ले ले वो बुत कुल मिरी तनख़्वाह जो चाहे करे
अच्छे अच्छे फँस गए हैं नौकरी के जाल में
सच ये है अफ़्ज़ूनी-ए-तनख़्वाह जो चाहे करे
बा-असर होना तो है मौक़ूफ़ दिल के रंग पर
जोश में यूँ आ के ‘अकबर’ आह जो चाहे करे
Mere Havaas-e-Ishq Mein Kya Kam Hai Muntashir | मेरे हवास-ए-इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर
मेरे हवास-ए-इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर
मजनूँ का नाम हो गया क़िस्मत की बात है
दिल जिस के हाथ में हो न हो उस पे दस्तरस
बे-शक ये अहल-ए-दिल पे मुसीबत की बात है
परवाना रेंगता रहे और शम्अ’ जल बुझे
इस से ज़ियादा कौन सी ज़िल्लत की बात है
मुतलक़ नहीं मुहाल अजब मौत दहर में
मुझ को तो ये हयात ही हैरत की बात है
तिरछी नज़र से आप मुझे देखते हैं क्यूँ
दिल को ये छेड़ना ही शरारत की बात है
राज़ी तो हो गए हैं वो तासीर-ए-इश्क़ से
मौक़ा निकालना सो ये हिकमत की बात है
Meri Rooh Tan Se Juda Ho Gayi | मिरी रूह तन से जुदा हो गई
मिरी रूह तन से जुदा हो गई
किसी ने न जाना कि क्या हो गई
बहुत दुख़्तर-ए-रज़ थी रंगीं-मिज़ाज
नज़र मिलते ही आश्ना हो गई
मरीज़-ए-मोहब्बत तिरा मर गया
ख़ुदा की तरफ़ से दवा हो गई
बुतों को मोहब्बत न होती मिरी
ख़ुदा का करम हो गया हो गई
इशारा किया बैठने का मुझे
‘इनायत की आज इंतिहा हो गई
ये थी क़ीमत-ए-रिज़्क़ टूटे जो दाँत
ग़रज़ कौड़ी-कौड़ी अदा हो गई
दवा क्या कि वक़्त-ए-दु’आ भी नहीं
तिरी हालत ‘अकबर’ ये क्या हो गई
Meri Taqdeer Muafiq Na Thi Tadbeer Ke Saath | मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ
मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ
खुल गई आँख निगहबाँ की भी ज़ंजीर के साथ
खुल गया मुसहफ़-ए-रुख़्सार-ए-बुतान-ए-मग़रिब
हो गए शैख़ भी हाज़िर नई तफ़्सीर के साथ
ना-तवानी मिरी देखी तो मुसव्विर ने कहा
डर है तुम भी कहीं खिंच आओ न तस्वीर के साथ
हो गया ताइर-ए-दिल सैद-ए-निगाह-ए-बे-क़स्द
सई-ए-बाज़ू की यहाँ शर्त न थी तीर के साथ
लहज़ा लहज़ा है तरक़्क़ी पे तिरा हुस्न-ओ-जमाल
जिस को शक हो तुझे देखे तिरी तस्वीर के साथ
बा’द सय्यद के मैं कॉलेज का करूँ क्या दर्शन
अब मोहब्बत न रही इस बुत-ए-बे-पीर के साथ
मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज़ पे जाऊँ ‘अकबर’
‘नासिख़’ ओ ‘ज़ौक़’ भी जब चल न सके ‘मीर’ के साथ
Mesmerism Ke Amal Mein Dahn Ab Mashgool Hai | मेस्मिरीज़्म के ‘अमल में दह्र अब मशग़ूल है
मेस्मिरीज़्म के ‘अमल में दह्र अब मशग़ूल है
मग़रिब-ओ-मशरिक़ में इक ‘आमिल है इक मा’मूल है
जिस्म-ओ-जाँ कैसे कि ‘अक़्लों में तग़य्युर हो चला
था जो मकरूह अब पसंदीदा है और मक़्बूल है
मतला’-ए-अनवार-ए-मशरिक़ से है ख़िल्क़त बे-ख़बर
मुस्तनद परतव वो है मग़रिब से जो मन्क़ूल है
गुलशन-ए-मिल्लत में पामाली सर-अफ़राज़ी है अब
जो ख़िज़ाँ-दीदा है बर्ग अपनी नज़र में फूल है
कोई मरकज़ ही नहीं पैदा हो फिर क्यूँकर मुहीत
झोल है पेचीदगी है अबतरी है भूल है
Mil Gaya Sharai Se Sharab Ka Rang | मिल गया शरअ’ से शराब का रंग
मिल गया शरअ’ से शराब का रंग
ख़ूब बदला ग़रज़ जनाब का रंग
चल दिए शैख़ सुब्ह से पहले
उड़ चला था ज़रा ख़िज़ाब का रंग
पाई है तुम ने चाँद सी सूरत
आसमानी रहे नक़ाब का रंग
सुब्ह को आप हैं गुलाब का फूल
दोपहर को है आफ़्ताब का रंग
लाख जानें निसार हैं इस पर
दीदनी है तिरे शबाब का रंग
टिकटिकी बंध गई है बूढ़ों की
दीदनी है तिरे शबाब का रंग
जोश आता है होश जाता है
दीदनी है तिरे शबाब का रंग
रिंद-ए-आली-मक़ाम है ‘अकबर’
बू है तक़्वा की और शराब का रंग
Misla-e-Bulbul Jamjamo Ka Khud Yahan Ek Rang Hai | मिस्ल-ए-बुलबुल ज़मज़मों का ख़ुद यहाँ इक रंग है
मिस्ल-ए-बुलबुल ज़मज़मों का ख़ुद यहाँ इक रंग है
अरग़नूँ इस अंजुमन में ख़ारिज-अज़-आहंग है
हर ख़याल अपना है याँ इक मुतरिब-ए-शीरीं-नवा
हर नफ़स सीने में इक मौज-ए-सदा-ए-चंग है
हर तसव्वुर है मिरा ‘अक्स-ए-जमाल-ए-रू-ए-दोस्त
मेरा हर मजमू’आ-ए-वह्म इक गुल-ए-ख़ुश-रंग है
लौह-ए-दिल हर जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ से है मा’नी-पज़ीर
हर रग-ए-अंदेशा नक़्श-ए-ख़ामा-ए-अर्ज़ंग है
‘अक्स तेरा पड़ के इस में हो गया पाकीज़ा-तर
ऐ बुत-ए-काफ़िर मिरी आँखों में फ़ैज़-ए-गंग है
नज़्म-ए-‘अकबर’ से बलाग़त सीख लें अर्बाब-ए-‘इश्क़
इस्तिलाहात-ए-जुनूँ में बे-बहा फ़रहंग है
Miso Ke Samne Kya Majhabi Bahana Chale | मिसों के सामने क्या मज़हबी बहाना चले
मिसों के सामने क्या मज़हबी बहाना चले
चलेंगे हम भी उसी रुख़ जिधर ज़माना चले
ख़ुदा के वास्ते साक़ी यही निगाह-ए-करम
चला है दौर तो फिर क्यों रुके चला न चले
खिला है बाग़-ए-क़नाअ’त में ग़ुंचा-ए-ख़ातिर
ख़ुदा बचाए कहीं हिर्स की हवा न चले
फ़रोग़ ‘इश्क़ का बे-आह के नहीं मुमकिन
न फैले बू-ए-गुलिस्ताँ अगर हवा न चले
खुले किवाड़ जो कमरे के फिर किसी को क्या
ये हुक्म भी तो हुआ है कि रास्ता न चले
उमीद-ए-हूर में मुस्लिम तो हो गया हूँ मगर
ख़ुदा ही है कि जो मुझ से ये पंजगाना चले
ख़ुदी की हिस से भी होता है इंतिशार ‘अकबर’
कहाँ रहूँ कि मुझे भी मिरा पता न चले
Mujhe Bhi Dijiye Akhbaar Ka Waraq Koi | मुझे भी दीजिए अख़बार का वरक़ कोई
मुझे भी दीजिए अख़बार का वरक़ कोई
मगर वह जिसमें दवाओं का इश्तेहार न हो
जो हैं शुमार में कौड़ी के तीन हैं इस वक़्त
यही है ख़ूब, किसी में मेरा शुमार न हो
गिला यह जब्र क्यों कर रहे हो ऐ ’अकबर’
सुकूत ही है मुनासिब जब अख़्तियार न हो
Munh Dekhte Hai Hazrat Ahbaab Pee Rahe Hai | मुँह देखते हैं हज़रत, अहबाब पी रहे हैं
मुँह देखते हैं हज़रत, अहबाब पी रहे हैं
क्या शेख़ इसलिए अब दुनिया में जी रहे हैं
मैंने कहा जो उससे, ठुकरा के चल न ज़ालिम
हैरत में आके बोला, क्या आप जी रहे हैं?
अहबाब उठ गए सब, अब कौन हमनशीं हो
वाक़िफ़ नहीं हैं जिनसे, बाकी वही रहे हैं
Muntashir Zarro Ko Yakjayi Ka Josh Aaya To Kya | मुंतशिर ज़र्रों को यकजाई का जोश आया तो क्या
मुंतशिर ज़र्रों को यकजाई का जोश आया तो क्या
चार दिन के वास्ते मिट्टी को होश आया तो क्या
आरज़ी हैं मौसम-ए-गुल की ये सारी मस्तियाँ
लाला गुलशन में अगर साग़र-ब-दोश आया तो क्या
दौर-ए-आख़िर बज़्म-ए-दुनिया का है जाम-ए-ख़ून-ए-दिल
तैश इस महफ़िल में बन कर बादा-नोश आया तो क्या
हद्द-ए-हैरत ही में रक्खा ज़ो’फ़ ने इदराक को
पैकर-ए-ख़ाकी को इस ‘आलम में होश आया तो क्या
Muslim Ka Miyapan Shokht Karo | मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो
मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो, हिन्दू की भी ठकुराई न रहे!
बन जावो हर इक के बाप यहाँ दावे को कोई भाई न रहे!
हम आपके फ़न के गाहक हों, ख़ुद्दाम हमारे हों ग़ायब
सब काम मशीनों ही से चले, धोबी न रहे नाई न रहे!
