Hindi Kala presents famous Pakistani Shayar Jaun Elia Shayari, Poetry, Ghazals and Nazm in Hindi with English Lyrics & Translation of few selected ones. Collection of his all-famous Ghazals & Nazm and Shayari.
Jaun Elia’s Ghazals | जॉन एलिया की ग़ज़लें
आदमी वक़्त पर गया होगा | Aadmi Waqt Par Gaya Hoga
आदमी वक़्त पर गया होगा
वक़्त पहले गुज़र गया होगा
वो हमारी तरफ़ न देख के भी
कोई एहसान धर गया होगा
ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ
आज हर शख़्स मर गया होगा
शाम तेरे दयार में आख़िर
कोई तो अपने घर गया होगा
मरहम-ए-हिज्र था अजब इक्सीर
अब तो हर ज़ख़्म भर गया होगा
आगे असबे खूनी चादर और खूनी परचम निकले | Aage Asbe Khooni Chaadar Aur Khooni Parcham Nikle
आगे असबे खूनी चादर और खूनी परचम निकले
जैसे निकला अपना जनाज़ा ऐसे जनाज़े कम निकले
दौर अपनी खुश-दर्दी रात बहुत ही याद आया
अब जो किताबे शौक निकाली सारे वरक बरहम निकले
है ज़राज़ी इस किस्से की, इस किस्से को खतम करो
क्या तुम निकले अपने घर से, अपने घर से हम निकले
मेरे कातिल, मेरे मसिहा, मेरी तरहा लासनी है
हाथो मे तो खंजर चमके, जेबों से मरहम निकले
‘जॉन’ शहादतजादा हूँ मैं और खूनी दिल निकला हूँ
मेरा जूनू उसके कूचे से कैसे बेमातम निकले
आज भी तिश्नगी की क़िस्मत में | Aaj Bhi Tishnagi Ki Kismat Mein
आज भी तिश्नगी की क़िस्मत में
सम-ए-क़ातिल है सलसबील नहीं
सब ख़ुदा के वकील हैं लेकिन
आदमी का कोई वकील नहीं
है कुशादा अज़ल से रू-ए-ज़मीं
हरम-ओ-दैर बे-फ़सील नहीं
ज़िंदगी अपने रोग से है तबाह
और दरमाँ की कुछ सबील नहीं
तुम बहुत जाज़िब-ओ-जमील सही
ज़िंदगी जाज़िब-ओ-जमील नहीं
न करो बहस हार जाओगी
हुस्न इतनी बड़ी दलील नहीं
आज लब-ए-गुहर-फ़िशाँ आप ने वा नहीं किया | Aaj Lab-e-Guhar-Fisha Aapn Ne Vaa Nahi Kiya
आज लब-ए-गुहर-फ़िशाँ आप ने वा नहीं किया
तज़्किरा-ए-ख़जिस्ता-ए-आब-ओ-हवा नहीं किया
कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई
तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया
जाने तिरी नहीं के साथ कितने ही जब्र थे कि थे
मैं ने तिरे लिहाज़ में तेरा कहा नहीं किया
मुझ को ये होश ही न था तू मिरे बाज़ुओं में है
या’नी तुझे अभी तलक मैं ने रिहा नहीं किया
तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन
मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया
हाँ वो निगाह-ए-नाज़ भी अब नहीं माजरा-तलब
हम ने भी अब की फ़स्ल में शोर बपा नहीं किया
आख़िरी बार आह कर ली है | Aakhri Baar Aah Kar Li Hai
आख़िरी बार आह कर ली है
मैं ने ख़ुद से निबाह कर ली है
अपने सर इक बला तो लेनी थी
मैं ने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली है
दिन भला किस तरह गुज़ारोगे
वस्ल की शब भी अब गुज़र ली है
जाँ-निसारों पे वार क्या करना
मैं ने बस हाथ में सिपर ली है
जो भी माँगो उधार दूँगा मैं
उस गली में दुकान कर ली है
मेरा कश्कोल कब से ख़ाली था
मैं ने इस में शराब भर ली है
और तो कुछ नहीं किया मैं ने
अपनी हालत तबाह कर ली है
शैख़ आया था मोहतसिब को लिए
मैं ने भी उन की वो ख़बर ली है
आप अपना ग़ुबार थे हम तो | Aap Apna Gubaar The Hum To
आप अपना ग़ुबार थे हम तो
याद थे यादगार थे हम तो
पर्दगी हम से क्यूँ रखा पर्दा
तेरे ही पर्दा-दार थे हम तो
वक़्त की धूप में तुम्हारे लिए
शजर-ए-साया-दार थे हम तो
उड़े जाते हैं धूल के मानिंद
आँधियों पर सवार थे हम तो
हम ने क्यूँ ख़ुद पे ए’तिबार किया
सख़्त बे-ए’तिबार थे हम तो
शर्म है अपनी बार बारी की
बे-सबब बार बार थे हम तो
क्यूँ हमें कर दिया गया मजबूर
ख़ुद ही बे-इख़्तियार थे हम तो
तुम ने कैसे भुला दिया हम को
तुम से ही मुस्तआ’र थे हम तो
ख़ुश न आया हमें जिए जाना
लम्हे लम्हे पे बार थे हम तो
सह भी लेते हमारे ता’नों को
जान-ए-मन जाँ-निसार थे हम तो
ख़ुद को दौरान-ए-हाल में अपने
बे-तरह नागवार थे हम तो
तुम ने हम को भी कर दिया बरबाद
नादिर-ए-रोज़गार थे हम तो
हम को यारों ने याद भी न रखा
‘जौन’ यारों के यार थे हम तो
अब जुनूँ कब किसी के बस में है | Ab Junoon Kab Kisi Ke Bas Mein Hai
अब जुनूँ कब किसी के बस में है
उसकी ख़ुशबू नफ़स-नफ़स में है
हाल उस सैद का सुनाईए क्या
जिसका सैयाद ख़ुद क़फ़स में है
क्या है गर ज़िन्दगी का बस न चला
ज़िन्दगी कब किसी के बस में है
ग़ैर से रहियो तू ज़रा होशियार
वो तेरे जिस्म की हवस में है
बाशिकस्ता बड़ा हुआ हूँ मगर
दिल किसी नग़्मा-ए-जरस में है
‘जॉन’ हम सबकी दस्त-रस में है
वो भला किसकी दस्त-रस में है
अब किसी से मिरा हिसाब नहीं | Ab Kisi Se Mera Hisaab Nahi
अब किसी से मिरा हिसाब नहीं
मेरी आँखों में कोई ख़्वाब नहीं
ख़ून के घूँट पी रहा हूँ मैं
ये मिरा ख़ून है शराब नहीं
मैं शराबी हूँ मेरी आस न छीन
तू मिरी आस है सराब नहीं
नोच फेंके लबों से मैं ने सवाल
ताक़त-ए-शोख़ी-ए-जवाब नहीं
अब तो पंजाब भी नहीं पंजाब
और ख़ुद जैसा अब दो-आब नहीं
ग़म अबद का नहीं है आन का है
और इस का कोई हिसाब नहीं
बूदश इक रू है एक रू या’नी
इस की फ़ितरत में इंक़लाब नहीं
अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था | Ab Woh Ghar Ik Veerana Tha Bas Veerana Zinda Tha
अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था
सब आँखें दम तोड़ चुकी थीं और मैं तन्हा ज़िंदा था
सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में
हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था
वो जो कबूतर उस मूखे में रहते थे किस देस उड़े
एक का नाम नवाज़िंदा था और इक का बाज़िंदा था
वो दोपहर अपनी रुख़्सत की ऐसा-वैसा धोका थी
अपने अंदर अपनी लाश उठाए मैं झूटा ज़िंदा था
थीं वो घर रातें भी कहानी वा’दे और फिर दिन गिनना
आना था जाने वाले को जाने वाला ज़िंदा था
दस्तक देने वाले भी थे दस्तक सुनने वाले भी
था आबाद मोहल्ला सारा हर दरवाज़ा ज़िंदा था
पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी
आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था
अभी फ़रमान आया है वहाँ से | Abhi Farmaan Aaya Hai Wahan Se
अभी फ़रमान आया है वहाँ से
कि हट जाऊँ मैं अपने दरमियाँ से
यहाँ जो है तनफ़्फ़ुस ही में गुम है
परिंदे उड़ रहे हैं शाख़-ए-जाँ से
दरीचा बाज़ है यादों का और मैं
हवा सुनता हूँ पेड़ों की ज़बाँ से
ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का
तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से
था अब तक मा’रका बाहर का दरपेश
अभी तो घर भी जाना है यहाँ से
फुलाँ से थी ग़ज़ल बेहतर फुलाँ की
फुलाँ के ज़ख़्म अच्छे थे फुलाँ से
ख़बर क्या दूँ मैं शहर-ए-रफ़्तगाँ की
कोई लौटे भी शहर-ए-रफ़्तगाँ से
यही अंजाम क्या तुझ को हवस था
कोई पूछे तो मीर-ए-दास्ताँ से
अभी इक शोर सा उठा है कहीं | Abhi Ik Shor Sa Utha Hai Kahin
अभी इक शोर सा उठा है कहीं
कोई ख़ामोश हो गया है कहीं
है कुछ ऐसा कि जैसे ये सब कुछ
इस से पहले भी हो चुका है कहीं
तुझ को क्या हो गया कि चीज़ों को
कहीं रखता है ढूँढता है कहीं
जो यहाँ से कहीं न जाता था
वो यहाँ से चला गया है कहीं
आज शमशान की सी बू है यहाँ
क्या कोई जिस्म जल रहा है कहीं
हम किसी के नहीं जहाँ के सिवा
ऐसी वो ख़ास बात क्या है कहीं
तू मुझे ढूँड मैं तुझे ढूँडूँ
कोई हम में से रह गया है कहीं
कितनी वहशत है दरमियान-ए-हुजूम
जिस को देखो गया हुआ है कहीं
मैं तो अब शहर में कहीं भी नहीं
क्या मिरा नाम भी लिखा है कहीं
इसी कमरे से कोई हो के विदाअ’
इसी कमरे में छुप गया है कहीं
मिल के हर शख़्स से हुआ महसूस
मुझ से ये शख़्स मिल चुका है कहीं
ऐ कू-ए-यार तेरे ज़माने गुज़र गए | Ae Koo-e-Yaar Tere Zamane Gujar Gaye
ऐ कू-ए-यार तेरे ज़माने गुज़र गए
जो अपने घर से आए थे वो अपने घर गए
अब कौन ज़ख़्म ओ ज़हर से रक्खेगा सिलसिला
जीने की अब हवस है हमें हम तो मर गए
अब क्या कहूँ कि सारा मोहल्ला है शर्मसार
मैं हूँ अज़ाब में कि मिरे ज़ख़्म भर गए
हम ने भी ज़िंदगी को तमाशा बना दिया
उस से गुज़र गए कभी ख़ुद से गुज़र गए
था रन भी ज़िंदगी का अजब तुर्फ़ा माजरा
या’नी उठे तो पाँव मगर ‘जौन’ सर गए
ऐ सुब्ह मैं अब कहाँ रहा हूँ | Ae Subh Main Ab Kahan Raha Hoon
ऐ सुब्ह मैं अब कहाँ रहा हूँ
ख़्वाबों ही में सर्फ़ हो चुका हूँ
सब मेरे बग़ैर मुतमइन हों
मैं सब के बग़ैर जी रहा हूँ
क्या है जो बदल गई है दुनिया
मैं भी तो बहुत बदल गया हूँ
गो अपने हज़ार नाम रख लूँ
पर अपने सिवा मैं और क्या हूँ
मैं जुर्म का ए’तिराफ़ कर के
कुछ और है जो छुपा गया हूँ
मैं और फ़क़त उसी की ख़्वाहिश
