Leo Tolstoy – Dayamaya Ki Daya | लेव तोल्सतोय – दयामय की दया | Story | Hindi Kahani | Translated by Munshi Premchand
Hindi Kala presents Russian Author Leo Tolstoy Story Dayamaya Ki Daya | लेव तोल्सतोय – दयामय की दया in Hindi translated by Munshi Premchand. Please read this story and share your views in the comments.

Leo Tolstoy Story Dayamaya Ki Daya | लेव तोल्सतोय – दयामय की दया
किसी समय एक मनुष्य ऐसा पापी था कि अपने 70 वर्ष के जीवन में उसने एक भी अच्छा काम नहीं किया था। नित्य पाप करता था, लेकिन मरते समय उसके मन में ग्लानि हुई और रो-रोकर कहने लगा –
हे भगवान्! मुझ पापी का बेड़ा पार कैसे होगा? आप भक्त-वत्सल, कृपा और दया के समुद्र हो, क्या मुझ जैसे पापी को क्षमा न करोगे?
इस पश्चात्ताप का यह फल हुआ कि वह नरक में गया, स्वर्ग के द्वार पर पहुँचा दिया गया। उसने कुंडी खड़खड़ाई। भीतर से आवाज आई – स्वर्ग के द्वार पर कौन खड़ा है? चित्रगुप्त, इसने क्या-क्या कर्म किए हैं?
चित्रगुप्त – महाराज, यह बड़ा पापी है। जन्म से लेकर मरण-पर्यंत इसने एक भी शुभ कर्म नहीं किया।
भीतर से – ‘जाओ, पापियों को स्वर्ग में आने की आज्ञा नहीं हो सकती।’
मनुष्य – ‘महाशय, आप कौन हैं?
भीतर – योगेश्वर।
मनुष्य – योगेश्वर, मुझ पर दया कीजिए और जीव की अज्ञानता पर विचार कीजिए। आप ही अपने मन में सोचिए कि किस कठिनाई से आपने मोक्ष पद प्राप्त किया है। माया-मोह से रहित होकर मन को शुद्ध करना क्या कुछ खेल है? निस्संदेह मैं पापी हूं, परंतु परमात्मा दयालु हैं, मुझे क्षमा करेंगे।
भीतर की आवाज बंद हो गई। मनुष्य ने फिर कुंडी खटखटाई।
भीतर से – ‘जाओ, तुम्हारे सरीखे पापियों के लिए स्वर्ग नहीं बना है।
मनुष्य – महाराज, आप कौन हैं?
भीतर से – बुद्ध।
मनुष्य – महाराज, केवल दया के कारण आप अवतार कहलाए। राज-पाट, धन-दौलत सब पर लात मार कर प्राणिमात्र का दुख निवारण करने के हेतु आपने वैराग्य धारण किया, आपके प्रेममय उपदेश ने संसार को दयामय बना दिया। मैंने माना कि मैं पापी हूँ; परन्तु अंत समय प्रेम का उत्पन्न होना निष्फल नहीं हो सकता।
बुद्ध महाराज मौन हो गए।
पापी ने फिर द्वार हिलाया।
भीतर से – कौन है?
चित्रगुप्त – स्वामी, यह बड़ा दुष्ट है।
भीतर से – जाओ, भीतर आने की आज्ञा नहीं।
पापी – महाराज, आपका नाम?
भीतर से – कृष्ण।
पापी – (अति प्रसन्नता से) अहा हा! अब मेरे भीतर चले जाने में कोई संदेह नहीं। आप स्वयं प्रेम की मूर्ति हैं, प्रेम-वश होकर आप क्या नाच नाचे हैं, अपनी कीर्ति को विचारिए, आप तो सदैव प्रेम के वशीभूत रहते हैं।
आप ही का उपदेश तो है – ‘हरि को भजे सो हरि का होई,’ अब मुझे कोई चिंता नहीं।
स्वर्ग का द्वार खुल गया और पापी भीतर चला गया।
(अनुवाद: प्रेमचंद)
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