Na Behte Ashq To Taseer Mein Siva Hote | न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते
न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते
सदफ़ में रहते ये मोती तो बे-बहा होते
मुझ ऐसे रिंद से रखते ज़रूर ही उल्फ़त
जनाब-ए-शैख़ अगर आशिक़-ए-ख़ुदा होते
गुनाहगारों ने देखा जमाल-ए-रहमत को
कहाँ नसीब ये होता जो बे-ख़ता होते
जनाब-ए-हज़रत-ए-नासेह का वाह क्या कहना
जो एक बात न होती तो औलिया होते
मज़ाक़-ए-इश्क़ नहीं शेख़ में ये है अफ़्सोस
ये चाशनी भी जो होती तो क्या से क्या होते
महल्ल-ए-शुक्र हैं ‘अकबर’ ये दरफ़शाँ नज़्में
हर इक ज़बाँ को ये मोती नहीं अता होते
Na Haasil Hua Sabra-o-Aaram Dil Ka | न हासिल हुआ सब्र-ओ-आराम दिल का
न हासिल हुआ सब्र-ओ-आराम दिल का
न निकला कभी तुम से कुछ काम दिल का
मोहब्बत का नश्शा रहे क्यूँ न हर-दम
भरा है मय-ए-इश्क़ से जाम दिल का
फँसाया तो आँखों ने दाम-ए-बला में
मगर इश्क़ में हो गया नाम दिल का
हुआ ख़्वाब रुस्वा ये इश्क़-ए-बुताँ में
ख़ुदा ही है अब मेरे बदनाम दिल का
ये बाँकी अदाएँ ये तिरछी निगाहें
यही ले गईं सब्र-ओ-आराम दिल का
धुआँ पहले उठता था आग़ाज़ था वो
हुआ ख़ाक अब ये है अंजाम दिल का
जब आग़ाज़-ए-उल्फ़त ही में जल रहा है
तो क्या ख़ाक बतलाऊँ अंजाम दिल का
ख़ुदा के लिए फेर दो मुझ को साहब
जो सरकार में कुछ न हो काम दिल का
पस-ए-मर्ग उन पर खुला हाल-ए-उल्फ़त
गई ले के रूह अपनी पैग़ाम दिल का
तड़पता हुआ यूँ न पाया हमेशा
कहूँ क्या मैं आग़ाज़-ओ-अंजाम दिल का
दिल उस बे-वफ़ा को जो देते हो ‘अकबर’
तो कुछ सोच लो पहले अंजाम दिल का
Na Rooh-e-Majhab Na Kalb-e-Aarif Na Shaiyrana Jabaan Baaki | न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइ’राना ज़बान बाक़ी
न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइ’राना ज़बान बाक़ी
ज़मीं हमारी बदल गई है अगरचे है आसमान बाक़ी
शब-ए-गुज़िश्ता के साज़ ओ सामाँ के अब कहाँ हैं निशान बाक़ी
ज़बान-ए-शमा-ए-सहर पे हसरत की रह गई दास्तान बाक़ी
जो ज़िक्र आता है आख़िरत का तो आप होते हैं साफ़ मुनकिर
ख़ुदा की निस्बत भी देखता हूँ यक़ीन रुख़्सत गुमान बाक़ी
फ़ुज़ूल है उन की बद-दिमाग़ी कहाँ है फ़रियाद अब लबों पर
ये वार पर वार अब अबस हैं कहाँ बदन में है जान बाक़ी
मैं अपने मिटने के ग़म में नालाँ उधर ज़माना है शाद ओ ख़ंदाँ
इशारा करती है चश्म-ए-दौराँ जो आन बाक़ी जहान बाक़ी
इसी लिए रह गई हैं आँखें कि मेरे मिटने का रंग देखें
सुनूँ वो बातें जो होश उड़ाएँ इसी लिए हैं ये कान बाक़ी
तअ’ज्जुब आता है तिफ़्ल-ए-दिल पर कि हो गया मस्त-ए-नज़्म-ए-‘अकबर’
अभी मिडिल पास तक नहीं है बहुत से हैं इम्तिहान बाक़ी
Nayi Tehzeeb Se Saaki Ne Aisi Garm-Joshi Ki | नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की
नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की
कि आख़िर मुस्लिमों में रूह फूंकी बादा-नोशी की
तुम्हारी पॉलीसी का हाल कुछ खुलता नहीं साहब
हमारी पॉलीसी तो साफ़ है ईमाँ-फ़रोशी की
छुपाने के एवज़ छपवा रहे हैं ख़ुद वो ऐब अपने
नसीहत क्या करूँ मैं क़ौम को अब ऐब-पोशी की
पहनने को तो कपड़े ही न थे क्या बज़्म में जाते
ख़ुशी घर बैठे कर ली हम ने जश्न-ए-ताज-पोशी की
शिकस्त-ए-रंग-ए-मज़हब का असर देखें नए मुर्शिद
मुसलमानों में कसरत हो रही है बादा-नोशी की
रेआ’या को मुनासिब है कि बाहम दोस्ती रक्खें
हिमाक़त हाकिमों से है तवक़्क़ो गर्म-जोशी की
हमारे क़ाफ़िए तो हो गए सब ख़त्म ऐ ‘अकबर’
लक़ब अपना जो दे दें मेहरबानी है ये जोशी की
Phir Gayi Aap Ki Do Din Mein Tabiyat Kaisi | फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी
फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी
ये वफ़ा कैसी थी साहब ! ये मुरव्वत कैसी
दोस्त अहबाब से हंस बोल के कट जायेगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं, हमको शब-ए-फुरक़त कैसी
जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना
इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं, तबीयत कैसी
है जो किस्मत में वही होगा न कुछ कम, न सिवा
आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी
हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे
आज रह रह के भर आती है तबीयत कैसी
कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता
क़ैस आवारा है जंगल में, ये वहशत कैसी
Pinjre Mein Muniya | पिंजरे में मुनिया
मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार
हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है
हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल
टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर
शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है
नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज
कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही
हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं
दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया
स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें
क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा
क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया
भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई
पाँव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी
Raha Karta Hai Murg-e-Faha Shaki | रहा करता है मुर्ग़-ए-फ़ह्म शाकी
रहा करता है मुर्ग़-ए-फ़ह्म शाकी
नई तहज़ीब के अंडे हैं ख़ाकी
छुरी से उन की कटवा कर फ़लक ने
ख़ुदा जाने हमारी नाक क्या की
अभी इंजन गया है इस तरफ़ से
कहे देती है तारीकी हवा की
रही रात एशिया ग़फ़्लत में सोती
नज़र यूरोप की काम अपना किया की
Rang-e-Sharab Se Meri Niyat Badal Gayi | रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई
रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई
वाइज़ की बात रह गई साक़ी की चल गई
तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर
जल्वा बुतों का देख के निय्यत बदल गई
मछली ने ढील पाई है लुक़्मे पे शाद है
सय्याद मुतमइन है कि काँटा निगल गई
चमका तिरा जमाल जो महफ़िल में वक़्त-ए-शाम
परवाना बे-क़रार हुआ शम्अ’ जल गई
उक़्बा की बाज़-पुर्स का जाता रहा ख़याल
दुनिया की लज़्ज़तों में तबीअ’त बहल गई
हसरत बहुत तरक़्क़ी-ए-दुख़्तर की थी उन्हें
पर्दा जो उठ गया तो वो आख़िर निकल गई
Roshan Dil-e-Aarif Se Fuzu Hai Badan Unka | रौशन दिल-ए-आरिफ़ से फ़ुज़ूँ है बदन उन का
रौशन दिल-ए-आरिफ़ से फ़ुज़ूँ है बदन उन का
रंगीं है तबी’अत की तरह पैरहन उन का
महरूम ही रह जाती है आग़ोश-ए-तमन्ना
शर्म आ के चुरा लेती है सारा बदन उन का
जिन लोगों ने दिल में तिरे घर अपना किया है
बाहर है दो-आलम से मिरी जाँ वतन उन का
हर बात में वो चाल किया करते हैं मुझ से
उल्फ़त न निभेगी जो यही है चलन उन का
आरिज़ से ग़रज़ हम को अनादिल को है गुल से
है कूचा-ए-माशूक़ हमारा चमन उन का
है साफ़ निगाहों से ‘अयाँ जोश-ए-जवानी
आँखों से सँभलता नहीं मस्ताना-पन उन का
ये शर्म के मा’नी हैं हया कहते हैं इस को
आग़ोश-ए-तसव्वुर में न आया बदन उन का
ग़ैरों ही पे चलता है जो अब नाज़ का ख़ंजर
क्यूँ बीच में लाया था मुझे बाँकपन उन का
ग़ैरों ने कभी पाक नज़र से नहीं देखा
वो उस को न समझें तो ये है हुस्न-ए-ज़न उन का
इस ज़ुल्फ़-ओ-रुख़-ओ-लब पे उन्हें क्यूँ न हो नख़वत
तातार है उन का हलब उन का यमन उन का
अल्लाह रे फ़रेब-ए-नज़र-ए-चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़
बंदा है हर इक शैख़ हर इक बरहमन उन का
आया जो नज़र हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद का जल्वा
बुत बन गया मुँह देख के हर बरहमन उन का
मरक़द में उतारा हमें तेवरी को चढ़ा कर
हम मर भी गए पर न छुटा बाँकपन उन का
गुज़री हुई बातें न मुझे याद दिलाओ
अब ज़िक्र ही जाने दो तुम ऐ जान-ए-मन उन का
दिलचस्प ही आफ़त है क़यामत है ग़ज़ब है
बात उन की अदा उन की क़द उन का चलन उन का
Saans Lete Huye Bhi Darta Hoon | साँस लेते हुए भी डरता हूँ
साँस लेते हुए भी डरता हूँ
ये न समझें कि आह करता हूँ
बहर-ए-हस्ती में हूँ मिसाल-ए-हबाब
मिट ही जाता हूँ जब उभरता हूँ
इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है
साँस लेता हूँ बात करता हूँ
शैख़ साहब ख़ुदा से डरते हों
मैं तो अंग्रेज़ों ही से डरता हूँ
आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज
शुक्र अल्लाह का है मरता हूँ
ये बड़ा ऐब मुझ में है ‘अकबर’
दिल में जो आए कह गुज़रता हूँ
Sabra Rah Jata Hai Aur Ishq Ki Chal Jati Hai | सब्र रह जाता है और ‘इश्क़ की चल जाती है
सब्र रह जाता है और ‘इश्क़ की चल जाती है
ज़ब्त करता हूँ मगर आह निकल जाती है
कुछ नतीजा न सही ‘इश्क़ की उम्मीदों का
दिल तो बढ़ता है तबी’अत तो बहल जाती है
शम’ के बज़्म में जलने का जो कुछ हो अंजाम
मगर इस अज़्म से साँचे में तो ढल जाती है
वा’दा-ए-बोसा-ए-अब्रू का न कर ग़ैर से ज़िक्र
दिल-लगी में कभी तलवार भी चल जाती है
Sach Hai Kisi Ki Shaan-e-Naazni Nahi | सच है किसी की शान ये ऐ नाज़नीं नहीं
सच है किसी की शान ये ऐ नाज़नीं नहीं
तू हर जगह है जल्वा-गर और फिर कहीं नहीं
मैं ने वुफ़ूर-ए-शौक़ में शायद सुना न हो
या शायद आप ही ने न की हो नहीं नहीं
दस्त-ए-जुनूँ से क़त्अ हुआ पैरहन मिरा
दामन नहीं है जेब नहीं आस्तीं नहीं
मैं तुम से क्या बताऊँ कि इस वक़्त हूँ कहाँ
जब तुम हो पेश-ए-चश्म तो फिर मैं कहीं नहीं
जब से गुनाह छोड़ दिए सब खिसक गए
अब कोई मेरा दोस्त नहीं हम-नशीं नहीं
‘अकबर’ हमारे ‘अह्द का अल्लाह रे इंक़िलाब
गोया वो आसमान नहीं वो ज़मीं नहीं
Sadiyo Philasafi Ki Chuna Aur Chuni Rahi | सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
लेकिन ख़ुदा की बात जहाँ थी वहीं रही
ज़ोर-आज़माइयाँ हुईं साइंस की भी ख़ूब
ताक़त बढ़ी किसी की किसी में नहीं रही
दुनिया कभी न सुल्ह पे माइल हुई मगर
बाहम हमेशा बरसर-ए-पैकार-ओ-कीं रही
पाया अगर फ़रोग़ तो सिर्फ़ उन नुफ़ूस ने
जिन की कि ख़िज़्र-ए-राह फ़क़त शम्मा-ए-दीं रही
अल्लाह ही की याद बहर-हाल ख़ल्क़ में
वजह-ए-सुकून-ए-ख़ातिर-ए-अंदोह-गीं रही
Samjhe Wahi Isko Jo Ho Deewana Kisi Ka | समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
‘अकबर’ ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का
गर शैख़-ओ-बहरमन धर्मोपदेशक सुनें अफ़साना किसी का
माबद पूजा का स्थान न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना काबा और मंदिर किसी का
अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना अँधेरे भरा कमरा किसी का
अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़बदले में नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का
इशरतधूमधाम जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का
करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को
सुनिएगा लब-ए-ग़ौरध्यान से से अफ़साना किसी का
कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का
हम जान से बेज़ारना-खुश रहा करते हैं ‘अकबर’
जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का
Seene Mein Dil-e-Aagaah Jo Ho Kuch Gham Na Karo Nashaad Sahi | सीने में दिल-ए-आगाह जो हो कुछ ग़म न करो नाशाद सही
सीने में दिल-ए-आगाह जो हो कुछ ग़म न करो नाशाद सही
बेदार तो है मशग़ूल तो है नग़्मा न सही फ़रियाद सही
हर-चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अन्दर है
इक वज्द तो है इक रक़्स तो है बेचैन सही बर्बाद सही
वो ख़ुश कि करूँगा ज़ब्ह उसे या क़ैद-ए-क़फ़स में रक्खूँगा
मैं ख़ुश कि ये तालिब तो है मिरा सय्याद सही जल्लाद सही
Seene Se Lagaye Tumhe Armaan Yahi Hai | सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है
सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है
जीने का मज़ा है तो मिरी जान यही है
सब्र इस लिए अच्छा है कि आइंदा है उम्मीद
मौत इस लिए बेहतर है कि आसान यही है
तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
गेसू के शरीक और भी थे क़त्ल में मेरे
क्या वज्ह है इस की कि परेशान यही है
उस बुत ने कहा बोसा-ए-बे-इज़्न प हँस कर
बस देख लिया आप का ईमान यही है
करते हैं ब-तदरीज वो ज़ुल्मों में इज़ाफ़ा
मुझ पर अगर उन का है कुछ एहसान यही है
हम फ़लसफ़े को कहते हैं गुमराही का बाइ’स
वो पेट दिखाते हैं कि शैतान यही है
Shakal Jab Bas Gayi Aankhon Mein To Chhupana Kaisa | शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा
शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा
दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा
आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात
उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा
तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे
घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा
ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज
कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा
क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल
ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा
Sher Kehta Hai Bazm Se Na Talo | शेर कहता है बज़्म से न टलो
शेर कहता है बज़्म से न टलो
दाद लो, वाह की हवा में पलो
वक़्त कहता है क़ाफ़िया है तंग
चुप रहो, भाग जाओ, साँस न लो
Sheikh Ji Apni Si Bakte Hi Rahe | शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे
शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे
वह थियेटर में थिरकते ही रहे
दफ़ बजाया ही किए मज़्मूंनिगार
वह कमेटी में मटकते ही रहे
सरकशों ने ताअते-हक़ छोड़ दी
अहले-सजदा सर पटकते ही रहे
जो गुबारे थे वह आख़िर गिर गए
जो सितारे थे चमकते ही रहे
Sheikh Ne Nakoos Ke Sur Mein Jo Khud Hi Taan Li | शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली
शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली
फिर तो यारों ने भजन गाने की खुल कर ठान ली
मुद्दतों क़ाइम रहेंगी अब दिलों में गर्मियाँ
मैं ने फोटो ले लिया उस ने नज़र पहचान ली
रो रहे हैं दोस्त मेरी लाश पर बे-इख़्तियार
ये नहीं दरयाफ़्त करते किस ने इस की जान ली
मैं तो इंजन की गले-बाज़ी का क़ाइल हो गया
रह गए नग़्मे हुदी-ख़्वानों के ऐसी तान ली
हज़रत-ए-‘अकबर’ के इस्तिक़्लाल का हूँ मो’तरिफ़
ता-ब-मर्ग उस पर रहे क़ाइम जो दिल में ठान ली
Shikwa-e-Bedaad Se Mujhko To Darna Chahiye | शिकवा-ए-बेदाद से मुझ को तो डरना चाहिए
शिकवा-ए-बेदाद से मुझ को तो डरना चाहिए
दिल में लेकिन आप को इंसाफ़ करना चाहिए
हो नहीं सकता कभी हमवार दुनिया का नशेब
इस गढ़े को अपनी ही मिट्टी से भरना चाहिए
जम’ सामान-ए-ख़ुद-आराई है लेकिन ऐ ‘अज़ीज़
जिस की सूरत ख़ूब हो उस को सँवरना चाहिए
‘आशिक़ी में ख़ंदा-रूई सालिकों को है मुहाल
है यही मंज़िल कि चेहरे को उतरना चाहिए
हर ‘अमल तेरा है ‘अकबर’ ताबे’-ए-‘अज़्म-ए-हरीफ़
जब ये मौक़ा’ हो तो भाई कुछ न करना चाहिए
Soup Ka Shayak Hoon Yakhni Hogi Kya | सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या
सूप का शायक़ हूँ, यख़नी होगी क्या
चाहिए कटलेट, यह कीमा क्या करूँ
(शायक़ = शौक़ीन; यख़नी = एक किस्म का शोरबा जो पुलाव पर डाला जाता है)
लैथरिज की चाहिए, रीडर मुझे
शेख़ सादी की करीमा, क्या करूँ
(लैथरिज = एक लेखक; शेख़ सादी की करीमा = शेख़ सादी की एक क़िताब जिसमें ईश्वर का गुणगान किया गया है)
खींचते हैं हर तरफ़, तानें हरीफ़
फिर मैं अपने सुर को, धीमा क्यों करूँ
(हरीफ़ = दुश्मन या विरोधी)
डाक्टर से दोस्ती, लड़ने से बैर
फिर मैं अपनी जान, बीमा क्या करूँ
चांद में आया नज़र, ग़ारे-मोहीब
हाये अब ऐ, माहे-सीमा क्या करूँ
(ग़ारे-मोहीब = गहरी गुफ़ा; माहे-सीमा = चन्द्रमुखी)
Sukoon-e-Kalb Ki Daulat Kahan Duniya-e-Faani Mein | सुकून-ए-क़ल्ब की दौलत कहाँ दुनिया-ए-फ़ानी में
सुकून-ए-क़ल्ब की दौलत कहाँ दुनिया-ए-फ़ानी में
बस इक ग़फ़्लत सी हो जाती है और वो भी जवानी में
तिरी पाकीज़ा सूरत कर रही है हुस्न-ए-ज़न पैदा
मगर आँखों की मस्ती डालती है बद-गुमानी में
हबाब अपनी ख़ुदी से बस यही कहता हुआ गुज़रा
तमाशा था हवा ने इक गिरह दे दी थी पानी में
कमर का क्या हूँ ‘आशिक़ खुल गई ज़ुल्फ़-ए-दराज़ उन की
कमर ख़ुद पड़ गई है इक बला-ए-आसमानी में
उसी सूरत में दिलकश ख़ूबी-ए-अल्फ़ाज़ होती है
कि हुस्न-ए-यार का पैदा करे जल्वा म’आनी में