अख़्लाक़ में झूट बोलता हूँ
इक शख़्स जो मुझ से वक़्त ले कर
आज आ न सका तो ख़ुश हुआ हूँ
हर शख़्स से बे-नियाज़ हो जा
फिर सब से ये कह कि मैं ख़ुदा हूँ
चरके तो तुझे दिए हैं मैं ने
पर ख़ून भी मैं ही थूकता हूँ
रोया हूँ तो अपने दोस्तों में
पर तुझ से तो हँस के ही मिला हूँ
ऐ शख़्स मैं तेरी जुस्तुजू से
बेज़ार नहीं हूँ थक गया हूँ
मैं शम’-ए-सहर का नग़्मा-गर था
अब थक के कराहने लगा हूँ
कल पर ही रखो वफ़ा की बातें
मैं आज बहुत बुझा हुआ हूँ
कोई भी नहीं है मुझ से नादिम
बस तय ये हुआ कि मैं बुरा हूँ
ऐ वस्ल कुछ यहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ | Ae Vasl Kuch Yahan Na Hua Kuch Nahi Hua
ऐ वस्ल कुछ यहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
उस जिस्म की मैं जाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
तू आज मेरे घर में जो मेहमाँ है ईद है
तू घर का मेज़बाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
खोली तो है ज़बान मगर इस की क्या बिसात
मैं ज़हर की दुकाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
क्या एक कारोबार था वो रब्त-ए-जिस्म-ओ-जाँ
कोई भी राएगाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
कितना जला हुआ हूँ बस अब क्या बताऊँ मैं
आलम धुआँ धुआँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
देखा था जब कि पहले-पहल उस ने आईना
उस वक़्त मैं वहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
वो इक जमाल जलवा-फ़िशाँ है ज़मीं ज़मीं
मैं ता-ब-आसमाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
मैं ने बस इक निगाह में तय कर लिया तुझे
तू रंग-ए-बेकराँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
गुम हो के जान तू मिरी आग़ोश-ए-ज़ात में
बे-नाम-ओ-बे-निशाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
हर कोई दरमियान है ऐ माजरा-फ़रोश
मैं अपने दरमियाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
ऐश-ए-उम्मीद ही से ख़तरा है | Aish-e-Ummeed Hi Se Khatra Hai
ऐश-ए-उम्मीद ही से ख़तरा है
दिल को अब दिल-दही से ख़तरा है
है कुछ ऐसा कि उस की जल्वत में
हमें अपनी कमी से ख़तरा है
जिस के आग़ोश का हूँ दीवाना
उस के आग़ोश ही से ख़तरा है
याद की धूप तो है रोज़ की बात
हाँ मुझे चाँदनी से ख़तरा है
है अजब कुछ मुआ’मला दरपेश
अक़्ल को आगही से ख़तरा है
शहर-ए-ग़द्दार जान ले कि तुझे
एक अमरोहवी से ख़तरा है
है अजब तौर हालत-ए-गिर्या
कि मिज़ा को नमी से ख़तरा है
हाल ख़ुश लखनऊ का दिल्ली का
बस उन्हें ‘मुसहफ़ी’ से ख़तरा है
आसमानों में है ख़ुदा तन्हा
और हर आदमी से ख़तरा है
मैं कहूँ किस तरह ये बात उस से
तुझ को जानम मुझी से ख़तरा है
आज भी ऐ कनार-ए-बान मुझे
तेरी इक साँवली से ख़तरा है
उन लबों का लहू न पी जाऊँ
अपनी तिश्ना-लबी से ख़तरा है
‘जौन’ ही तो है ‘जौन’ के दरपय
‘मीर’ को ‘मीर’ ही से ख़तरा है
अब नहीं कोई बात ख़तरे की
अब सभी को सभी से ख़तरा है
अजब हालत हमारी हो गई है | Ajab Haalat Hamari Ho Gayi Hai
अजब हालत हमारी हो गई है
ये दुनिया अब तुम्हारी हो गई है
सुख़न मेरा उदासी है सर-ए-शाम
जो ख़ामोशी पे तारी हो गई है
बहुत ही ख़ुश है दिल अपने किए पर
ज़माने-भर में ख़्वारी हो गई है
वो नाज़ुक-लब है अब जाने ही वाला
मिरी आवाज़ भारी हो गई है
दिल अब दुनिया पे ला’नत कर कि इस की
बहुत ख़िदमत-गुज़ारी हो गई है
यक़ीं मा’ज़ूर है अब और गुमाँ भी
बड़ी बे-रोज़-गारी हो गई है
वो इक बाद-ए-शुमाली-रंग जो थी
शमीम उस की सवारी हो गई है
मिरे पास आ के ख़ंजर भोंक दे तू
बहुत नेज़ा-गुज़ारी हो गई है
अजब इक तौर है जो हम सितम ईजाद रखें | Ajab Ik Taur Hai Jo Hum Sitam Ijaad Rakhe
अजब इक तौर है जो हम सितम ईजाद रखें
कि न उस शख़्स को भूलें न उसे याद रखें
अहद इस कूचा-ए-दिल से है सो उस कूचे में
है कोई अपनी जगह हम जिसे बरबाद रखें
क्या कहें कितने ही नुक्ते हैं जो बरते न गए
ख़ुश-बदन इश्क़ करें और हमें उस्ताद रखें
बे-सुतूँ इक नवाही में है शहर-ए-दिल की
तेशा इनआ’म करें और कोई फ़रहाद रखें
आशियाना कोई अपना नहीं पर शौक़ ये है
इक क़फ़स लाएँ कहीं से कोई सय्याद रखें
हम को अन्फ़ास की अपने है इमारत करनी
इस इमारत की लबों पर तिरे बुनियाद रखें
अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे | Akhlaak Na Bartege Mudara Na Karege
अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे
अब हम किसी शख़्स की परवाह न करेंगे
कुछ लोग कई लफ़्ज़ ग़लत बोल रहे हैं
इसलाह मगर हम भी अब इसलाह न करेंगे
कमगोई के एक वस्फ़-ए-हिमाक़त है बहर तो
कमगोई को अपनाएँगे चहका न करेंगे
अब सहल पसंदी को बनाएँगे वातिरा
ता देर किसी बाब में सोचा न करेंगे
ग़ुस्सा भी है तहज़ीब-ए-तआल्लुक़ का तलबगार
हम चुप हैं भरे बैठे हैं गुस्सा न करेंगे
कल रात बहुत ग़ौर किया है सो हम ए “जॉन”
तय कर के उठे हैं के तमन्ना न करेंगे
अपना ख़ाका लगता हूँ | Apna Khaaka Lagta Hoon
अपना ख़ाका लगता हूँ
एक तमाशा लगता हूँ
आईनों को ज़ंग लगा
अब मैं कैसा लगता हूँ
अब मैं कोई शख़्स नहीं
उस का साया लगता हूँ
सारे रिश्ते तिश्ना हैं
क्या मैं दरिया लगता हूँ
उस से गले मिल कर ख़ुद को
तनहा तनहा लगता हूँ
ख़ुद को मैं सब आँखों में
धुँदला धुँदला लगता हूँ
मैं हर लम्हा इस घर से
जाने वाला लगता हूँ
क्या हुए वो सब लोग के मैं
सूना सूना लगता हूँ
मसलहत इस में क्या है मेरी
टूटा फूटा लगता हूँ
क्या तुम को इस हाल में भी
मैं दुनिया का लगता हूँ
कब का रोगी हूँ वैसे
शहर-ए-मसीहा लगता हूँ
मेरा तालू तर कर दो
सच-मुच प्यासा लगता हूँ
मुझ से कमा लो कुछ पैसे
ज़िंदा मुर्दा लगता हूँ
मैं ने सहे हैं मक्र अपने
अब बे-चारा लगता हूँ
अपने सब यार काम कर रहे हैं | Apne Sab Yaar Kaam Kar Rahe Hai
अपने सब यार काम कर रहे हैं
और हम हैं कि नाम कर रहे हैं
तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह
आप तो क़त्ल-ए-आम कर रहे हैं
दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यूँ
हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं
हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर
जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं
है वो बेचारगी का हाल कि हम
हर किसी को सलाम कर रहे हैं
एक क़त्ताला चाहिए हम को
हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं
क्या भला साग़र-ए-सिफ़ाल कि हम
नाफ़-प्याले को जाम कर रहे हैं
हम तो आए थे अर्ज़-ए-मतलब को
और वो एहतिराम कर रहे हैं
न उठे आह का धुआँ भी कि वो
कू-ए-दिल में ख़िराम कर रहे हैं
उस के होंटों पे रख के होंट अपने
बात ही हम तमाम कर रहे हैं
हम अजब हैं कि उस के कूचे में
बे-सबब धूम-धाम कर रहे हैं
अपनी मंज़िल का रास्ता भेजो | Apni Manzil Ka Raasta Bhejo
अपनी मंज़िल का रास्ता भेजो
जान हम को वहाँ बुला भेजो
क्या हमारा नहीं रहा सावन
ज़ुल्फ़ याँ भी कोई घटा भेजो
नई कलियाँ जो अब खिली हैं वहाँ
उन की ख़ुश्बू को इक ज़रा भेजो
हम न जीते हैं और न मरते हैं
दर्द भेजो न तुम दवा भेजो
धूल उड़ती है जो उस आँगन में
उस को भेजो सबा सबा भेजो
ऐ फकीरो गली के उस गुल की
तुम हमें अपनी ख़ाक-ए-पा भेजो
शफ़क़-ए-शाम-ए-हिज्र के हाथों
अपनी उतरी हुई क़बा भेजो
कुछ तो रिश्ता है तुम से कम-बख़्तों
कुछ नहीं कोई बद-दुआ’ भेजो
बाहर गुज़ार दी कभी अंदर भी आएँगे | Baahar Guzar Di Kabhi Andar Bhi Aayege
बाहर गुज़ार दी कभी अंदर भी आएँगे
हम से ये पूछना कभी हम घर भी आएँगे
ख़ुद आहनी नहीं हो तो पोशिश हो आहनी
यूँ शीशा ही रहोगे तो पत्थर भी आएँगे
ये दश्त-ए-बे-तरफ़ है गुमानों का मौज-खेज़
इस में सराब क्या के समंदर भी आएँगे
आशुफ़्तगी की फ़स्ल का आग़ाज़ है अभी
आशुफ़्तगाँ पलट के अभी घर भी आएँगे
देखें तो चल के यार तिलिस्मात-ए-सम्त-ए-दिल
मरना भी पड़ गया तो चलो मर भी आएँगे
ये शख़्स आज कुछ नहीं पर कल ये देखियो
उस की तरफ़ क़दम ही नहीं सर भी आएँगे
बात कोई उमीद की मुझ से नहीं कही गई | Baat Koi Ummeed Ki Mujhse Nahi Kahi Gayi
बात कोई उमीद की मुझ से नहीं कही गई
सो मिरे ख़्वाब भी गए सो मेरी नींद भी गई
दिल का था एक मुद्दआ’ जिस ने तबाह कर दिया
दिल में थी एक ही तो बात वो जो फ़क़त सही गई
जानिए क्या तलाश थी ‘जौन’ मिरे वजूद में
जिस को मैं ढूँढता गया जो मुझे ढूँढती गई
एक ख़ुशी का हाल है ख़ुश-सुख़नाँ के दरमियाँ
इज़्ज़त-ए-शाएक़ीन-ए-ग़म थी जो रही-सही गई
बूद-ओ-नबूद की तमीज़ एक अज़ाब थी कि थी
या’नी तमाम ज़िंदगी धुँद में डूबती गई
उस के जमाल का था दिन मेरा वजूद और फिर
सुब्ह से धूप भी गई रात से चाँदनी गई