अदा-ए-शुक्र कर के एहतिराज़ औला है ऐ ‘अकबर’
हज़ारों आफ़तें शामिल हैं उन की मेहरबानी में
Sune To Aap Kanat Ke Gul Machane Ko | सुनें तो आप क़नाअत के ग़ुल मचाने को
सुनें तो आप क़नाअत के ग़ुल मचाने को
वो कह रही है न छोड़ो ग़रीब-ख़ाने को
तुम्हारी हिर्स बदल कर तुम्हें करेगी हलाक
हमारा सब्र बदल देगा इस ज़माने को
Tajjub Se Kehne Lage Babu Sahab | तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
गौरमेन्ट सैयद पे क्यों मेहरबाँ है
उसे क्यों हुई इस क़दर कामियाबी
कि हर बज़्म में बस यही दास्ताँ है
(बज़्म = सभा; दास्ताँ = कथा)
कभी लाट साहब हैं मेहमान उसके
कभी लाट साहब का वह मेहमाँ है
(मेहमाँ = अतिथि)
नहीं है हमारे बराबर वह हरगिज़
दिया हमने हर सीग़े का इम्तहाँ है
वह अंग्रेज़ी से कुछ भी वाक़िफ़ नहीं है
यहाँ जितनी इंगलिश है सब बरज़बाँ हैं
कहा हँस के ‘अकबर’ ने ऎ बाबू साहब
सुनो मुझसे जो रम्ज़ उसमें निहाँ हैं
नहीं है तुम्हें कुछ भी सैयद से निस्बत
तुम अंग्रेज़ीदाँ हो वह अंग्रेज़दाँ है
Tehzeeb Ke Khilaaf Hai Jo Laye Raah Par | तहज़ीब के ख़िलाफ़ है जो लाये राह पर
तहज़ीब के ख़िलाफ़ है जो लाये राह पर
अब शायरी वह है जो उभारे गुनाह पर
क्या पूछते हो मुझसे कि मैं खुश हूँ या मलूल
यह बात मुन्हसिर है तुम्हारी निगाह पर
(मुन्हसिर = टिकी)
Talab Ho Sabra Ki Aur Dil Mein Aarzoo Aaye | तलब हो सब्र की और दिल में आरज़ू आए
तलब हो सब्र की और दिल में आरज़ू आए
ग़ज़ब है दोस्त की ख़्वाहिश हो और ‘अदू आए
तुम अपना रंग बदलते रहो फ़लक की तरह
किसी की आँख में अश्क आए या लहू आए
तिरी जुदाई से है रूह पर ये ज़ुल्म-ए-हवास
मैं अपने आप में फिर क्यों रहूँ जो तू आए
रिया का रंग न हो मुस्तनद हैं वो आ’माल
कलाम पुख़्ता है जब दर्द-ए-दिल की बू आए
लबों का बोसा जिसे मिल गया हो वो जाने
क़दम तो उस बुत-ए-बे-दीं के हम भी छू आए
खुली जो आँख जवानी में ‘इश्क़ आ पहुँचा
जो गर्मियों में खुलें दर तो क्यों न लू आए
वो मय नसीब कहाँ इन हवस-परस्तों को
कि हो क़दम को न लग़्ज़िश न मुँह से बू आए
Tarif-e-Ishq Mein Mujhko Koi Kaamil Nahi Milta | तरीक़-ए-इश्क़ में मुझ को कोई कामिल नहीं मिलता
तरीक़-ए-इश्क़ में मुझ को कोई कामिल नहीं मिलता
गए फ़रहाद ओ मजनूँ अब किसी से दिल नहीं मिलता
भरी है अंजुमन लेकिन किसी से दिल नहीं मिलता
हमीं में आ गया कुछ नक़्स या कामिल नहीं मिलता
पुरानी रौशनी में और नई में फ़र्क़ इतना है
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता
पहुँचना दाद को मज़लूम का मुश्किल ही होता है
कभी क़ाज़ी नहीं मिलते कभी क़ातिल नहीं मिलता
हरीफ़ों पर ख़ज़ाने हैं खुले याँ हिज्र-ए-गेसू है
वहाँ पे बिल है और याँ साँप का भी बिल नहीं मिलता
ये हुस्न ओ इश्क़ ही का काम है शुबह करें किस पर
मिज़ाज उन का नहीं मिलता हमारा दिल नहीं मिलता
छुपा है सीना ओ रुख़ दिल-सिताँ हाथों से करवट में
मुझे सोते में भी वो हुस्न से ग़ाफ़िल नहीं मिलता
हवास-ओ-होश गुम हैं बहर-ए-इरफ़ान-ए-इलाही में
यही दरिया है जिस में मौज को साहिल नहीं मिलता
किताब-ए-दिल मुझे काफ़ी है ‘अकबर’ दर्स-ए-हिकमत को
मैं स्पेन्सर से मुस्तग़नी हूँ मुझ से मिल नहीं मिलता
Tera Koocha Na Chhutega Tere Deewane Se | तेरा कूचा न छुटेगा तिरे दीवाने से
तेरा कूचा न छुटेगा तिरे दीवाने से
इस को का’बे से न मतलब है न बुत-ख़ाने से
जो कहा मैं ने करो कुछ मिरे रोने का ख़याल
हँस के बोले मुझे फ़ुर्सत ही नहीं गाने से
ख़ैर चुप रहिए मज़ा ही न मिला बोसे का
मैं भी बे-लुत्फ़ हुआ आप के झुँझलाने से
मैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं
कार-ए-दुनिया न रुकेगा तिरे मर जाने से
रौनक़-ए-‘इश्क़ बढ़ा देती है बेताबी-ए-दिल
हुस्न की शान फ़ुज़ूँ होती है शरमाने से
दिल-ए-सद-चाक से खुल जाएँगे हस्ती के ये पेच
बल निकल जाएँगे इस ज़ुल्फ़ के इस शाने से
सफ़हा-ए-दहर पे हैं नक़्श-ए-मुख़ालिफ़ ‘अकबर’
एक उभरता है यहाँ एक के मिट जाने से
Teri Zulfon Mein Dil Uljha Hua Hai | तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
बला के पेच में आया हुआ है
न क्यूँकर बू-ए-ख़ूँ नामे से आए
उसी जल्लाद का लिक्खा हुआ है
चले दुनिया से जिस की याद में हम
ग़ज़ब है वो हमें भूला हुआ है
कहूँ क्या हाल अगली इशरतों का
वो था इक ख़्वाब जो भूला हुआ है
जफ़ा हो या वफ़ा हम सब में ख़ुश हैं
करें क्या अब तो दिल अटका हुआ है
हुई है इश्क़ ही से हुस्न की क़द्र
हमीं से आप का शोहरा हुआ है
बुतों पर रहती है माइल हमेशा
तबीअत को ख़ुदाया क्या हुआ है
परेशाँ रहते हो दिन रात ‘अकबर’
ये किस की ज़ुल्फ़ का सौदा हुआ है
Tu Vaz Par Apmi Kayam Rah Kudrat Ki Magar Tahkeer Na Kar | तू वज़’ पर अपनी क़ाइम रह क़ुदरत की मगर तहक़ीर न कर
तू वज़’ पर अपनी क़ाइम रह क़ुदरत की मगर तहक़ीर न कर
दे पा-ए-नज़र को आज़ादी ख़ुद-बीनी को ज़ंजीर न कर
गो तेरा ‘अमल महदूद रहे और अपनी ही हद मक़्सूद रहे
रख ज़ेहन को साथी फ़ितरत का बंद उस पे दर-ए-तासीर न कर
बातिन में उभर कर ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ ले अपनी नज़र से कार-ए-ज़बाँ
दिल जोश में ला फ़रियाद न कर तासीर दिखा तक़रीर न कर
तू ख़ाक में मिल और आग में जल जब ख़िश्त बने तब काम चले
इन ख़ाम दिलों के उंसुर पर बुनियाद न रख ता’मीर न क
Tum Ne Beemar-e-Mohabbat Ko abhi Kya Dekha | तुम ने बीमार-ए-मोहब्बत को अभी क्या देखा
तुम ने बीमार-ए-मोहब्बत को अभी क्या देखा
जो ये कहते हुए जाते हो कि देखा देखा
तिफ़्ल-ए-दिल को मिरे क्या जाने लगी किस की नज़र
मैं ने कम्बख़्त को दो दिन भी न अच्छा देखा
ले गया था तरफ़-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ दिल-ए-ज़ार
क्या कहें तुम से जो कुछ वाँ का तमाशा देखा
वो जो थे रौनक़-ए-आबादी-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ
सर से पा तक उन्हें ख़ाक-ए-रह-ए-सहरा देखा
कल तलक महफ़िल-ए-इशरत में जो थे सद्र-नशीं
क़ब्र में आज उन्हें बेकस-ओ-तन्हा देखा
बस-कि नैरंगी-ए-आलम पे उसे हैरत थी
आईना ख़ाक-ए-सिकंदर को सरापा देखा
सर-ए-जमशेद के कासे में भरी थी हसरत
यास को मोतकिफ़-ए-तुर्बत-ए-दारा देखा
Tune Jise Banaya Usko Bigaad Dala | तू ने जिसे बनाया उस को बिगाड़ डाला
तू ने जिसे बनाया उस को बिगाड़ डाला
ऐ चर्ख़ मैं ने अपनी ‘अर्ज़ी को फाड़ डाला
बर्बाद क्या अजल ने मुझ को किया ये कहिए
रूह-ए-रवाँ ने अपने दामन को झाड़ डाला
दस्तार-ओ-पैरहन गुम और जेब-ओ-कीसा ख़ाली
तहज़ीब-ए-मग़रिबी ने हम को चिथाड़ डाला
बुनियाद-ए-दीं हवा-ए-दुनिया ने मुंहदिम की
तूफ़ान ने शजर को जड़ से उखाड़ डाला
अच्छा मिला नतीजा मुझ को मुरासलत का
क़ासिद को क़त्ल कर के नामे को फाड़ डाला
Uljha Na Mere Aaj Ka Daaman Kabhi Kal Se | उलझा न मिरे आज का दामन कभी कल से
उलझा न मिरे आज का दामन कभी कल से
माँगी न मिरे दिल ने मदद तूल-ए-‘अमल से
उन की निगह-ए-मस्त है लबरेज़-ए-म’आनी
मिलती हुई तासीर में ‘हाफ़िज़’ की ग़ज़ल से
इदराक ने आँखें शब-ए-औहाम में खोलीं
वाक़िफ़ न हुआ रौशनी-ए-सुब्ह-ए-अज़ल से
दर्जा मुतहय्यर का है बे-ख़ुद से फ़िरोतर
है रूह को उम्मीद तरक़्क़ी की अजल से
बहस-ए-कुहन-ओ-नौ मैं समझता नहीं ‘अकबर’
जो ज़र्रा है मौजूद है वो रोज़-ए-अज़ल से
Ummeed Tooti Huyi Hai Meri Jo Dil Mera Tha Woh Mar Chuka Hai | उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है
उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है
जो ज़िंदगानी को तल्ख़ कर दे वो वक़्त मुझ पर गुज़र चुका है
अगरचे सीने में साँस भी है नहीं तबीअत में जान बाक़ी
अजल को है देर इक नज़र की फ़लक तो काम अपना कर चुका है
ग़रीब-ख़ाने की ये उदासी ये ना-दुरुस्ती नहीं क़दीमी
चहल पहल भी कभी यहाँ थी कभी ये घर भी सँवर चुका है
ये सीना जिस में ये दाग़ में अब मसर्रतों का कभी था मख़्ज़न
वो दिल जो अरमान से भरा था ख़ुशी से उस में ठहर चुका है
ग़रीब अकबर के गर्द क्यूँ में ख़याल वाइ’ज़ से कोई कह दे
उसे डराते हो मौत से क्या वो ज़िंदगी ही से डर चुका है
Unhe Nigaah Hai Apne Jamaal Hi Ki Taraf | उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
नज़र उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़
तवज्जोह अपनी हो क्या फ़न्न-ए-शाइरी की तरफ़
नज़र हर एक की जाती है ऐब ही की तरफ़
लिखा हुआ है जो रोना मिरे मुक़द्दर में
ख़याल तक नहीं जाता कभी हँसी की तरफ़
तुम्हारा साया भी जो लोग देख लेते हैं
वो आँख उठा के नहीं देखते परी की तरफ़
बला में फँसता है दिल मुफ़्त जान जाती है
ख़ुदा किसी को न ले जाए उस गली की तरफ़
कभी जो होती है तकरार ग़ैर से हम से
तो दिल से होते हो दर-पर्दा तुम उसी की तरफ़
निगाह पड़ती है उन पर तमाम महफ़िल की
वो आँख उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़
निगाह उस बुत-ए-ख़ुद-बीं की है मिरे दिल पर
न आइने की तरफ़ है न आरसी की तरफ़
क़ुबूल कीजिए लिल्लाह तोहफ़ा-ए-दिल को
नज़र न कीजिए इस की शिकस्तगी की तरफ़
यही नज़र है जो अब क़ातिल-ए-ज़माना हुई
यही नज़र है कि उठती न थी किसी की तरफ़
ग़रीब-ख़ाना में लिल्लाह दो-घड़ी बैठो
बहुत दिनों में तुम आए हो इस गली की तरफ़
ज़रा सी देर ही हो जाएगी तो क्या होगा
घड़ी घड़ी न उठाओ नज़र घड़ी की तरफ़
जो घर में पूछे कोई ख़ौफ़ क्या है कह देना
चले गए थे टहलते हुए किसी की तरफ़
हज़ार जल्वा-ए-हुस्न-ए-बुताँ हो ऐ ‘अकबर’
तुम अपना ध्यान लगाए रहो उसी की तरफ़
Unhe Shauk-e-Ibadat Bhi Hai Aur Gaane Ki Aadat Bhi | उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर
तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर
न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर
हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर
निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर
रक़ीब-ए-सिफ़्ला-ख़ू ठहरे न मेरी आह के आगे
भगाया मच्छरों को उन के कमरों से धुआँ हो कर
Usse To Iss Sadi Mein Nahi Hum Ko Kuch Garaz | उससे तो इस सदी में नहीं हम को कुछ ग़रज़
उससे तो इस सदी में नहीं हम को कुछ ग़रज़
सुक़रात बोले क्या और अरस्तू ने क्या कहा
बहरे ख़ुदा ज़नाब यह दें हम को इत्तेला
साहब का क्या जवाब था, बाबू ने क्या कहा
Vajn Ab Unka Muaiyyan Nahi Ho Sakta Kuch | वज़्न अब उन का मुअ’य्यन नहीं हो सकता कुछ
वज़्न अब उन का मुअ’य्यन नहीं हो सकता कुछ
बर्फ़ की तरह मुसलमान घुले जाते हैं
दाग़ अब उन की नज़र में हैं शराफ़त के निशाँ
नई तहज़ीब की मौजों से धुले जाते हैं
इल्म ने रस्म ने मज़हब ने जो की थी बंदिश
टूटी जाती है वो सब बंद खुले जाते हैं
शैख़ को वज्द में लाई हैं पियानों की गतें
पेच दस्तार-ए-फ़ज़ीलत के खुले जाते हैं
Woh Hawa Na Rahi Woh Chaman Na Raha | वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
वो फ़लक न रहा वो समाँ न रहा वो मकाँ न रहे वो मकीं न रहे
वो गुलों में गुलों की सी बू न रही वो अज़ीज़ों में लुत्फ़ की ख़ू न रही
वो हसीनों में रंग-ए-वफ़ा न रहा कहें और की क्या वो हमीं न रहे
न वो आन रही न उमंग रही न वो रिंदी ओ ज़ोहद की जंग रही
सू-ए-क़िबला निगाहों के रुख़ न रहे और दर पे नक़्श-ए-जबीं न रहे
न वो जाम रहे न वो मस्त रहे न फ़िदाई-ए-अहद-ए-अलस्त रहे
वो तरीक़ा-ए-कार-ए-जहाँ न रहा वो मशाग़िल-ए-रौनक़-ए-दीं न रहे
हमें लाख ज़माना लुभाए तो क्या नए रंग जो चर्ख़ दिखाए तो क्या
ये मुहाल है अहल-ए-वफ़ा के लिए ग़म-ए-मिल्लत ओ उल्फ़त-ए-दीं न रहे
तिरे कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में दिल है मिरा अब उसे मैं समझता हूँ दाम-ए-बला
ये अजीब सितम है अजीब जफ़ा कि यहाँ न रहे तो कहीं न रहे
ये तुम्हारे ही दम से है बज़्म-ए-तरब अभी जाओ न तुम न करो ये ग़ज़ब
कोई बैठ के लुत्फ़ उठाएगा क्या कि जो रौनक़-ए-बज़्म तुम्हीं न रहे
जो थीं चश्म-ए-फ़लक की भी नूर-ए-नज़र वही जिन पे निसार थे शम्स ओ क़मर
सो अब ऐसी मिटी हैं वो अंजुमनें कि निशान भी उन के कहीं न रहे
वही सूरतें रह गईं पेश-ए-नज़र जो ज़माने को फेरें इधर से उधर
मगर ऐसे जमाल-ए-जहाँ-आरा जो थे रौनक़-ए-रू-ए-ज़मीं न रहे
ग़म ओ रंज में ‘अकबर’ अगर है घिरा तो समझ ले कि रंज को भी है फ़ना
किसी शय को नहीं है जहाँ में बक़ा वो ज़ियादा मलूल ओ हज़ीं न रहे
Woh Uthe To Bahut Ghar Se Apne Mere Ghar Mein Magar Kabhi Aa Na Sake | वो उठे तो बहुत घर से अपने मिरे घर में मगर कभी आ न सके
वो उठे तो बहुत घर से अपने मिरे घर में मगर कभी आ न सके
वो नसीम-ए-मुराद चले भी तो क्या कि जो ग़ुंचा-ए-दिल को खिला न सके
शब-ओ-रोज़ जो रहते थे पेश-ए-नज़र बड़े लुत्फ़ से होती थी जिन में बसर
ये ख़बर नहीं जा के रहे वो किधर कि हम उन का निशान भी पा न सके
ये मिरे ही न आने का सब है असर कि रक़ीबों से दबते हो आठ पहर
मिरे हाल पे चश्म-ए-करम जो रहे कोई आप से आँख मिला न सके
किया जज़्बा-ए-इश्क़ ने मेरे असर रही ग़ैरत-ए-हुस्न पे उन की नज़र
पस-ए-पर्दा सदा तो सुनाई मुझे मगर अपना जमाल दिखा न सके
रहा शोहरा-ए-‘इश्क़ का याँ मुझे डर उन्हें अपने पराए का ख़ौफ़-ओ-ख़तर
रहीं दिल ही में हसरतें दोनों तरफ़ जो मैं जा न सका तो वो आ न सके
वही दिल की तड़प वही दर्द-ए-जिगर हुआ तौबा-ए-‘इश्क़ का कुछ न असर
तिरी शक्ल जो आँखों में फिरती रही तिरी याद भी दिल से भुला न सके
है ख़ुदा की जनाब में सुब्ह-ओ-मसा यही ‘अकबर’-ए-ख़स्ता-जिगर की दु’आ
कि हमारे सिवा बुत-ए-होश-रुबा कोई सीने से तुझ को लगा न सके
Yeh Kya Hungama-e-Kaun-o-Makaa Hai | ये क्या हंगामा-ए-कौन-ओ-मकाँ है
ये क्या हंगामा-ए-कौन-ओ-मकाँ है
मैं क्या हूँ और नज़र मेरी कहाँ है
ये मौज-ए-बे-क़रारी दिल में कैसी
ये बहर-ए-बे-कराँ क्यूँकर रवाँ है
íये क्या मा’नी छुपे हैं सूरतों में
नज़र क्यों साइल-ए-हुस्न-ए-बयाँ है
फ़क़त वहदत का ही जल्वा है लेकिन
हिजाब-ए-वह्म-ए-कसरत दरमियाँ है
वही वो है नहीं है ग़ैर का दख़्ल
यहाँ बे-ख़ुद निगाह-ए-आ’रिफ़ाँ है
Yeh Soz-e-Daag-e-Dil Yeh Shiddat-e-Ranz-Alam Kab Tak | ये सोज़-ए-दाग़-ए-दिल ये शिद्दत-ए-रंज-ओ-अलम कब तक
ये सोज़-ए-दाग़-ए-दिल ये शिद्दत-ए-रंज-ओ-अलम कब तक
हमारे ही लिए ये जौर-ए-गर्दूं है तो हम कब तक
ये दफ़्तर ख़त्म ही होगा भुला ही देगा दह्र इस को
ये हिस कब तक नज़र कब तक ज़बाँ कब तक क़लम कब तक
जो हैं अहल-ए-बसीरत कहते हैं अक्सर ये ‘अकबर’ से
ग़नीमत है तिरा दम हिन्द में लेकिन ये दम कब तक
Yeh Sust Hai To Phir Kya Woh Tez Hai To Phir Kya | ये सुस्त है तो फिर क्या वो तेज़ है तो फिर क्या
ये सुस्त है तो फिर क्या वो तेज़ है तो फिर क्या
नेटिव जो है तो फिर क्या अंग्रेज़ है तो फिर क्या
रहना किसी से दब कर है अम्न को ज़रूरी
फिर कोई फ़िरक़ा हैबत-अंगेज़ है तो फिर क्या
रंज ओ ख़ुशी की सब में तक़्सीम है मुनासिब
बाबू जो है तो फिर क्या चंगेज़ है तो फिर क्या
हर रंग में हैं पाते बंदे ख़ुदा के रोज़ी
है पेंटर तो फिर क्या रंगरेज़ है तो फिर क्या
जैसी जिसे ज़रूरत वैसी ही उस की चीज़ें
याँ तख़्त है तो फिर क्या वाँ मेज़ है तो फिर क्या
मफ़क़ूद हैं अब इस के सुनने समझने वाले
मेरा सुख़न नसीहत-आमेज़ है तो फिर क्या
Yun Meri Taba Se Hote Hai Mayani Paida | यूँ मिरी तब्अ’ से होते हैं मआ’नी पैदा
यूँ मिरी तब्अ’ से होते हैं मआ’नी पैदा
जैसे सावन की घटाओं से हो पानी पैदा
क्या ग़ज़ब है निगह-ए-मस्त-ए-मिस-ए-बादा-फ़रोश
शैख़ फ़ानी में हुआ रंग-ए-जवानी पैदा
ये जवानी है कि पाता है जुनूँ जिस से ज़ुहूर
ये न समझो कि जुनूँ से है जवानी पैदा
बे-ख़ुदी में तो ये झगड़े नहीं रहते ऐ होश
तू ने कर रक्खा है इक आलम-ए-फ़ानी पैदा
कोई मौक़ा निकल आए कि बस आँखें मिल जाएँ
राहें फिर आप ही कर लेगी जवानी पैदा
हर तअ’ल्लुक़ मिरा सरमाया है इक नॉवेल का
मेरी हर रात से है एक कहानी पैदा
जंग है जुर्म मोहब्बत है ख़िलाफ़-ए-तहज़ीब
हो चुका वलवला-ए-अह्द-ए-जवानी पैदा
खो गई हिन्द की फ़िरदौस-निशानी ‘अकबर’
काश हो जाए कोई मिल्टन-ए-सानी पैदा
Zid Hai Unhe Poora Mera Armaan Na Karege | ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे
ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे
मुँह से जो नहीं निकली है अब हाँ न करेंगे
क्यूँ ज़ुल्फ़ का बोसा मुझे लेने नहीं देते
कहते हैं कि वल्लाह परेशाँ न करेंगे
है ज़ेहन में इक बात तुम्हारे मुतअल्लिक़
ख़ल्वत में जो पूछोगे तो पिन्हाँ न करेंगे
वाइज़ तो बनाते हैं मुसलमान को काफ़िर
अफ़्सोस ये काफ़िर को मुसलमाँ न करेंगे
क्यूँ शुक्र-गुज़ारी का मुझे शौक़ है इतना
सुनता हूँ वो मुझ पर कोई एहसाँ न करेंगे
दीवाना न समझे हमें वो समझे शराबी