जब मैं था शहर ज़ात का था मिरा हर-नफ़स अज़ाब
फिर मैं वहाँ का था जहाँ हालत-ए-ज़ात भी गई
गर्द-फ़शाँ हूँ दश्त में सीना-ज़नाँ हूँ शहर में
थी जो सबा-ए-सम्त-ए-दिल जाने कहाँ चली गई
तुम ने बहुत शराब पी उस का सभी को दुख है ‘जौन’
और जो दुख है वो ये है तुम को शराब पी गई
बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं | Bada Ehsaan Hum Farma Rahe Hai
बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं
कि उन के ख़त उन्हें लौटा रहे हैं
नहीं तर्क-ए-मोहब्बत पर वो राज़ी
क़यामत है कि हम समझा रहे हैं
यक़ीं का रास्ता तय करने वाले
बहुत तेज़ी से वापस आ रहे हैं
ये मत भूलो कि ये लम्हात हम को
बिछड़ने के लिए मिलवा रहे हैं
तअ’ज्जुब है कि इश्क़-ओ-आशिक़ी से
अभी कुछ लोग धोका खा रहे हैं
तुम्हें चाहेंगे जब छिन जाओगी तुम
अभी हम तुम को अर्ज़ां पा रहे हैं
किसी सूरत उन्हें नफ़रत हो हम से
हम अपने ऐब ख़ुद गिनवा रहे हैं
वो पागल मस्त है अपनी वफ़ा में
मिरी आँखों में आँसू आ रहे हैं
दलीलों से उसे क़ाइल किया था
दलीलें दे के अब पछता रहे हैं
तिरी बाँहों से हिजरत करने वाले
नए माहौल में घबरा रहे हैं
ये जज़्ब-ए-इश्क़ है या जज़्बा-ए-रहम
तिरे आँसू मुझे रुलवा रहे हैं
अजब कुछ रब्त है तुम से कि तुम को
हम अपना जान कर ठुकरा रहे हैं
वफ़ा की यादगारें तक न होंगी
मिरी जाँ बस कोई दिन जा रहे हैं
बद-दिली में बे-क़रारी को क़रार आया तो क्या | Bad-Dili Mein Bekarari Ko Karaar Aaya To Kya
बद-दिली में बे-क़रारी को क़रार आया तो क्या
पा-पियादा हो के कोई शहसवार आया तो क्या
ज़िंदगी की धूप में मुरझा गया मेरा शबाब
अब बहार आई तो क्या अब्र-ए-बहार आया तो क्या
मेरे तेवर बुझ गए मेरी निगाहें जल गई
अब कोई आईना-रू आईना-दार आया तो क्या
अब कि जब जानाना तुम को है सभी पर ए’तिबार
अब तुम्हें जानाना पे जब ए’तिबार आया तो क्या
अब मुझे ख़ुद अपनी बाहोँ पर नहीं है इख़्तियार
हाथ फैलाए कोई बे-इख़्तियार आया तो क्या
वो तो अब भी ख़्वाब है बेदार बीनाई का ख़्वाब
ज़िंदगी में ख़्वाब में उस के गुज़ार आया तो क्या
हम यहाँ हैं बे-गुनाह सो हम में से ‘जौन-एलिया’
कोई जीत आया यहाँ और कोई हार आया तो क्या
बहुत दिल को कुशादा कर लिया क्या | Bahut Dil Ko Kushada Kar Liya Kya
बहुत दिल को कुशादा कर लिया क्या
ज़माने भर से वा’दा कर लिया क्या
तो क्या सच-मुच जुदाई मुझ से कर ली
तो ख़ुद अपने को आधा कर लिया क्या
हुनर-मंदी से अपनी दिल का सफ़्हा
मिरी जाँ तुम ने सादा कर लिया क्या
जो यकसर जान है उस के बदन से
कहो कुछ इस्तिफ़ादा कर लिया क्या
बहुत कतरा रहे हो मुग़्बचों से
गुनाह-ए-तर्क-ए-बादा कर लिया क्या
यहाँ के लोग कब के जा चुके हैं
सफ़र जादा-ब-जादा कर लिया क्या
उठाया इक क़दम तू ने न उस तक
बहुत अपने को माँदा कर लिया क्या
तुम अपनी कज-कुलाही हार बैठीं
बदन को बे-लिबादा कर लिया क्या
बहुत नज़दीक आती जा रही हो
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या
बजा इरशाद फ़रमाया गया है | Baja Irshaad Farmaya Gaya Hai
बजा इरशाद फ़रमाया गया है
कि मुझ को याद फ़रमाया गया है
इनायत की हैं ना-मुम्किन उमीदें
करम ईजाद फ़रमाया गया है
हैं अब हम और ज़द है हादसों की
हमें आज़ाद फ़रमाया गया है
ज़रा उस की पुर-अहवाली तो देखें
जिसे बर्बाद फ़रमाया गया है
नसीम-ए-सब्ज़गी थे हम सो हम को
ग़ुबार-उफ़्ताद फ़रमाया गया है
मुबारक फाल-ए-नेक ऐ ख़ुसरव-ए-शहर
मुझे फ़रहाद फ़रमाया गया है
सनद बख़्शी है इश्क़-ए-बे-ग़रज़ की
बहुत ही शाद फ़रमाया गया है
सलीक़े को लब-ए-फ़रियाद तेरे
अदा की दाद फ़रमाया गया है
कहाँ हम और कहाँ हुस्न-ए-सर-ए-बाम
हमें बुनियाद फ़रमाया गया है
बंद बाहर से मिरी ज़ात का दर है मुझ में | Ban Bahar Se Meri Jaat Ka Dar Hai Mujhme
बंद बाहर से मिरी ज़ात का दर है मुझ में
मैं नहीं ख़ुद में ये इक आम ख़बर है मुझ में
इक अजब आमद-ओ-शुद है कि न माज़ी है न हाल
‘जौन’ बरपा कई नस्लों का सफ़र है मुझ में
है मिरी उम्र जो हैरान तमाशाई है
और इक लम्हा है जो ज़ेर-ओ-ज़बर है मुझ में
क्या तरसता हूँ कि बाहर के किसी काम आए
वो इक अम्बोह कि बस ख़ाक-बसर है मुझ में
डूबने वालों के दरिया मुझे पायाब मिले
उस में अब डूब रहा हूँ जो भँवर है मुझ में
दर-ओ-दीवार तो बाहर के हैं ढाने वाले
चाहे रहता नहीं मैं पर मिरा घर है मुझ में
मैं जो पैकार में अंदर की हूँ बे-तेग़-ओ-ज़िरह
आख़िरश कौन है जो सीना-सिपर है मुझ में
मा’रका गर्म है बे-तौर सा कोई हर-दम
न कोई तेग़ सलामत न सिपर है मुझ में
ज़ख़्म-हा-ज़ख़्म हूँ और कोई नहीं ख़ूँ का निशाँ
कौन है वो जो मिरे ख़ून में तर है मुझ में
बज़्म से जब निगार उठता है | Bazm Se Jab Nigaar Uthta Hai
बज़्म से जब निगार उठता है
मेरे दिल से ग़ुबार उठता है
मैं जो बैठा हूँ तो वो ख़ुश-क़ामत
देख लो बार बार उठता है
तेरी सूरत को देख कर मिरी जाँ
ख़ुद-बख़ुद दिल में प्यार उठता है
उस की गुल-गश्त से रविश-ब-रविश
रंग ही रंग यार उठता है
तेरे जाते ही इस ख़राबे से
शोर-ए-गिर्या हज़ार उठता है
कौन है जिस को जाँ ‘अज़ीज़ नहीं
ले तिरा जाँ-निसार उठता है
सफ़-ब-सफ़ आ खड़े हुए हैं ग़ज़ाल
दश्त से ख़ाकसार उठता है
है ये तेशा कि एक शो’ला सा
बर-सर-ए-कोहसार उठता है
कर्ब-ए-तन्हाई है वो शय कि ख़ुदा
आदमी को पुकार उठता है
तू ने फिर कस्ब-ए-ज़र का ज़िक्र किया
कहीं हम से ये बार उठता है
लो वो मजबूर शहर-ए-सहरा से
आज दीवाना-वार उठता है
अपने याँ तो ज़माने वालों का
रोज़ ही ए’तिबार उठता है
‘जौन’ उठता है यूँ कहो या’नी
‘मीर’-ओ-‘ग़ालिब’ का यार उठता है
बेदिली क्या यूँ ही दिल गुज़र जायेंगे | Bedili Kya Yun Hi Dil Guzar Jayege
बेदिली! क्या यूँ ही दिन गुजर जायेंगे
सिर्फ़ ज़िन्दा रहे हम तो मर जायेंगे
रक़्स है रंग पर रंग हम-रक़्स हैं
सब बिछड़ जाएँगे सब बिखर जाएँगे
ये खराब आतियाने, खिरद बाख्ता
सुबह होते ही सब काम पर जायेंगे
कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है | Bekarari Si Bekarari Hai
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
निघरे क्या हुए कि लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है
बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है
आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है
उस से कहियो कि दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इंतिज़ारी है
हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो
हम हैं और उस की यादगारी है
इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी
मैं ये समझा तिरी सवारी है
हादसों का हिसाब है अपना
वर्ना हर आन सब की बारी है
ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी
उम्र भर की उमीद-वारी है
भटकता फिर रहा हूँ जुस्तुजू बिन | Bhatakta Phir Raha Hoon Justuju Bin
भटकता फिर रहा हूँ जुस्तुजू बिन
सरापा आरज़ू हूँ आरज़ू बिन
कोई इस शहर को ताराज कर दे
हुई है मेरी वहशत हा-ओ-हू बिन
ये सब मोजिज़-नुमाई की हवस है
रफ़ूगर आए हैं तार-ए-रफ़ू बिन
मआश-ए-बे-दिलाँ पूछो न यारो
नुमू पाते रहे रिज़्क़-ए-नुमू बिन
गुज़ार ऐ शौक़ अब ख़ल्वत की रातें
गुज़ारिश बिन गिला बिन गुफ़्तुगू बिन
चलो बाद-ए-बहारी जा रही है | Chalo Baad-e-Bahari Ja Rahi Hai
चलो बाद-ए-बहारी जा रही है
पिया-जी की सवारी जा रही है
शुमाल-ए-जावेदान-ए-सब्ज़-ए-जाँ से
तमन्ना की अमारी जा रही है
फ़ुग़ाँ ऐ दुश्मन-ए-दार-ए-दिल-ओ-जाँ
मिरी हालत सुधारी जा रही है
है पहलू में टके की इक हसीना
तिरी फ़ुर्क़त गुज़ारी जा रही है
जो इन रोज़ों मिरा ग़म है वो ये है
कि ग़म से बुर्दबारी जा रही है
है सीने में अजब इक हश्र बरपा
कि दिल से बे-क़रारी जा रही है
मैं पैहम हार कर ये सोचता हूँ
वो क्या शय है जो हारी जा रही है
दिल उस के रू-ब-रू है और गुम-सुम
कोई अर्ज़ी गुज़ारी जा रही है
वो सय्यद बच्चा हो और शैख़ के साथ
मियाँ इज़्ज़त हमारी जा रही है
है बरपा हर गली में शोर-ए-नग़्मा
मिरी फ़रियाद मारी जा रही है
वो याद अब हो रही है दिल से रुख़्सत
मियाँ प्यारों की प्यारी जा रही है
दरेग़ा तेरी नज़दीकी मियाँ-जान
तिरी दूरी पे वारी जा रही है
बहुत बद-हाल हैं बस्ती तिरे लोग
तो फिर तू क्यूँ सँवारी जा रही है
तिरी मरहम-निगाही ऐ मसीहा
ख़राश-ए-दिल पे वारी जा रही है
ख़राबे में अजब था शोर बरपा
दिलों से इंतिज़ारी जा रही है
दौलत-ए-दहर सब लुटाई है | Daulat-e-Dahar Sab Lutayi Hai
दौलत-ए-दहर सब लुटाई है
मैं ने दिल की कमाई खाई है
एक लम्हे को तीर करने में
मैं ने इक ज़िंदगी गँवाई है
वो जो सरमाया-ए-दिल-ओ-जाँ थी
अब वही आरज़ू पराई है
तू है आख़िर कहाँ कि आज मुझे