अब चाक कभी जेब ओ गरेबाँ न करेंगे
वो जानते हैं ग़ैर मिरे घर में है मेहमाँ
आएँगे तो मुझ पर कोई एहसाँ न करेंगे
Nazm of Akbar Allahabadi | अकबर इलाहाबादी की नज़्में
Aam Naama – Naama Na Koi Yaar Ka Paigaam Bhejiye | आम-नामा – नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए
ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूँ
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए
मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए
ऐसा न हो कि आप ये लिक्खें जवाब में
तामील होगी पहले मगर दाम भेजिए
ये मौजूदा तरीक़े राही-ए-मुल्क-ए-अदम होंगे
दरबार 1911 | Darbaar 1911
देख आए हम भी दो दिन रह के देहली की बहार
हुक्म-ए-हाकिम से हुआ था इजतिमा-ए-इंतिशार
आदमी और जानवर और घर मुज़य्यन और मशीन
फूल और सब्ज़ा चमक और रौशनी रेल और तार
केरोसिन और बर्क़ और पेट्रोलियम और तारपीन
मोटर और एरोप्लेन और जमघटे और इक़्तिदार
मशरिक़ी पतलूँ में थी ख़िदमत-गुज़ारी की उमंग
मग़रिबी शक्लों से शान-ए-ख़ुद-पसंदी आश्कार
शौकत-ओ-इक़बाल के मरकज़ हुज़ूर-ए-इमपरर
ज़ीनत-ओ-दौलत की देवी इम्प्रेस आली-तबार
बहर-ए-हस्ती ले रहा था बे-दरेग़ अंगड़ाइयाँ
थेम्स की अमवाज जमुना से हुई थीं हम-कनार
इंक़िलाब-ए-दहर के रंगीन नक़्शे पेश थे
थी पए-अहल-ए-बसीरत बाग़-ए-इबरत में बहार
ज़र्रे वीरानों से उठते थे तमाशा देखने
चश्म-ए-हैरत बन गई थी गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार
जामे से बाहर निगाह-ए-नाज़-ए-फ़त्ताहान-ए-हिन्द
हद्द-ए-क़ानूनी के अंदर ऑनरेबलों की क़तार
ख़र्च का टोटल दिलों में चुटकियाँ लेता हुआ
फ़िक्र-ए-ज़ाती में ख़याल-ए-क़ौम ग़ाएब फ़िल-मज़ार
दावतें इनआ’म स्पीचें क़वाइ’द फ़ौज कैम्प
इज़्ज़तें ख़ुशियाँ उम्मीदें एहतियातें ए’तिबार
पेश-रौ शाही थी फिर हिज़-हाईनेस फिर अहल-ए-जाह
बअ’द इस के शैख़ साहब उन के पीछे ख़ाकसार
Ek Boodha Naheef-O-Khasta | एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़
एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़
इक ज़रूरत से जाता था बाज़ार
ज़ोफ-ए-पीरी से खम हुई थी कमर
राह बेचारा चलता था रुक कर
चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी
क़द पे फबती कमान की सूझी
कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल
तूने कितने में ली कमान ये मोल
पीर मर्द-ए-लतीफ़-ओ-दानिश मन्द
हँस के कहने लगा कि ए फ़रज़न्द
पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन
मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान
Jalwa-e-Darbaar-e-Delhi | जल्वा-ए-दरबार-ए-देहली
सर में शौक़ का सौदा देखा
देहली को हम ने भी जा देखा
जो कुछ देखा अच्छा देखा
क्या बतलाएँ क्या क्या देखा
जमुना-जी के पाट को देखा
अच्छे सुथरे घाट को देखा
सब से ऊँचे लाट को देखा
हज़रत ‘डिऊक-कनॉट’ को देखा
पलटन और रिसाले देखे
गोरे देखे काले देखे
संगीनें और भाले देखे
बैंड बजाने वाले देखे
ख़ेमों का इक जंगल देखा
उस जंगल में मंगल देखा
ब्रह्मा और वरंगल देखा
इज़्ज़त ख़्वाहों का दंगल देखा
सड़कें थीं हर कम्प से जारी
पानी था हर पम्प से जारी
नूर की मौजें लैम्प से जारी
तेज़ी थी हर जम्प से जारी
डाली में नारंगी देखी
महफ़िल में सारंगी देखी
बैरंगी बारंगी देखी
दहर की रंगा-रंगी देखी
अच्छे-अच्छों को भटका देखा
भीड़ में खाते झटका देखा
मुँह को अगरचे लटका देखा
दिल दरबार से अटका देखा
हाथी देखे भारी-भरकम
उन का चलना कम कम थम थम
ज़र्रीं झूलें नूर का आलम
मीलों तक वो चम-चम चम-चम
पुर था पहलू-ए-मस्जिद-ए-जामे
रौशनियाँ थीं हर-सू लामे
कोई नहीं था किसी का सामेअ’
सब के सब थे दीद के तामे
सुर्ख़ी सड़क पर कुटती देखी
साँस भी भीड़ में घुटती देखी
आतिश-बाज़ी छुटती देखी
लुत्फ़ की दौलत लुटती देखी
चौकी इक चाै-लख्खी देखी
ख़ूब ही चक्खी-पख्खी देखी
हर-सू ने’मत रक्खी देखी
शहद और दूध की मक्खी देखी
एक का हिस्सा मन्न-ओ-सल्वा
एक का हिस्सा थोड़ा हल्वा
एक का हिस्सा भीड़ और बलवा
मेरा हिस्सा दूर का जल्वा
अवज बरीश राजा देखा
परतव तख़्त-ओ-ताज का देखा
रंग-ए-ज़माना आज का देखा
रुख़ कर्ज़न महराज का देखा
पहुँचे फाँद के सात समुंदर
तहत में उन के बीसों बंदर
हिकमत-ओ-दानिश उन के अंदर
अपनी जगह हर एक सिकंदर
औज-ए-बख़्त-ए-मुलाक़ी उन का
चर्ख़-ए-हफ़्त-तबाक़ी उन का
महफ़िल उन की साक़ी उन का
आँखें मेरी बाक़ी उन का
हम तो उन के ख़ैर-तलब हैं
हम क्या ऐसे ही सब के सब हैं
उन के राज के उम्दा ढब हैं
सब सामान-ए-ऐश-ओ-तरब हैं
एग्ज़ीबीशन की शान अनोखी
हर शय उम्दा हर शय चोखी
अक़्लीदस की नापी जोखी
मन भर सोने की लागत सोखी
जशन-ए-अज़ीम इस साल हुआ है
शाही फोर्ट में बाल हुआ है
रौशन हर इक हॉल हुआ है
क़िस्सा-ए-माज़ी हाल हुआ है
है मशहूर-ए-कूचा-ओ-बर्ज़न
बॉल में नाचें लेडी-कर्ज़न
ताइर-ए-होश थे सब के लरज़न
रश्क से देख रही थी हर ज़न
हॉल में चमकीं आ के यका-यक
ज़र्रीं थी पोशाक झका-झक
महव था उन का औज-ए-समा तक
चर्ख़ पे ज़ोहरा उन की थी गाहक
गो रक़्क़ासा-ए-औज-ए-फ़लक थी
उस में कहाँ ये नोक-पलक थी
इन्द्र की महफ़िल की झलक थी
बज़्म-ए-इशरत सुब्ह तलक थी
की है ये बंदिश ज़ेहन-ए-रसा ने
कोई माने ख़्वाह न माने
सुनते हैं हम तो ये अफ़्साने
जिस ने देखा हो वो जाने
Madarsa Aligrah | मदरसा अलीगढ़
ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
भरे हुए हैं रईस-ज़ादे अमीर-ज़ादे शरीफ़-ज़ादे
लतीफ़ ओ ख़ुश-वज़’अ चुस्त ओ चालाक ओ साफ़ ओ पाकीज़ा शाद-ओ-ख़ुर्रम
तबीअतों में है इन की जौदत दिलों में इन के हैं नेक इरादे
कमाल-ए-मेहनत से पढ़ रहे हैं कमाल-ए-ग़ैरत से पढ़ रहे हैं
सवार मशरिक़ राह में हैं तो मग़रिबी राह में पियादे
हर इक है इन में का बे-शक ऐसा कि आप उसे चाहते हैं जैसा
दिखावे महफ़िल में क़द्द-ए-र’अना जो आप आएँ तो सर झुका दे
फ़क़ीर माँगे तो साफ़ कह दें कि तू है मज़बूत जा कमा खा
क़ुबूल फ़रमाएँ आप दावत तो अपना सरमाया कुल खिला दे
बुतों से इन को नहीं लगावट मिसों की लेते नहीं वो आहट
तमाम क़ुव्वत है सर्फ़-ए-ख्वांदन नज़र के भोले हैं दिल के सादे
नज़र भी आए जो ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ तो समझें ये कोई पॉलीसी है
इलेक्ट्रिक लाइट उस को समझें जो बर्क़-वश कोई कूदे
निकलते हैं कर के ग़ोल-बंदी ब-नाम-ए-तहज़ीब ओ दर्द-मंदी
ये कह के लेते हैं सब से चंदे जो तुम हमें दो तुम्हें ख़ुदा दे
उन्हें इसी बात पर यक़ीं है कि बस यही अस्ल कार-ए-दीं है
इसी से होगा फ़रोग़-ए-क़ौमी इसी से चमकेंगे बाप दादे
मकान-ए-कॉलेज के सब मकीं हैं अभी उन्हें तजरबे नहीं हैं
ख़बर नहीं है कि आगे चल कर है कैसी मंज़िल हैं कैसे जादे
दिलों में इन के हैं नूर-ए-ईमाँ क़वी नहीं है मगर निगहबाँ
हवा-ए-मंतिक़ अदा-ए-तिफ़ली ये शम्अ ऐसा न हो बुझा दे
फ़रेब दे कर निकाले मतलब सिखाए तहक़ीर-ए-दीन-ओ-मज़हब
मिटा दे आख़िर को दीन-ओ-मज़हब नुमूद-ए-ज़ाती को गो बढ़ा दे
यही बस ‘अकबर’ की इल्तिजा है जनाब बारी में ये दुआ है
उलूम ओ हिकमत का दर्स इन को प्रोफ़ेसर दें समझ ख़ुदा दे
Miss Seemi Badan | मिस सीमीं बदन
एक मिस सीमीं बदन से कर लिया लंदन में अक़्द
इस ख़ता पर सुन रहा हूँ ताना-हा-ए-दिल-ख़राश
कोई कहता है कि बस उस ने बिगाड़ी नस्ल-ए-क़ौम
कोई कहता है कि ये है बद-ख़िसाल-ओ-बद-मआश
दिल में कुछ इंसाफ़ करता ही नहीं कोई बुज़ुर्ग
हो के अब मजबूर ख़ुद इस राज़ को करता हूँ फ़ाश
होती थी ताकीद लंदन जाओ अंग्रेज़ी पढ़ो
क़ौम-ए-इंग्लिश से मिलो सीखो वही वज़्अ-ए-तराश
जगमगाते होटलों का जा के नज़्ज़ारा करो
सूप ओ कर्री के मज़े लो छोड़ कर यख़्नी ओ आश
लेडियों से मिल के देखो उन के अंदाज़-ओ-तरीक़
हॉल में नाचो क्लब में जाके खेलो उन से ताश
बादा-ए-तहज़ीब-ए-यूरोप के चढ़ाओ ख़ुम के ख़ुम
एशिया के शीशा-ए-तक़्वा को कर दो पाश पाश
जब अमल इस पर किया परियों का साया हो गया
जिस से था दिल की हरारत को सरासर इन्तेआश
सामने थीं लेडियां ज़ेहरा-वश ओ जादू-नज़र
याँ जवानी की उमंग और उन को आशिक़ की तलाश
उस की चितवन सेहर-आगीं उस की बातें दिल-रुबा
चाल उस की फ़ित्ना-ख़ेज़ उस की निगाहें बर्क़-पाश
वो फ़रोग़-ए-आतिश-ए-रुख़ जिस के आगे आफ़्ताब
इस तरह जैसे कि पेश-ए-शम्अ परवाने की लाश
जब ये सूरत थी तो मुमकिन था कि इक बर्क़-ए-बला
दस्त-ए-सीमीं को बढ़ाती और मैं कहता दूर-बाश?
दोनों जानिब था रगों में जोश-ए-ख़ून-ए-फ़ित्ना-ज़ा
दिल ही था आख़िर नहीं थी बर्फ़ की ये कोई क़ाश
बार बार आता है ‘अकबर’ मेरे दिल में ये ख़याल
हज़रत-ए-सय्यद से जाकर अर्ज़ करता कोई काश
‘दरमियान-ए-क़अर-ए-दरिया तख़्ता-बंदम-कर्दा-ई
बाज़-मी-गोई कि दामन-तर मकुन-हुश्यार-बाश’
Nayi Tehzeeb – Yeh Moujuda Tareeke Raahi-e-Mulk-e-Adam Hoge | नई तहज़ीब – ये मौजूदा तरीक़े राही-ए-मुल्क-ए-अदम होंगे
ये मौजूदा तरीक़े राही-ए-मुल्क-ए-अदम होंगे
नई तहज़ीब होगी और नए सामाँ बहम होंगे
नए उनवान से ज़ीनत दिखाएँगे हसीं अपनी
न ऐसा पेच ज़ुल्फ़ों में न गेसू में ये ख़म होंगे
न ख़ातूनों में रह जाएगी पर्दे की ये पाबंदी
न घूँघट इस तरह से हाजिब-ए-रू-ए-सनम होंगे
बदल जाएगा अंदाज़-ए-तबाए दौर-ए-गर्दूं से
नई सूरत की ख़ुशियाँ और नए असबाब-ए-ग़म होंगे
न पैदा होगी खत-ए-नस्ख़ से शान-ए-अदब-आगीं
न नस्तालीक़ हर्फ़ इस तौर से ज़ेब-ए-रक़म होंगे
ख़बर देती है तहरीक-ए-हवा तबदील-ए-मौसम की
खिलेंगे और ही गुल ज़मज़मे बुलबुल के कम होंगे
अक़ाएद पर क़यामत आएगी तरमीम-ए-मिल्लत से
नया काबा बनेगा मग़रिबी पुतले सनम होंगे
बहुत होंगे मुग़न्नी नग़्मा-ए-तक़लीद यूरोप के
मगर बेजोड़ होंगे इस लिए बे-ताल-ओ-सम होंगे
हमारी इस्तलाहों से ज़बाँ ना-आश्ना होगी
लुग़ात-ए-मग़रिबी बाज़ार की भाषा से ज़म होंगे
बदल जाएगा मेयार-ए-शराफ़त चश्म-ए-दुनिया में
ज़ियादा थे जो अपने ज़ोम में वो सब से कम होंगे
गुज़िश्ता अज़्मतों के तज़्किरे भी रह न जाएँगे
किताबों ही में दफ़्न अफ़्साना-ए-जाह-ओ-हशम होंगे
किसी को इस तग़य्युर का न हिस होगा न ग़म होगा
हुए जिस साज़ से पैदा उसी के ज़ेर-ओ-बम होंगे
तुम्हें इस इंक़िलाब-ए-दहर का क्या ग़म है ऐ ‘अकबर’
बहुत नज़दीक हैं वो दिन कि तुम होगे न हम होंगे
Sab Jaante Hai Ilam Se Hai Zindgi Ki Rooh | सब जानते हैं इल्म से है ज़िंदगी की रूह
सब जानते हैं इल्म से है ज़िंदगी की रूह
बे-इल्म है अगर तो वो इंसाँ है ना तमाम
बे-इल्म-ओ-बे-हुनर है जो दुनिया में कोई क़ौम
नेचर का इक़तिज़ा है रहे बन के वो ग़ुलाम
ता’लीम अगर नहीं है ज़माने के हस्ब-ओ-हाल
फिर क्या उमीद-ए-दौलत-ओ-आराम-ओ-एहतिराम
सय्यद के दिल में नक़्श हो इस ख़याल का
डाली बिना-ए-मदरसा ले कर ख़ुदा का नाम
सदमे उठाए रंज सहे गालियाँ सुनीं
लेकिन न छोड़ा क़ौम के ख़ादिम ने ये काम
दिखला दिया ज़माने को ज़ोर-ए-दिल-ओ-दिमाग़
बतला दिया वो करते हैं करने वाले काम
निय्यत जो थी ब-ख़ैर तो बरकत ख़ुदा ने दी
कॉलेज हुआ दुरुस्त ब-सद शान-ओ-एहतिशाम
सरमाए में कमी थी सहारा कोई न था
सय्यद का दिल था दरपय तकमील-ए-इंतिज़ाम
आख़िर उठा सफ़र को वो मर्द ख़स्ता पए
अहबाब चंद साथ थे ज़ी-इल्म-ओ-ख़ुश-कलाम
क़िस्मत कि रहबरी से मिली मंज़िल-ए-मुराद
फ़रमाँ-रवा-ए-मुल्क-ए-दकन को किया सलाम
हालत दिखाई और ज़रूरत बयान की
ख़ूबी से इल्तिमास किया क़ौम का पयाम
रहम आ गया हुज़ूर को हालत पे क़ौम की
फिर क्या था मौजज़न हुआ दरिया-ए-फ़ैज़-ए-आम
माहाना दो हज़ार किया इक हज़ार से
उम्मीद से ज़ियादा अता थी ये ला-कलाम
‘अकबर’ की ये दुआ है ख़ुदा की जनाब में
ता-हश्र इस रईस-ओ-रियासत को हो क़याम
क्या वक़्त पर हुई है कि बे-एहतिजाज-ए-फ़िक्र
तारीक अपनी आप है फ़य्याज़ी-ए-निज़ाम
Saiyyad Se Aaj Hazrat-e-Vaiz Ne Yeh Kaha | सय्यद से आज हज़रत-ए-वाइ’ज़ ने ये कहा
सय्यद से आज हज़रत-ए-वाइ’ज़ ने ये कहा
चर्चा है जा-ब-जा तिरे हाल-ए-तबाह का
समझा है तू ने नेचर ओ तदबीर को ख़ुदा
दिल में ज़रा असर न रहा ला-इलाह का
हो तुझ से तर्क-ए-सौम-ओ-सलात-ओ-ज़कात-ओ-हज
कुछ डर नहीं जनाब-ए-रिसालत-पनाह का
शैतान ने दिखा के जमाल-ए-उरूस-ए-दहर
बंदा बना दिया है तुझे हुब्ब-ए-जाह का
उस ने दिया जवाब कि मज़हब हो या रिवाज
राहत में जो मुख़िल हो वो काँटा है राह का
अफ़्सोस है कि आप हैं दुनिया से बे-ख़बर
क्या जानिए जो रंग है शाम-ओ-पगाह का
यूरोप का पेश आए अगर आप को सफ़र
गुज़रे नज़र से हाल रेआ’या-ओ-शाह का
वो आब-ओ-ताब-ओ-शौकत-ए-ऐवान-ए-ख़ुसरवी
वो महकमों की शान वो जल्वा सिपाह का
आए नज़र उलूम-ए-जदीदा की रौशनी
जिस से ख़जिल हो नूर रुख़-ए-मेहर-ओ-माह का
दावत किसी अमीर के घर में हो आप की
कम-सिन मिसों से ज़िक्र हो उल्फ़त का चाह का
नौ-ख़ेज़ दिल-फ़रेब गुल-अंदाम नाज़नीं
आरिज़ पे जिन के बार हो दामन निगाह का
रुकिए अगर तो हँस के कहे इक बुत-ए-हसीं
सुन मौलवी ये बात नहीं है गुनाह का
उस वक़्त क़िबला झुक के करूँ आप को सलाम
फिर नाम भी हुज़ूर जो लें ख़ानक़ाह का
पतलून-ओ-कोट-ओ-बंगला-ओ-बिस्कुट की धुन बंधे
सौदा जनाब को भी हो तुर्की कुलाह का
मिम्बर पे यूँ तो बैठ के गोशे में ऐ जनाब
सब जानते हैं वा’ज़ सवाब-ओ-गुनाह का
Poetry of Akbar Allahabadi | अकबर इलाहाबादी की कविता
Gandhinama | गांधीनामा
(1)
इन्क़िलाब आया, नई दुन्याह, नया हंगामा है
शाहनामा हो चुका, अब दौरे गांधीनामा है।
(दुन्याह = दुनिया)
दीद के क़ाबिल अब उस उल्लू का फ़ख्रो नाज़ है
जिस से मग़रिब ने कहा तू ऑनरेरी बाज़ है।
(मग़रिब = पश्चिम, संदर्भ की द़ष्टि से अंग्रेज़ या अंग्रेजी सरकार)
है क्षत्री भी चुप न पट्टा न बांक है
पूरी भी ख़ुश्कच लब है कि घी छ: छटांक है।
गो हर तरफ हैं खेत फलों से भरे हुये
थाली में ख़ुरपुज़ की फ़क़त एक फॉंक है।
(ख़ुरपुज़ = ख़रबूज़ा)
कपड़ा गिरां है सित्र है औरत का आश्कार
कुछ बस नहीं ज़बॉं पे फ़क़त ढांक ढांक है।
(गिरां = मंहगा; सित्र = पर्दा; आश्कार = ख़ुला हुआ)
भगवान का करम हो सोदेशी के बैल पर
लीडर की खींच खांच है, गाँधी की हांक है।
(सोदेशी = स्वदेशी)
अकबर पे बार है यह तमाशाए दिल शिकन
उसकी तो आख़िरत की तरफ ताक-झांक है।
(आख़िरत = परलोक)
महात्मा जी से मिल के देखो, तरीक़ क्यां है, सोभाव क्या है
पड़ी है चक्कमर में अक़्ल सब की बिगाड़ तो है बनाव क्या है
(2)
हमारे मुल्को में सरसब्ज़भ इक़बाले फ़रंगी है
कि ननको ऑपरेशन में भी शाख़ें ख़ान जंगी है।
(इक़बाले = दबदबा; फ़रंगी = अंग्रेज़; शाख़ें = शाख़ा, अनुभाग; जंगी = गृहयुद्ध)
क़ौम से दूरी सही हासिल जब ऑनर हो गया
तन की क्यार पर्वा रही जब आदमी ‘सर’ हो गया
यही गाँधी से कहकर हम तो भागे
‘क़दम जमते नहीं साहब के आगे’।
वह भागे हज़रते गाँधी से कह के
‘मगर से बैर क्यों दर्या में रह के’।
(3)
इस सोच में हमारे नासेह टहल रहे हैं
गॉंधी तो वज्दा में हैं यह क्यों उछल रहे हैं।
(नासेह = उपदेशक; वज्दा= आनंदातिरेक)
नश्वो नमाए कौंसिल जिनको नहीं मुयस्सउर
पब्लिक की जय में उनके मज़्मून पल रहे हैं।
(नमाए = विकास और वृद्धि)
हैं वफ़्द और अपीलें, फ़र्याद और दलीलें
और किबरे मग़रिबी के अर्मां निकल रहे हैं।
(वफ़्द = शिष्ट मण्डल ; मग़रिबी = यूरोपीय वृद्धावस्था्)
यह सारे कारख़ाने अल्लामह के हैं अकबर
क्या जाए दमज़दन है यूँ ही यह चल रही है।
अगर चे शैख़ो बरहमन उनके ख़िलाफ़ इस वक़्त उबल रहे हैं
निगाहे तह्क़ीक़ से जो देखो उन्हींह के सांचे में ढल रहे हैं।
(तह्क़ीक़ = सूक्ष्म दृष्टि)
हम ताजिर हों, तुम नौकर हो, इस बात पे सब की अक़्ल है गुम
अंग्रेज़ की तो ख़्वाहिश है यही, बाज़ार में हम, दरबार में तुम।
सुन लो यह भेद, मुल्की तो गाँधी के साथ है
तुम क्याह हो? सिर्फ़ पेट हो, वह क्या है? हाथ है।
(4)
न मौलाना में लग्ज़ि्श है न साज़िश की है गाँधी ने
चलाया एक रुख़ उनको फ़क़त मग़रिब की आंधी ने
(मग़रिब = यूरोप)
लश्कारे गाँधी को हथियारों की कुछ हाजत नहीं
हॉं मगर बे इन्तिहा सब्रो क़नाअत चाहिए
(क़नाअत = धैर्य एवं संतोष)
क्योंग दिले गाँधी से साहब का अदब जाता रहा
बोले – क्योंग साहब के दिल से ख़ौफ़े रब जाता रहा।
यही मर्ज़ी ख़ुदा की थी हम उनके चार्ज में आये
सरे तस्लीीम ख़म है जो मिज़ाजे जार्ज में आये।
मिल न सकती मेम्बलरी तो जेल मैं भी झेलता
बे सकत हूँ वर्न: कोई खेल मैं भी खेलता।
किसी की चल सकेगी क्या अगर क़ुर्बे कयामत है
मगर इस वक्तस इधर चरख़ा, उधर उनकी वज़ारत है।
(क़ुर्बे = समीपता)
भाई मुस्लिम रंगे गर्दूं देख कर जागे तो हैं
ख़ैर हो क़िब्ले की लंदन की तरफ भागे तो हैं।
(गर्दूं = आसमान का रंग)
(5)
कहते हैं बुत देखें कैसा रहता है उनका सोभाव
‘हार कर सबसे मियॉं हमरे गले लागे तो हैं’।
पूछता हूँ “आप गाँधी को पकड़ते क्यों नहीं”
कहते हैं “आपस ही में तुम लोग लड़ते क्यों नहीं”।
मय फरोशी को तो रोकूँगा मैं बाग़ी ही सही
सुर्ख़ पानी से है बेहतर मुझे काला पानी।
किया तलब जो स्वहराज भाई गाँधी ने
बची यह धूम कि ऐसे ख़याल की क्याई बात!