बे-तरह अपनी याद आई है
जान-ए-जाँ तुझ से दू-बदू हो कर
मैं ने ख़ुद से शिकस्त खाई है
इश्क़ मेरे गुमान में याराँ
दिल की इक ज़ोर आज़माई है
उस में रह कर भी मैं नहीं उस में
जानिए दिल में क्या समाई है
मौज-ए-बाद-ए-सबा पे हो के सवार
वो शमीम-ए-ख़याल आई है
शर्म कर तू कि दश्त-ए-हालत में
तेरी लैला ने ख़ाक उड़ाई है
बिक नहीं पा रहा था सो मैं ने
अपनी क़ीमत बहुत बढ़ाई है
वो जो था ‘जौन’ वो कहीं भी न था
हुस्न इक ख़्वाब की जुदाई है
दीद की एक आन में कार-ए-दवाम हो गया | Deed Ki Ek Aan Mein Kaar-e-Dawaam Ho Gaya
दीद की एक आन में कार-ए-दवाम हो गया
वो भी तमाम हो गया मैं भी तमाम हो गया
अब मैं हूँ इक अज़ाब में और अजब अज़ाब में
जन्नत-ए-पुर-सुकूत में मुझ से कलाम हो गया
आह वो ऐश-ए-राज़-ए-जाँ है वो ऐश-ए-राज़-ए-जाँ
है वो ऐश-ए-राज़-ए-जाँ शहर में आम हो गया
रिश्ता-ए-रंग-ए-जाँ मेरा निकहत-ए-नाज़ से तेरी
पुख़्ता हुआ और इस क़दर यानी के ख़ाम हो गया
पूछ न वस्ल का हिसाब हाल है अब बहुत ख़राब
रिश्ता-ए-जिस्म-ओ-जाँ के बीच जिस्म हराम हो गया
शहर की दास्ताँ न पूछ है ये अजीब दास्ताँ
आने से शहरयार के शहर ग़ुलाम हो गया
दिल की कहानियाँ बनीं कूचा-ब-कूचा कू-ब-कू
सह के मलाल-ए-शहर को शहर में नाम हो गया
‘जौन’ की तिश्नगी का था ख़ूब ही माजरा के जो
मीना-ब-मीना मय-ब-मय जाम-ब-जाम हो गया
नाफ़-प्याले को तेरे देख लिया मुग़ाँ ने जान
सारे ही मय-कदे का आज काम तमाम हो गया
उस की निगाह उठ गई और में उठ के रह गया
मेरी निगाह झुक गई और सलाम हो गया
धूप उठाता हूँ कि अब सर पे कोई बार नहीं | Dhoop Uthata Hoon Ki Ab Sar Pe Koi Baar Nahi
धूप उठाता हूँ कि अब सर पे कोई बार नहीं
बीच दीवार है और साया-ए-दीवार नहीं
शहर की गश्त में हैं सुब्ह से सारे मंसूर
अब तो मंसूर वही है जो सर-ए-दार नहीं
मत सुनो मुझ से जो आज़ार उठाने होंगे
अब के आज़ार ये फैला है कि आज़ार नहीं
सोचता हूँ कि भला उम्र का हासिल क्या था
उम्र-भर साँस लिए और कोई अम्बार नहीं
जिन दुकानों ने लगाए थे निगह में बाज़ार
उन दुकानों का ये रोना है कि बाज़ार नहीं
अब वो हालत है कि थक कर मैं ख़ुदा हो जाऊँ
कोई दिलदार नहीं कोई दिल-आज़ार नहीं
मुझ से तुम काम न लो काम में लाओ मुझ को
कोई तो शहर में ऐसा है कि बे-कार नहीं
याद-ए-आशोब का आलम तो वो आलम है कि अब
याद मस्तों को तिरी याद भी दरकार नहीं
वक़्त को सूद पे दे और न रख कोई हिसाब
अब भला कैसा ज़ियाँ कोई ख़रीदार नहीं
दिल-ए-बर्बाद को आबाद किया है मैं ने | Dil-e-Barbaad Ko Aabaad Kiya Hai Maine
दिल-ए-बर्बाद को आबाद किया है मैं ने
आज मुद्दत में तुम्हें याद किया है मैं ने
ज़ौक़-ए-परवाज़-ए-तब-ओ-ताब अता फ़रमा कर
सैद को लाइक़-ए-सय्याद किया है मैं ने
तल्ख़ी-ए-दौर-ए-गुज़िश्ता का तसव्वुर कर के
दिल को फिर माइल-ए-फ़रियाद किया है मैं ने
आज इस सोज़-ए-तसव्वुर की ख़ुशी में ऐ दोस्त
ताइर-ए-सब्र को आज़ाद किया है मैं ने
हो के इसरार-ए-ग़म-ए-ताज़ा से मजबूर-ए-फ़ुग़ाँ
चश्म को अश्क-ए-तर इमदाद किया है मैं ने
तुम जिसे कहते थे हंगामा-पसंदी मेरी
फिर वही तर्ज़-ए-ग़म ईजाद किया है मैं ने
फिर गवारा है मुझे इश्क़ की हर इक मुश्किल
ताज़ा फिर शेव-ए-फ़रहाद किया है मैं ने
दिल गुमाँ था गुमानियाँ थे हम | Dil Gumaan Tha Gumaniya The Hum
दिल गुमाँ था गुमानियाँ थे हम
हाँ मियाँ दासतानियाँ थे हम
हम सुने और सुनाए जाते थे
रात भर की कहानियाँ थे हम
जाने हम किस की बूद का थे सुबूत
जाने किस की निशानियाँ थे हम
छोड़ते क्यूँ न हम ज़मीं अपनी
आख़िरश आसमानियाँ थे हम
ज़र्रा भर भी न थी नुमूद अपनी
और फिर भी जहानियाँ थे हम
हम न थे एक आन के भी मगर
जावेदाँ जाविदानियाँ थे हम
रोज़ इक रन था तीर-ओ-तरकश बिन
थे कमीं और कमानियाँ थे हम
अर्ग़वानी था वो पियाला-ए-नाफ़
हम जो थे अर्ग़वानियाँ थे हम
नार-ए-पिस्तान थी वो क़त्ताला
और हवस-दरमियानियाँ थे हम
ना-गहाँ थी इक आन आन कि थी
हम जो थे नागहानियाँ थे हम
दिल जो इक जाए थी दुनिया हुई आबाद उस में | Dil Jo Ik Jaye Thi Duniya Huyi Aabaad Uss Mein
दिल जो इक जाए थी दुनिया हुई आबाद उस में
पहले सुनते हैं कि रहती थी कोई याद उस में
वो जो था अपना गुमान आज बहुत याद आया
थी अजब राहत-ए-आज़ादी-ए-ईजाद उस में
एक ही तो वो मुहिम थी जिसे सर करना था
मुझे हासिल न किसी की हुई इमदाद उस में
एक ख़ुश्बू में रही मुझ को तलाश-ए-ख़द-ओ-ख़ाल
रंग फ़सलें मिरी यारो हुईं बरबाद उस में
बाग़-ए-जाँ से तू कभी रात गए गुज़रा है
कहते हैं रात में खेलें हैं परी-ज़ाद उस में
दिल-मोहल्ले में अजब एक क़फ़स था यारो
सैद को छोड़ के रहने लगा सय्याद उस में
दिल जो है आग लगा दूँ उस को | Dil Jo Hai Aag Laga Du Usko
दिल जो है आग लगा दूँ उस को
और फिर ख़ुद ही हवा दूँ उस को
जो भी है उस को गँवा बैठा है
मैं भला कैसे गँवा दूँ उस को
तुझ गुमाँ पर जो इमारत की थी
सोचता हूँ कि मैं ढा दूँ उस को
जिस्म में आग लगा दूँ उस के
और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को
हिज्र की नज़्र तो देनी है उसे
सोचता हूँ कि भुला दूँ उस को
जो नहीं है मिरे दिल की दुनिया
क्यूँ न मैं ‘जौन’ मिटा दूँ उस को
दिल का दयार-ए-ख़्वाब में दूर तलक गुज़र रहा | Dil Ka Dayaar-e-Khawab Mein Door Talak Guzar Raha
दिल का दयार-ए-ख़्वाब में दूर तलक गुज़र रहा
पाँव नहीं थे दरमियाँ आज बड़ा सफ़र रहा
हो न सका हमें कभी अपना ख़याल तक नसीब
नक़्श किसी ख़याल का लौह-ए-ख़याल पर रहा
नक़्श-गरों से चाहिए नक़्श ओ निगार का हिसाब
रंग की बात मत करो रंग बहुत बिखर रहा
जाने गुमाँ की वो गली ऎसी जगह है कौन सी
देख रहे हो तुम के मैं फिर वहीं जा के मर रहा
दिल मेरे दिल मुझे भी तुम अपने ख़्वास में रखो
याराँ तुम्हारे बाब में मैं ही न मोतबर रहा
शहर-ए-फ़िराक़-ए-यार से आई है इक ख़बर मुझे
कूचा-ए-याद-ए-यार से कोई नहीं उभर रहा
दिल की हर बात ध्यान में गुज़री | Dil Ki Har Baat Dhyaan Mein Gujri
दिल की हर बात ध्यान में गुज़री
सारी हस्ती गुमान में गुज़री
अज़ल-ए-दास्ताँ से इस दम तक
जो भी गुज़री इक आन में गुज़री
जिस्म मुद्दत तिरी उक़ूबत की
एक इक लम्हा जान में गुज़री
ज़िंदगी का था अपना ऐश मगर
सब की सब इम्तिहान में गुज़री
हाए वो नावक-ए-गुज़ारिश-ए-रंग
जिस की जुम्बिश कमान में गुज़री
वो गदाई गली अजब थी कि वाँ
अपनी इक आन-बान में गुज़री
यूँ तो हम दम-ब-दम ज़मीं पे रहे
उम्र सब आसमान में गुज़री
जो थी दिल-ताएरों की मोहलत-ए-बूद
ता ज़मीं वो उड़ान में गुज़री
बूद तो इक तकान है सो ख़ुदा
तेरी भी क्या तकान में गुज़री
दिल की तकलीफ़ कम नहीं करते | Dil Ki Takleef Kam Nahi Karte
दिल की तकलीफ़ कम नहीं करते
अब कोई शिकवा हम नहीं करते
जान-ए-जाँ तुझ को अब तिरी ख़ातिर
याद हम कोई दम नहीं करते
दूसरी हार की हवस है सो हम
सर-ए-तस्लीम ख़म नहीं करते
वो भी पढ़ता नहीं है अब दिल से
हम भी नाले को नम नहीं करते
जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ
तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते
दिल कितना आबाद हुआ जब दीद के घर बरबाद हुए | Dil Kitna Aabaad Hua Jab Deed Ke Ghar Barbaad Huye
दिल कितना आबाद हुआ जब दीद के घर बरबाद हुए
वो बिछड़ा और ध्यान में उस के सौ मौसम ईजाद हुए
नामवरी की बात दिगर है वर्ना यारो सोचो तो
गुलगूँ अब तक कितने तेशे बे-ख़ून-ए-फ़रहाद हुए
लाएँगे कहाँ से बोल रसीले होंटों की नादारी में
समझो एक ज़माना गुज़रा बोसों की इमदाद हुए
तुम मेरी इक ख़ुद-मस्ती हो मैं हूँ तुम्हारी ख़ुद-बीनी
रिश्ते में इक इश्क़ के हम तुम दोनों बे-बुनियाद हुए
मेरा क्या इक मौज-ए-हवा हूँ पर यूँ है ऐ ग़ुंचा-दहन
तू ने दिल का बाग़ जो छोड़ा ग़ुंचे बे-उस्ताद हुए
इश्क़-मोहल्ले में अब यारो क्या कोई मा’शूक़ नहीं
कितने क़ातिल मौसम गुज़रे शोर हुए फ़रियाद हुए
हम ने दिल को मार रखा है और जताते फिरते हैं
हम दिल ज़ख़्मी मिज़्गाँ ख़ूनीं हम न हुए जल्लाद हुए
बर्क़ किया है अक्स-ए-बदन ने तेरे हमें इक तंग क़बा
तेरे बदन पर जितने तिल हैं सारे हम को याद हुए
तू ने कभी सोचा तो होगा सोचा भी ऐ मस्त-अदा
तेरी अदा की आबादी पर कितने घर बरबाद हुए
जो कुछ भी रूदाद-ए-सुख़न थी होंटों की दूरी से थी
जब होंटों से होंट मिले तो यक-दम बे-रूदाद हुए
ख़ाक-नशीनों से कूचे के क्या क्या नख़वत करते हैं
जानाँ जान तिरे दरबाँ तो फ़िरऔन-ओ-शद्दाद हुए
शहरों में ही ख़ाक उड़ा लो शोर मचा लो बे-जा लो
जिन दश्तों की सोच रहे हो वो कब के बरबाद हुए
सम्तों में बिखरी वो ख़ल्वत वो दिल की रंग-ए-आबादी
या’नी वो जो बाम-ओ-दर थे यकसर गर्द-ओ-बाद हुए
तू ने रिंदों का हक़ मारा मय-ख़ाने में रात गए
शैख़ खरे सय्यद हैं हम तो हम ने सुनाया शाद हुए
दिल को दुनिया का है सफ़र दर-पेश | Dil Ko Duniya Ka Hai Safar Dar-Pesh
दिल को दुनिया का है सफ़र दर-पेश
और चारों तरफ़ है घर दर-पेश
है ये आलम अजीब और यहाँ
माजरा है अजीब-तर दर-पेश
दो जहाँ से गुज़र गया फिर भी
मैं रहा ख़ुद को उम्र भर दर-पेश
अब मैं कू-ए-अबस शिताब चलूँ
कई इक काम हैं उधर दर-पेश
उस के दीदार की उम्मीद कहाँ
जब के है दीद को नज़र दर-पेश
अब मेरी जान बच गई यानी
एक क़ातिल की है सिपर दर-पेश
किस तरह कूच पर कमर बाँधूँ
एक रह-ज़न की है कमर दर-पेश
ख़लवत-ए-नाज़ और आईना
ख़ुद-निगर को है ख़ुद-निगर दर-पेश
दिल ने किया है क़स्द-ए-सफ़र घर समेट लो | Dil Ne Kiya Hai Kasd-e-Safar Ghar Samet Lo
दिल ने किया है क़स्द-ए-सफ़र घर समेट लो
जाना है इस दयार से मंज़र समेट लो
आज़ादगी में शर्त भी है एहतियात की
परवाज़ का है इज़्न मगर पर समेट लो
हमला है चार सू दर-ओ-दीवार-ए-शहर का
सब जंगलों को शहर के अंदर समेट लो
बिखरा हुआ हूँ सरसर-ए-शाम-ए-फ़िराक़ से
अब आ भी जाओ और मुझे आ कर समेट लो
रखता नहीं है कोई न-गुफ़्ता का याँ हिसाब
जो कुछ है दिल में उस को लबों पर समेट लो
दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-जफ़ा नहीं किया | Dil Ne Wafa Ke Naam Par Kaar-e-Zafa Nahi Kiya
दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-जफ़ा नहीं किया
ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया
कैसे कहें के तुझ को भी हमसे है वास्ता कोई
तूने तो हमसे आज तक कोई गिला नहीं किया
तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन
मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया
जो भी हो तुम पे मौतरिज़ उस को यही जवाब दो
आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया
जिस को भी शेख़-ओ-शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार
हमने नहीं किया वो काम हाँ बा-ख़ुदा नहीं किया
निस्बत-ए-इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़्त को अज़ीज़
उस ने तो कार-ए-जेहन भी बे-उलामा नहीं किया
दिल परेशाँ है क्या किया जाए | Dil Pareshaan Hai Kya Kiya Jaye
दिल परेशाँ है क्या किया जाए
अक़्ल हैराँ है क्या किया जाए
शौक़-ए-मुश्किल-पसंद उन का हुसूल
सख़्त आसाँ है क्या किया जाए
इश्क़-ए-ख़ूबाँ के साथ ही हम में
नाज़-ए-ख़ूबाँ है क्या किया जाए
बे-सबब ही मिरी तबीअत-ए-ग़म
सब से नालाँ है क्या किया जाए
बावजूद उन की दिल-नवाज़ी के
दिल गुरेज़ाँ है क्या किया जाए
मैं तो नक़्द-ए-हयात लाया था
जिंस-ए-अर्ज़ां है क्या किया जाए
हम समझते थे इश्क़ को दुश्वार
ये भी आसाँ है क्या किया जाए
वो बहारों की नाज़-पर्वर्दा
हम पे नाज़ाँ है क्या किया जाए
मिस्र-ए-लुत्फ़-ओ-करम में भी ऐ ‘जौन’
याद-ए-कनआँ है क्या किया जाए
दिल से है बहुत गुरेज़-पा तू | Dil Se Hai Bahut Gurej-pa Tu
दिल से है बहुत गुरेज़-पा तू
तू कौन है और है भी क्या तू
क्यूँ मुझ में गँवा रहा है ख़ुद को
मुझ ऐसे यहाँ हज़ार-हा तू
है तेरी जुदाई और मैं हूँ
मिलते ही कहीं बिछड़ गया तू
पूछे जो तुझे कोई ज़रा भी
जब मैं न रहूँ तो देखना तू
इक साँस ही बस लिया है मैं ने
तू साँस न था सो क्या हुआ तू
है कौन जो तेरा ध्यान रखे
बाहर मिरे बस कहीं न जा तो
ईज़ा-दही की दाद जो पाता रहा हूँ मैं | Eeza-Dahi Ki Daad Jo Paata Raha Hoon Main
ईज़ा-दही की दाद जो पाता रहा हूँ मैं
हर नाज़-आफ़रीं को सताता रहा हूँ मैं
ऐ ख़ुश-ख़िराम पाँव के छाले तो गिन ज़रा
तुझ को कहाँ कहाँ न फिराता रहा हूँ मैं
इक हुस्न-ए-बे-मिसाल की तमसील के लिए
परछाइयों पे रंग गिराता रहा हूँ मैं
क्या मिल गया ज़मीर-ए-हुनर बेच कर मुझे
इतना कि सिर्फ़ काम चलाता रहा हूँ मैं
रूहों के पर्दा-पोश गुनाहों से बे-ख़बर
जिस्मों की नेकियाँ ही गिनाता रहा हूँ मैं
तुझ को ख़बर नहीं कि तिरा कर्ब देख कर
अक्सर तिरा मज़ाक़ उड़ाता रहा हूँ मैं
शायद मुझे किसी से मोहब्बत नहीं हुई
लेकिन यक़ीन सब को दिलाता रहा हूँ मैं
इक सत्र भी कभी न लिखी मैं ने तेरे नाम
पागल तुझी को याद भी आता रहा हूँ मैं
जिस दिन से ए’तिमाद में आया तिरा शबाब
उस दिन से तुझ पे ज़ुल्म ही ढाता रहा हूँ मैं
अपना मिसालिया मुझे अब तक न मिल सका
ज़र्रों को आफ़्ताब बनाता रहा हूँ मैं
बेदार कर के तेरे बदन की ख़ुद-आगही
तेरे बदन की उम्र घटाता रहा हूँ मैं
कल दोपहर अजीब सी इक बे-दिली रही
बस तीलियाँ जला के बुझाता रहा हूँ मैं
एक गुमाँ का हाल है और फ़क़त गुमाँ में है | Ek Gumaan Ka Haal Hai Aur Faqat Gumaan Mein Hai
एक गुमाँ का हाल है और फ़क़त गुमाँ में है
किस ने अज़ाब-ए-जाँ सहा कौन अज़ाब-ए-जाँ में है
लम्हा-ब-लम्हा दम-ब-दम आन-ब-आन रम-ब-रम
मैं भी गुज़िश्तगाँ में हूँ तू भी गुज़िश्तगाँ में है
आदम-ओ-ज़ात-ए-किब्रिया कर्ब में हैं जुदा जुदा
क्या कहूँ उन का माजरा जो भी है इम्तिहाँ में है
शाख़ से उड़ गया परिंद है दिल-ए-शाम-ए-दर्द-मंद
सहन में है मलाल सा हुज़्न सा आसमाँ में है
ख़ुद में भी बे-अमाँ हूँ मैं तुझ में भी बे-अमाँ हूँ मैं
कौन सहेगा उस का ग़म वो जो मिरी अमाँ में है
कैसा हिसाब क्या हिसाब हालत-ए-हाल है अज़ाब
ज़ख़्म नफ़स नफ़स में है ज़हर ज़माँ ज़माँ में है
उस का फ़िराक़ भी ज़ियाँ उस का विसाल भी ज़ियाँ
एक अजीब कश्मकश हल्क़ा-ए-बे-दिलाँ में है
बूद-ओ-नबूद का हिसाब मैं नहीं जानता मगर
सारे वजूद की नहीं मेरे अदम की हाँ में है
एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है | Ek Hi Muzda Subah Laati Hai
एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है
धूप आँगन में फैल जाती है
रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा
शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है
फ़र्श पर काग़ज़ उड़ते फिरते हैं
मेज़ पर गर्द जमती जाती है
सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर
अब किसे रात भर जगाती है
मैं भी इज़्न-ए-नवा-गरी चाहूँ
बे-दिली भी तो लब हिलाती है
सो गए पेड़ जाग उठी ख़ुश्बू
ज़िंदगी ख़्वाब क्यूँ दिखाती है
उस सरापा वफ़ा की फ़ुर्क़त में
ख़्वाहिश-ए-ग़ैर क्यूँ सताती है
आप अपने से हम-सुख़न रहना
हम-नशीं साँस फूल जाती है
क्या सितम है कि अब तिरी सूरत
ग़ौर करने पे याद आती है
कौन इस घर की देख-भाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है
एक साया मिरा मसीहा था | Ek Saaya Mera Maseeha Tha
एक साया मिरा मसीहा था
कौन जाने वो कौन था क्या था
वो फ़क़त सहन तक ही आती थी
मैं भी हुजरे से कम निकलता था
तुझ को भूला नहीं वो शख़्स कि जो
तेरी बाँहों में भी अकेला था
जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना
वस्ल से इंतिज़ार अच्छा था
बात तो दिल-शिकन है पर यारो
अक़्ल सच्ची थी इश्क़ झूटा था
अपने मेआ’र तक न पहुँचा मैं
मुझ को ख़ुद पर बड़ा भरोसा था
जिस्म की साफ़-गोई के बा-वस्फ़
रूह ने कितना झूट बोला था
फ़ुर्क़त में वसलत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में | Furkat Mein Vaslat Barpaa Hai Allah-Hu Baade Mein
फ़ुर्क़त में वसलत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
आशोब-ए-वहदत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
रूह-ए-कुल से सब रूहों पर वस्ल की हसरत तारी है
इक सर-ए-हिकमत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
बे-अहवाली की हालत है शायद या शायद कि नहीं
पर अहवालिय्यत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
मुख़्तारी के लब सिलवाना जब्र अजब-तर ठहरा है
हैजान-ए-ग़ैरत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
बाबा अलिफ़ इरशाद-कुनाँ हैं पेश-ए-अदम के बारे में
हैरत बे-हैरत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
मा’नी हैं लफ़्ज़ों से बरहम क़हर-ए-ख़मोशी आलम है
एक अजब हुज्जत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
मौजूदी से इंकारी है अपनी ज़िद में नाज़-ए-वजूद
हालत सी हालत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
गाहे-गाहे बस अब तही हो क्या | Gaahe-Gaahe Bas Ab Tahi Ho Kya
गाहे-गाहे बस अब तही हो क्या
तुम से मिल कर बहुत खुशी हो क्या
मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को अक्सर भुला चुकी हो क्या
याद हैं अब भी अपने ख्वाब तुम्हें
मुझ से मिलकर उदास भी हो क्या
बस मुझे यूँ ही एक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या
अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या
क्या कहा इश्क जाबेदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या?