कमाले प्याेर से अंग्रेज़ ने कहा उनसे
हमीं तुम्हाकरे हैं फिर मुल्कोरमाल की क्या बात।
(6)
हुक्काम से नियाज़ न गाँधी से रब्तह है
अकबर को सिर्फ़ नज़्में मज़ामीं का ख़ब्त है।
(नियाज़ = मेल ; रब्तह = संबंध)
हंसता नहीं वह देख के इस कूद फांद को
दिल में तो क़हक़हे हैं मगर लब पे ज़ब्तत है।
पतलून के बटन से धोती का पेच अच्छा
दोनों से वह जो समझे दुन्याच को हेच अच्छा।
(दुन्याच = दुनिया; हेच = तुच्छा)
चोर के भाई गिरहकट तो सुना करते थे
अब यह सुनते हैं एडीटर के भाई लीडर।
(7)
नहीं हरगिज़ मुनासिब पेशबीनी दौरे गाँधी में
जो चलता है वह आंखें बंद कर लेता है आंधी में।
(पेशबीनी = दूरअंदेशी)
उनसे दिल मिलने की अकबर कोई सूरत ही नहीं
अक़्लमंदों को मुहब्बबत की ज़रूरत ही नहीं।
इस के सिवा अब क्या कहूँ मुझको किसी से कद नहीं
कहना जो था वह कह चुका बकने की कोई हद नहीं।
(कद = रंज)
ख़ुदा के बाब में क्या आप मुझसे बहस करते हैं
ख़ुदा वह है कि जिसके हुक्म से साहब भी मरते हैं।
मगर इस शेर को मैं ग़ालिबन क़ाइम न रखूँगा
मचेगा ग़ुल ख़ुदा को आप क्यों बदनाम करते हैं।
ता’लीम जो दी जाती है हमें वह क्या है, फक़त बाज़ारी है
जो अक़्ल सिखाई जाती है वह क्याह है फ़कत सरकारी है।
(8)
शैख़ जी के दोनों बेटे बाहुनर पैदा हुये
एक हैं ख़ुफ़िया पुलीस में एक फांसी पा गये।
नाजुक बहुत है वक़्त ख़मोशी से रब्त कर
ग़ुस्साह हो, आह हो कि हंसी सब को जब़्त कर।
(रब्त = संबंध, लगाव; जब़्त = नियंत्रित)
मिल से कह दो कि तुझमें ख़ामी है
ज़िन्दागी ख़ुद ही इक ग़ुलामी है।
(मिल = जॉन स्टुतअर्ट मिल)
Funny Poetry of Akbar Allahabadi | अकबर इलाहाबादी की हास्य शायरी
Barq-e-Kalisa | बर्क़-ए-कलीसा
रात उस मिस से कलीसा में हुआ मैं दो-चार
हाए वो हुस्न वो शोख़ी वो नज़ाकत वो उभार
ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ में वो सज-धज कि बलाएँ भी मुरीद
क़दर-ए-रअना में वो चम-ख़म कि क़यामत भी शहीद
आँखें वो फ़ित्ना-ए-दौराँ कि गुनहगार करें
गाल वो सुब्ह-ए-दरख़्शाँ कि मलक प्यार करें
गर्म तक़रीर जिसे सुनने को शोला लपके
दिल-कश आवाज़ कि सुन कर जिसे बुलबुल झपके
दिलकशी चाल में ऐसी कि सितारे रुक जाएँ
सर-कशी नाज़ में ऐसी कि गवर्नर झुक जाएँ
आतिश-ए-हुस्न से तक़वे को जलाने वाली
बिजलियाँ लुत्फ़-ए-तबस्सुम से गिराने वाली
पहलू-ए-हुस्न-ए-बयाँ शोख़ी-ए-तक़रीर में ग़र्क़
तुर्की ओ मिस्र ओ फ़िलिस्तीन के हालात में बर्क़
पिस गया लूट गया दिल में सकत ही न रही
सुर थे तमकीन के जिस गत में वो गत ही न रही
ज़ब्त के अज़्म का उस वक़्त असर कुछ न हुआ
या-हफ़ीज़ो का किया विर्द मगर कुछ न हुआ
अर्ज़ की मैं ने कि ऐ गुलशन-ए-फ़ितरत की बहार
दौलत ओ इज़्ज़त ओ ईमाँ तिरे क़दमों पे निसार
तू अगर अहद-ए-वफ़ा बाँध के मेरी हो जाए
सारी दुनिया से मिरे क़ल्ब को सेरी हो जाए
शौक़ के जोश में मैं ने जो ज़बाँ यूँ खोली
नाज़-ओ-अंदाज़ से तेवर को चढ़ा कर बोली
ग़ैर-मुमकिन है मुझे उन्स मुसलमानों से
बू-ए-ख़ूँ आती है इस क़ौम के इंसानों से
लन-तरानी की ये लेते हैं नमाज़ी बन कर
हमले सरहद पे किया करते हैं ग़ाज़ी बन कर
कोई बनता है जो मेहदी तो बिगड़ जाते हैं
आग में कूदते हैं तोप से लड़ जाते हैं
गुल खिलाए कोई मैदाँ में तो इतरा जाएँ
पाएँ सामान-ए-इक़ामत तो क़यामत ढाएँ
मुतमइन हो कोई क्यूँ-कर कि ये हैं नेक-निहाद
है हनूज़ उन की रगों में असर-ए-हुक्म-ए-जिहाद
दुश्मन-ए-सब्र की नज़रों में लगावट आई
कामयाबी की दिल-ए-ज़ार ने आहट पाई
अर्ज़ की मैं ने कि ऐ लज़्ज़त-ए-जाँ राहत-ए-रूह
अब ज़माने पे नहीं है असर-ए-आदम-ओ-नूह
शजर-ए-तूर का इस बाग़ में पौदा ही नहीं
गेसू-ए-हूर का इस दौर में सौदा ही नहीं
अब कहाँ ज़ेहन में बाक़ी हैं बुर्राक़-ओ-रफ़रफ़
टिकटिकी बंध गई है क़ौम की इंजन की तरफ़
हम में बाक़ी नहीं अब ख़ालिद-ए-जाँ-बाज़ का रंग
दिल पे ग़ालिब है फ़क़त हाफ़िज़-ए-शीराज़ का रंग
याँ न वो नारा-ए-तकबीर न वो जोश-ए-सिपाह
सब के सब आप ही पढ़ते रहें सुब्हान-अल्लाह
जौहर-ए-तेग़-ए-मुजाहिद तिरे अबरू पे निसार
नूर ईमाँ का तिरे आईना-ए-रू पे निसार
उठ गई सफ़्हा-ए-ख़ातिर से वो बहस-ए-बद-ओ-नेक
दो दिले हो रहे हैं कहते हैं अल्लाह को एक
मौज कौसर की कहाँ अब है मिरे बाग़ के गिर्द
मैं तो तहज़ीब में हूँ पीर-ए-मुग़ाँ का शागिर्द
मुझ पे कुछ वज्ह-ए-इताब आप को ऐ जान नहीं
नाम ही नाम है वर्ना मैं मुसलमान नहीं
जब कहा साफ़ ये मैं ने कि जो हो साहब-ए-फ़हम
तो निकालो दिल-ए-नाज़ुक से ये शुबह ये वहम
मेरे इस्लाम को इक क़िस्सा-ए-माज़ी समझो
हँस के बोली कि तो फिर मुझ को भी राज़ी समझो
Farzi Latifa | फ़र्ज़ी लतीफ़ा
ख़ुदा हाफ़िज़ मुसलमानों का अकबर
मुझे तो इन की ख़ुश-हाली से है यास
ये आशिक़ शाहिद-ए-मक़्सूद के हैं
न जाएँगे व-लेकिन सई के पास
सुनाऊँ तुम को इक फ़र्ज़ी लतीफ़ा
किया है जिस को मैं ने ज़ेब-ए-क़िर्तास
कहा मजनूँ से ये लैला की माँ ने
कि बेटा तू अगर कर ले एम-ए पास
तो फ़ौरन ब्याह दूँ लैला को तुझ से
बिला दिक़्क़त मैं बन जाऊँ तिरी सास
कहा मजनूँ ने ये अच्छी सुनाई
कुजा आशिक़ कुजा कॉलेज की बकवास
íकुजा ये फ़ितरती जोश-ए-तबीअ’त
कुजा ठूँसी हुई चीज़ों का एहसास
बड़ी बी आप को क्या हो गया है
हिरन पे लादी जाती है कहीं घास
ये अच्छी क़द्रदानी आप ने की
मुझे समझा है कोई हर चरण दास
दिल अपना ख़ून करने को हूँ मौजूद
नहीं मंज़ूर मग़्ज़-ए-सर का आमास
यही ठहरी जो शर्त-ए-वस्ल-ए-लैला
तो इस्तीफ़ा मिरा बा-हसरत-ओ-यास