है फज़ा याँ की सोई-सोई सी
तुम बहुत तेज़ रोशनी हो क्या
मेरे सब तंज़ बेअसर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या?
दिल में अब सोज़े-इंतज़ार नहीं
शम्मे उम्मीद बुझ गई हो क्या?
गँवाई किस की तमन्ना में ज़िंदगी मैं ने | Gawayi Kis Ki Tamanna Mein Zindgi Maine
गँवाई किस की तमन्ना में ज़िंदगी मैं ने
वो कौन है जिसे देखा नहीं कभी मैं ने
तेरा ख़याल तो है पर तेरा वजूद नहीं
तेरे लिए तो ये महफ़िल सजाई थी मैं ने
तेरे अदम को गवारा न था वजूद मेरा
सो अपनी बेख़-कनी में कमी न की मैं ने
हैं मेरी ज़ात से मंसूब सद-फ़साना-ए-इश्क़
और एक सतर भी अब तक नहीं लिखी मैं ने
ख़ुद अपने इश्वा ओ अंदाज़ का शहीद हूँ मैं
ख़ुद अपनी ज़ात से बरती है बे-रुख़ी मैं ने
मेरे हरीफ़ मेरी यक्का-ताज़ियों पे निसार
तमाम उम्र हलीफ़ों से जंग की मैं ने
ख़राश-ए-नग़मा से सीना छिला हुआ है मेरा
फ़ुग़ाँ के तर्क न की नग़मा-परवरी मैं ने
दवा से फ़ाएदा मक़सूद था ही कब के फ़क़त
दवा के शौक़ में सेहत तबाह की मैं ने
ज़बाना-ज़न था जिगर-सोज़ तिश्नगी का अज़ाब
सो जौफ़-ए-सीना में दोज़ख उंड़ेल ली मैं ने
सुरूर-ए-मय पे भी ग़ालिब रहा शूऊर मेरा
के हर रिआयत-ए-ग़म ज़हन में रखी मैं ने
ग़म-ए-शुऊर कोई दम तो मुझ को मोहलत दे
तमाम उम्र जलाया है अपना जी मैं ने
इलाज ये है के मजबूर कर दिया जाऊँ
वगर्ना यूँ तो किसी की नहीं सुनी मैं ने
रहा मैं शाहिद-ए-तन्हा नशीन-ए-मसनद-ए-ग़म
और अपने कर्ब-ए-अना से ग़रज़ रखी मैं ने
ग़म है बे-माजरा कई दिन से | Gham Hai Be-Maazra Kai Din Se
ग़म है बे-माजरा कई दिन से
जी नहीं लग रहा कई दिन से
बे-शमीम-ओ-मलाल-ओ-हैराँ है
ख़ेमा-गाह-ए-सबा कई दिन से
दिल-मोहल्ले की उस गली में भला
क्यूँ नहीं गुल मचा कई दिन से
वो जो ख़ुश्बू है उस के क़ासिद को
मैं नहीं मिल सका कई दिन से
उस से भी और अपने आप से भी
हम हैं बे-वासता कई दिन से
घर से हम घर तलक गए होंगे | Ghar Se Hum Ghar Talak Gaye Hoge
घर से हम घर तलक गए होंगे
अपने ही आप तक गए होंगे
हम जो अब आदमी हैं पहले कभी
जाम होंगे छलक गए होंगे
वो भी अब हम से थक गया होगा
हम भी अब उस से थक गए होंगे
शब जो हम से हुआ मुआ’फ़ करो
नहीं पी थी बहक गए होंगे
कितने ही लोग हिर्स-ए-शोहरत में
दार पर ख़ुद लटक गए होंगे
शुक्र है इस निगाह-ए-कम का मियाँ
पहले ही हम खटक गए होंगे
हम तो अपनी तलाश में अक्सर
अज़ समा-ता-समक गए होंगे
उस का लश्कर जहाँ-तहाँ या’नी
हम भी बस बे-कुमक गए होंगे
‘जौन’ अल्लाह और ये आलम
बीच में हम अटक गए होंगे
गुज़राँ हैं गुज़रते रहते हैं | Gujraan Hai Gujarte Rahte Hai
गुज़राँ हैं गुज़रते रहते हैं
हम मियाँ जान मरते रहते हैं
हाए जानाँ वो नाफ़-प्याला तिरा
दिल में बस घूँट उतरते रहते हैं
दिल का जल्सा बिखर गया तो क्या
सारे जलसे बिखरते रहते हैं
या’नी क्या कुछ भुला दिया हम ने
अब तो हम ख़ुद से डरते रहते हैं
हम से क्या क्या ख़ुदा मुकरता है
हम ख़ुदा से मुकरते रहते हैं
है अजब उस का हाल-ए-हिज्र कि हम
गाहे गाहे सँवरते रहते हैं
दिल के सब ज़ख़्म पेशा-वर हैं मियाँ
आन हा आन भरते रहते हैं
गुफ़्तुगू जब मुहाल की होगी | Guftagu Jab Muhaal Ki Hogi
गुफ़्तुगू जब मुहाल की होगी
बात उस की मिसाल की होगी
ज़िंदगी है ख़याल की इक बात
जो किसी बे-ख़याल की होगी
थी जो ख़ुश्बू सबा की चादर में
वो तुम्हारी ही शाल की होगी
न समझ पाएँगे वो अहल-ए-फ़िराक़
जो अज़िय्यत विसाल की होगी
दिल पे तारी है इक कमाल-ए-ख़ुशी
शायद अपने ज़वाल की होगी
जो अता हो विसाल-ए-जानाँ की
वो उदासी कमाल की होगी
आज कहना है दिल को हाल अपना
आज तो सब के हाल की होगी
हो चुका मैं सो फ़िक्र यारों को
अब मिरी देख-भाल की होगी
अब ख़लिश क्या फ़िराक़ की उस के
इक ख़लिश माह-ओ-साल की होगी
कुफ़्र-ओ-ईमाँ कहा गया जिस को
बात वो ख़द्द-ओ-ख़ाल की होगी
‘जौन’ दिल के ख़ुतन में आया है
हर ग़ज़ल इक ग़ज़ाल की होगी
कब भला आएगी जवाब को रास
जो भी हालत सवाल की होगी
हाल ये है कि ख़्वाहिश-ए-पुर्सिश-ए-हाल भी नहीं | Haal Yeh Hai Ki Khawahish-e-Purish-e-Haal Bhi Nahi
हाल ये है कि ख़्वाहिश-ए-पुर्सिश-ए-हाल भी नहीं
उस का ख़याल भी नहीं अपना ख़याल भी नहीं
ऐ शजर-ए-हयात-ए-शौक़ ऐसी ख़िज़ाँ-रसीदगी
पोशिश-ए-बर्ग-ओ-गुल तो क्या जिस्म पे छाल भी नहीं
मुझ में वो शख़्स हो चुका जिस का कोई हिसाब था
सूद है क्या ज़ियाँ है क्या इस का सवाल भी नहीं
मस्त हैं अपने हाल में दिल-ज़दगान-ओ-दिलबराँ
सुल्ह-ओ-सलाम तो कुजा बहस-ओ-जिदाल भी नहीं
तू मिरा हौसला तो देख दाद तो दे कि अब मुझे
शौक़-ए-कमाल भी नहीं ख़ौफ़-ए-ज़वाल भी नहीं
ख़ेमा-गाह-ए-निगाह को लूट लिया गया है क्या
आज उफ़ुक़ के दोष पर गर्द की शाल भी नहीं
उफ़ ये फ़ज़ा-ए-एहतियात ता कहीं उड़ न जाएँ हम
बाद-ए-जुनूब भी नहीं बाद-ए-शिमाल भी नहीं
वजह-ए-म’आश-ए-बे-दिलाँ यास है अब मगर कहाँ
उस के वरूद का गुमाँ फ़र्ज़-ए-मुहाल भी नहीं
ग़ारत-ए-रोज़-ओ-शब तो देख वक़्त का ये ग़ज़ब तो देख
कल तो निढाल भी था मैं आज निढाल भी नहीं
मेरे ज़मान-ओ-ज़ात का है ये मु’आमला कि अब
सुब्ह-ए-फ़िराक़ भी नहीं शाम-ए-विसाल भी नहीं
पहले हमारे ज़ेहन में हुस्न की इक मिसाल थी
अब तो हमारे ज़ेहन में कोई मिसाल भी नहीं
मैं भी बहुत ‘अजीब हूँ इतना ‘अजीब हूँ कि बस
ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं
हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई | Haalat-e-Haal Ke Sabab Haalat-e-Haal Hi Gayi
हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई
शौक़ में कुछ नहीं गया शौक़ की ज़िंदगी गई
एक ही हादसा तो है और वो यह के आज तक
बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई
बाद भी तेरे जान-ए-जां दिल में रहा अजब समाँ
याद रही तेरी यां फिर तेरी याद भी गई
सैने ख्याल-ए-यार में की ना बसर शब्-ए-फिराक
जबसे वो चांदना गया तबसे वो चांदनी गयी
उसके बदन को दी नुमूद हमने सुखन में और फिर
उसके बदन के वास्ते एक कबा भी सी गयी
उसके उम्मीदे नाज़ का हमसे ये मान था की आप
उम्र गुज़ार दीजिये, उम्र गुज़ार दी गयी
उसके विसाल के लिए अपने कमाल के लिए
हालत-ए-दिल की थी खराब और खराब की गई
तेरा फिराक़ जान-ए-जां ऐश था क्या मेरे लिए
यानी तेरे फिराक़ में खूब शराब पी गई
उसकी गली से उठके मैं आन पड़ा था अपने घर
एक गली की बात थी और गली गली गयी
है अजब हाल ये ज़माने का | Hai Ajab Haal Yeh Zamane Ka
है अजब हाल ये ज़माने का
याद भी तौर है भुलाने का
पसंद आया बहुत हमें पेशा
ख़ुद ही अपने घरों को ढाने का
काश हम को भी हो नसीब कभी
ऐश-ए-दफ़्तर में गुनगुनाने का
आसमाँ है ख़मोशी-ए-जावेद
मैं भी अब लब नहीं हिलाने का
जान क्या अब तिरा पियाला-ए-नाफ़
नश्शा मुझ को नहीं पिलाने का
शौक़ है इस दिल-ए-दरिंदा को
आप के होंट काट खाने का
इतना नादिम हुआ हूँ ख़ुद से कि मैं
अब नहीं ख़ुद को आज़माने का
क्या कहूँ जान को बचाने मैं
‘जौन’ ख़तरा है जान जाने का
ये जहाँ ‘जौन’ इक जहन्नुम है
याँ ख़ुदा भी नहीं है आने का
ज़िंदगी एक फ़न है लम्हों को
अपने अंदाज़ से गँवाने का
है बिखरने को ये महफ़िल-ए-रंग-ओ-बू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे | Hai Bikharne Ko Yeh Mehfil-e-Rang-O-Boo Tum Kahan Jaoge Hum Kahan Jayege
है बिखरने को ये महफ़िल-ए-रंग-ओ-बू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
हर तरफ़ हो रही है यही गुफ़्तुगू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
हर मता-ए-नफ़स नज़्र-ए-आहंग की हम को याराँ हवस थी बहुत रंग की
गुल-ज़मीं से उबलने को है अब लहू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
अव्वल-ए-शब का महताब भी जा चुका सेहन-ए-मय-ख़ाना से अब उफ़ुक़ में कहीं
आख़िर-ए-शब है ख़ाली हैं जाम-ओ-सुबू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
कोई हासिल न था आरज़ू का मगर सानेहा ये है अब आरज़ू भी नहीं
वक़्त की इस मसाफ़त में बे-आरज़ू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
किस क़दर दूर से लौट कर आए हैं यूँ कहो उम्र बर्बाद कर आए हैं
था सराब अपना सुरमाया-ए-जुस्तजू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
इक जुनूँ था कि आबाद हो शहर-ए-जाँ और आबाद जब शहर-ए-जाँ हो गया
हैं ये सरगोशियाँ दर-ब-दर कू-ब-कू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
दश्त में रक़्स-ए-शौक़-ए-बहार अब कहाँ बाद-पैमाई-ए-दीवाना-वार अब कहाँ
बस गुज़रने को है मौसम-ए-हाव-हू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
हम हैं रुस्वा-कुन-ए-दिल्ली-ओ-लखनऊ अपनी क्या ज़िंदगी अपनी क्या आबरू
‘मीर’ दिल्ली से निकले गए लखनऊ तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
है फ़सीलें उठा रहा मुझ में | Hai Faseele Utha Raha Mujhme
है फ़सीलें उठा रहा मुझ में
जाने ये कौन आ रहा मुझ में
‘जौन’ मुझ को जिला-वतन कर के
वो मिरे बिन भला रहा मुझ में
मुझ से उस को रही तलाश-ए-उमीद
सो बहुत दिन छुपा रहा मुझ में
था क़यामत सुकूत का आशोब
हश्र सा इक बपा रहा मुझ में
पस-ए-पर्दा कोई न था फिर भी
एक पर्दा खिंचा रहा मुझ में
मुझ में आ के गिरा था इक ज़ख़्मी
जाने कब तक पड़ा रहा मुझ में
इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा
कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में
हमारे शौक के आंसू दो, खुशहाल होने तक | Hamare Shauq Ke Aansoo Do, Khushhaal Hone Tak
हमारे शौक के आंसू दो, खुशहाल होने तक
तुम्हारे आरज़ू केसो का सौदा हो चुका होगा
अब ये शोर-ए-हाव हूँ सुना है सारबानो ने
वो पागल काफिले की ज़िद में पीछे रह गया होगा
है निस-ए-शब वो दिवाना अभी तक घर नहीं आया
किसी से चन्दनी रातों का किस्सा छिड़ गया होगा
हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं | Hamare Zakhm-e-Tamanna Purane Ho Gaye Hai
हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं
के उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं
तुम अपने चाहने वालों की बात मत सुनियो
तुम्हारे चाहने वाले दिवाने हो गए हैं
वो ज़ुल्फ़ धूप में फ़ुर्क़त की आई है जब याद
तो बादल आए हैं और शामियाने हो गए हैं
जो अपने तौर से हम ने कभी गुज़ारे थे
वो सुब्ह ओ शाम तो जैसे फ़साने हो गए हैं
अजब महक थी मेरे गुल तेरे शबिस्ताँ की
सो बुलबुलों के वहाँ आशियाने हो गए हैं
हमारे बाद जो आएँ उन्हें मुबारक हो
जहाँ थे कुंज वहाँ कार-ख़ाने हो गए हैं
हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम | Har Baar Mere Saamne Aati Rahi Ho Tum
हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम,
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं,
तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम,
मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं,
तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो आज़ाब में,
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं,
हर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी तूफ़ानी थी | Har Dhadkan Haizani Thi Har Khamoshi Toofani Thi
हर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी तूफ़ानी थी
फिर भी मोहब्बत सिर्फ़ मुसलसल मिलने की आसानी थी
जिस दिन उस से बात हुई थी उस दिन भी बे-कैफ़ था मैं
जिस दिन उस का ख़त आया है उस दिन भी वीरानी थी
जब उस ने मुझ से ये कहा था इश्क़ रिफ़ाक़त ही तो नहीं
तब मैं ने हर शख़्स की सूरत मुश्किल से पहचानी थी
जिस दिन वो मिलने आई है उस दिन की रूदाद ये है
उस का बलाउज़ नारंजी था उस की सारी धानी थी
उलझन सी होने लगती थी मुझ को अक्सर और वो यूँ
मेरा मिज़ाज-ए-इश्क़ था शहरी उस की वफ़ा दहक़ानी थी
अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो
वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी
नाम पे हम क़ुर्बान थे उस के लेकिन फिर ये तौर हुआ
उस को देख के रुक जाना भी सब से बड़ी क़ुर्बानी थी
मुझ से बिछड़ कर भी वो लड़की कितनी ख़ुश ख़ुश रहती है
उस लड़की ने मुझ से बिछड़ कर मर जाने की ठानी थी
इश्क़ की हालत कुछ भी नहीं थी बात बढ़ाने का फ़न था
लम्हे ला-फ़ानी ठहरे थे क़तरों की तुग़्यानी थी
जिस को ख़ुद मैं ने भी अपनी रूह का इरफ़ाँ समझा था
वो तो शायद मेरे प्यासे होंटों की शैतानी थी
था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस का था
थी मेरे दिल की जो रानी अमरोहे की रानी थी
हवास में तो न थे फिर भी क्या न कर आए | Hawaas Mein To Na The Phir Kya Na Kar Aaye
हवास में तो न थे फिर भी क्या न कर आए
कि दार पर गए हम और फिर उतर आए
अजीब हाल के मजनूँ थे जो ब-इश्वा-ओ-नाज़
ब-सू-ए-बाद ये महमिल में बैठ कर आए
कभी गए थे मियाँ जो ख़बर के सहरा की
वो आए भी तो बगूलों के साथ घर आए
कोई जुनूँ नहीं सौदाइयान-ए-सहरा को
कि जो अज़ाब भी आए वो शहर पर आए
बताओ दाम गुरु चाहिए तुम्हें अब क्या
परिंदगान-ए-हवा ख़ाक पर उतर आए
अजब ख़ुलूस से रुख़्सत किया गया हम को
ख़याल-ए-ख़ाम का तावान था सो भर आए
हाए जानाना की मेहमाँ-दारियाँ | Haye | Janana Ki Mehmaan-Daariya
हाए जानाना की मेहमाँ-दारियाँ
और मुझ दिल की बदन आज़ारियाँ
ढा गईं दिल को तिरी दहलीज़ पर
तेरी क़त्ताला सुरीनी भारियाँ
उफ़ शिकन-हा-ए-शिकम जानम तिरी
क्या कटारें हैं कटारें कारियाँ
हाए तेरी छातियों का तन-तनाव
फिर तेरी मजबूरियाँ नाचारीयाँ
तिश्ना-लब है कब से दिल सा शीर-ख़्वार
तेरे दूधों से हैं चश्मे जारीयाँ
दुख ग़ुरूर-ए-हश्र के जाना है कौन
किस ने समझी हश्र की दुश्वारियाँ
अपने दरबाँ को सँभाले रखिए
हैं हवस की अपनी इज़्ज़त-दारियाँ
हैं सिधारी कौन से शहरों तरफ़
लड़कियाँ वो दिल गली की सारियाँ
ख़्वाब जो ता’बीर के बस के न थे
दोस्तों ने उन पे जानें वारियाँ
ख़ल्वत-ए-मिज़राब-ए-साज़-ओ-नाज़ में
चाहिए हम को तेरी सिस्कारियाँ
लफ़्ज़-ओ-म’आनी का बहम क्यूँ है सुख़न
किस ज़माने में थीं इन में यारियाँ
शौक़ का इक दाव बे-शौक़ी भी है
हम हैं उस के हुस्न के इनकारियाँ
मुझ से बद-तौरी न कर ओ शहर-ए-यार
मेरे जूतों के है तलवे ख़ारियाँ
खा गईं उस ज़ालिम-ओ-मज़लूम को
मेरी मज़लूमी-नुमा अय्यारियाँ
ये हरामी हैं ग़रीबों के रक़ीब
हैं मुलाज़िम सब के सब सरकारियाँ
वो जो हैं जीते उन्होंने बे-तरह
जीतने पर हिम्मतें हैं हारियाँ
तुम से जो कुछ भी न कह पाएँ मियाँ
आख़िरश करती वो क्या बे-चारियाँ
हिज्र की आँखों से आँखें तो मिलाते जाइए | Hizra Ki Aankhon Se Aankhein To Milate Jaiye
हिज्र की आँखों से आँखें तो मिलाते जाइए
हिज्र में करना है क्या ये तो बताते जाइए
बन के ख़ुश्बू की उदासी रहिए दिल के बाग़ में
दूर होते जाइए नज़दीक आते जाइए
जाते जाते आप इतना काम तो कीजे मिरा
याद का सारा सर-ओ-सामाँ जलाते जाइए
रह गई उम्मीद तो बरबाद हो जाऊँगा मैं
जाइए तो फिर मुझे सच-मुच भुलाते जाइए
ज़िंदगी की अंजुमन का बस यही दस्तूर है
बढ़ के मिलिए और मिल कर दूर जाते जाइए
आख़िरश रिश्ता तो हम में इक ख़ुशी इक ग़म का था
मुस्कुराते जाइए आँसू बहाते जाइए
वो गली है इक शराबी चश्म-ए-काफ़िर की गली
उस गली में जाइए तो लड़खड़ाते जाइए
आप को जब मुझ से शिकवा ही नहीं कोई तो फिर
आग ही दिल में लगानी है लगाते जाइए
कूच है ख़्वाबों से ताबीरों की सम्तों में तो फिर
जाइए पर दम-ब-दम बरबाद जाते जाइए
आप का मेहमान हूँ मैं आप मेरे मेज़बान
सो मुझे ज़हर-ए-मुरव्वत तो पिलाते जाइए
है सर-ए-शब और मिरे घर में नहीं कोई चराग़
आग तो इस घर में जानाना लगाते जाइए
हू का आलम है यहाँ नाला-गरों के होते | Hu Ka Aalam Hai Yahan Naala-Garo Ke Hote
हू का आलम है यहाँ नाला-गरों के होते
शहर ख़ामोश है शोरीदा-सरों के होते
क्यूँ शिकस्ता है तिरा रंग मता-ए-सद-रंग
और फिर अपने ही ख़ूनीं-जिगरों के होते
कार-ए-फ़र्याद-ओ-फ़ुग़ाँ किस लिए मौक़ूफ़ हुआ
तेरे कूचे में तिरे बा-हुनरों के होते
क्या दिवानों ने तिरे कूच है बस्ती से क्या
वर्ना सुनसान हों राहें निघरों के होते
जुज़ सज़ा और हो शायद कोई मक़्सूद उन का
जा के ज़िंदाँ में जो रहते हैं घरों के होते
शहर का काम हुआ फ़र्त-ए-हिफ़ाज़त से तमाम
और छलनी हुए सीने सिपरों के होते
अपने सौदा-ज़दगाँ से ये कहा है उस ने
चल के अब आइयो पैरों पे सरों के होते
अब जो रिश्तों में बँधा हूँ तो खुला है मुझ पर
कब परिंद उड़ नहीं पाते हैं परों के होते
हम आँधियों के बन में किसी कारवाँ के थे | Hum Aandhiyon Ke Van Mein Kisi Kaarwaan Ke The
हम आँधियों के बन में किसी कारवाँ के थे
जाने कहाँ से आए हैं जाने कहाँ के थे
ऐ जान-ए-दास्ताँ तुझे आया कभी ख़याल
वो लोग क्या हुए जो तिरी दास्ताँ के थे
हम तेरे आस्ताँ पे ये कहने को आए हैं
वो ख़ाक हो गए जो तिरे आस्ताँ के थे
मिल कर तपाक से न हमें कीजिए उदास
ख़ातिर न कीजिए कभी हम भी यहाँ के थे
क्या पूछते हो नाम-ओ-निशान-ए-मुसाफ़िराँ
हिन्दोस्ताँ में आए हैं हिन्दोस्ताँ के थे
अब ख़ाक उड़ रही है यहाँ इंतिज़ार की
ऐ दिल ये बाम-ओ-दर किसी जान-ए-जहाँ के थे
हम किस को दें भला दर-ओ-दीवार का हिसाब
ये हम जो हैं ज़मीं के न थे आसमाँ के थे
हम से छिना है नाफ़-पियाला तिरा मियाँ
गोया अज़ल से हम सफ़-ए-लब-तिश्नगाँ के थे
हम को हक़ीक़तों ने किया है ख़राब-ओ-ख़्वार
हम ख़्वाब-ए-ख़्वाब और गुमान-ए-गुमाँ के थे
सद-याद-ए-याद ‘जौन’ वो हंगाम-ए-दिल कि जब
हम एक गाम के न थे पर हफ़्त-ख़्वाँ के थे
वो रिश्ता-हा-ए-ज़ात जो बरबाद हो गए
मेरे गुमाँ के थे कि तुम्हारे गुमाँ के थे
हम जी रहे हैं कोई बहाना किए बग़ैर | Hum Jee Rahe Hai Koi Bahana Kiye Bagair
हम जी रहे हैं कोई बहाना किए बग़ैर
उस के बग़ैर उस की तमन्ना किए बग़ैर
अम्बार उस का पर्दा-ए-हुरमत बना मियाँ
दीवार तक नहीं गिरी पर्दा किए बग़ैर
याराँ वो जो है मेरा मसीहा-ए-जान-ओ-दिल
बे-हद अज़ीज़ है मुझे अच्छा किए बग़ैर
मैं बिस्तर-ए-ख़याल पे लेटा हूँ उस के पास
सुब्ह-ए-अज़ल से कोई तक़ाज़ा किए बग़ैर
उस का है जो भी कुछ है मिरा और मैं मगर
वो मुझ को चाहिए कोई सौदा किए बग़ैर
ये ज़िंदगी जो है उसे मअना भी चाहिए
वा’दा हमें क़ुबूल है ईफ़ा किए बग़ैर
ऐ क़ातिलों के शहर बस इतनी ही अर्ज़ है
मैं हूँ न क़त्ल कोई तमाशा किए बग़ैर
मुर्शिद के झूट की तो सज़ा बे-हिसाब है
तुम छोड़ियो न शहर को सहरा किए बग़ैर
उन आँगनों में कितना सुकून ओ सुरूर था
आराइश-ए-नज़र तिरी पर्वा किए बग़ैर
याराँ ख़ुशा ये रोज़ ओ शब-ए-दिल कि अब हमें
सब कुछ है ख़ुश-गवार गवारा किए बग़ैर
गिर्या-कुनाँ की फ़र्द में अपना नहीं है नाम
हम गिर्या-कुन अज़ल के हैं गिर्या किए बग़ैर
आख़िर हैं कौन लोग जो बख़्शे ही जाएँगे
तारीख़ के हराम से तौबा किए बग़ैर
वो सुन्नी बच्चा कौन था जिस की जफ़ा ने ‘जौन’
शीआ’ बना दिया हमें शीआ’ किए बग़ैर
अब तुम कभी न आओगे या’नी कभी कभी
रुख़्सत करो मुझे कोई वा’दा किए बग़ैर
हम कहाँ और तुम कहाँ जानाँ | Hum Kahan Aur Tum Kahan Jaana
हम कहाँ और तुम कहाँ जानाँ
हैं कई हिज्र दरमियाँ जानाँ
राएगाँ वस्ल में भी वक़्त हुआ
पर हुआ ख़ूब राएगाँ जानाँ
मेरे अंदर ही तो कहीं गुम है
किस से पूछूँ तिरा निशाँ जानाँ
आलम-ए-बेकरान-ए-रंग है तू
तुझ में ठहरूँ कहाँ कहाँ जानाँ
मैं हवाओं से कैसे पेश आऊँ
यही मौसम है क्या वहाँ जानाँ
रौशनी भर गई निगाहों में
हो गए ख़्वाब बे-अमाँ जानाँ
दर्द-मंदान-ए-कू-ए-दिलदारी
गए ग़ारत जहाँ तहाँ जानाँ
अब भी झीलों में अक्स पड़ते हैं
अब भी नीला है आसमाँ जानाँ
है जो पुर-ख़ूँ तुम्हारा अक्स-ए-ख़याल
ज़ख़्म आए कहाँ कहाँ जानाँ
हम के ए दिल सुखन सरापा थे | Hum Ke Ae Dil Sukhan Sarapa The
हम के ए दिल सुखन सरापा थे
हम लबो पे नहीं रहे आबाद
जाने क्या वाकया हुआ
क्यू लोग अपने अन्दर नहीं रहे आबाद
शहर-ए-दिन मे अज्ब मुहल्ले थे
उनमें अक्सर नहीं रहे आबाद
हम रहे पर नहीं रहे आबाद | Hum Rahe Par Nahi Rahe Aabaad
हम रहे पर नहीं रहे आबाद
याद के घर नहीं रहे आबाद
कितनी आँखें हुईं हलाक-ए-नज़र
कितने मंज़र नहीं रहे आबाद
हम कि ऐ दिल-सुख़न थे सर-ता-पा
हम लबों पर नहीं रहे आबाद
शहर-ए-दिल में अजब मोहल्ले थे
उन में अक्सर नहीं रहे आबाद
जाने क्या वाक़िआ’ हुआ क्यूँ लोग
अपने अंदर नहीं रहे आबाद
हम तिरा हिज्र मनाने के लिए निकले हैं | Hum Tera Hizra Manane Ke Liye Nikle Hai
हम तिरा हिज्र मनाने के लिए निकले हैं
शहर में आग लगाने के लिए निकले हैं
शहर कूचों में करो हश्र बपा आज कि हम
उस के वा’दों को भुलाने के लिए निकले हैं
हम से जो रूठ गया है वो बहुत है मा’सूम
हम तो औरों को मनाने के लिए निकले हैं
शहर में शोर है वो यूँ कि गुमाँ के सफ़री
अपने ही आप में आने के लिए निकले हैं
वो जो थे शहर-ए-तहय्युर तिरे पुर-फ़न मे’मार
वही पुर-फ़न तुझे ढाने के लिए निकले हैं
रहगुज़र में तिरी क़ालीन बिछाने वाले
ख़ून का फ़र्श बिछाने के लिए निकले हैं
हमें करना है ख़ुदावंद की इमदाद सो हम
दैर-ओ-का’बा को लड़ाने के लिए निकले हैं
सर-ए-शब इक नई तमसील बपा होनी है
और हम पर्दा उठाने के लिए निकले हैं
हमें सैराब नई नस्ल को करना है सो हम
ख़ून में अपने नहाने के लिए निकले हैं
हम कहीं के भी नहीं पर ये है रूदाद अपनी
हम कहीं से भी न जाने के लिए निकले हैं
हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं | Hum To Jaise Yahan Ke The Hi Nahi
हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं
धूप थे सायबाँ के थे ही नहीं
रास्ते कारवाँ के साथ रहे,
मर्हले कारवाँ के थे ही नहीं
अब हमारा मकान किस का है,
हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं
इन को आँधि में ही बिखरना था,
बाल-ओ-पर यहाँ के थे ही नहीं
उस गली ने ये सुन के सब्र किया,
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं
हो तेरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम,
हम तेरे आस्ताँ के थे ही नहीं
इक हुनर है जो कर गया हूँ मैं | Ik Hunar Hai Jo Kar Gaya Hoon Main
इक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ कि घर गया हूँ मैं
क्या बताऊँ कि मर नहीं पाता
जीते-जी जब से मर गया हूँ मैं
अब है बस अपना सामना दर-पेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं
वही नाज़-ओ-अदा वही ग़म्ज़े
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं
अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
कि यहाँ सब के सर गया हूँ मैं
कभी ख़ुद तक पहुँच नहीं पाया
जब कि वाँ उम्र भर गया हूँ मैं
तुम से जानाँ मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह ख़ुद से डर गया हूँ मैं
कू-ए-जानाँ में सोग बरपा है
कि अचानक सुधर गया हूँ मैं
इक ज़ख्म भी यारान-ए-बिस्मिल नहीं आने का | Ik Zakhm Bhi Yaaran-e-Bismil Nahi Aane Ka
इक ज़ख्म भी यारान-ए-बिस्मिल नहीं आने का
मक़तल में पड़े रहिए क़ातिल नहीं आने का
अब कूच करो यारो सहरा से के सुनते हैं
सहरा में अब आइंदा महमिल नहीं आने का
वाइज़ को ख़राबे में इक दावत-ए-हक़ दी थी
मैं जान रहा था वो जाहिल नहीं आने का
बुनियाद-ए-जहाँ पहले जो थी वही अब भी है
यूँ हश्र तो यारान-ए-यक-दिल नहीं आने का
बुत है के ख़ुदा है वो माना है न मानूँगा
उस शोख़ से जब तक मैं ख़ुद मिल नहीं आने का
गर दिल की ये महफ़िल है ख़र्चा भी हो फिर दिल का
बाहर से तो सामान-ए-महफ़िल नहीं आने का
वो नाफ़ प्याले से सर-मस्त करे वरना
हो के मैं कभी उस का क़ाइल नहीं आने का
इंक़लाब एक ख़्वाब है सो है | Inqalaab Ek Khawaab Hai So Hai
इंक़लाब एक ख़्वाब है सो है
दिल की दुनिया ख़राब है सो है
रहियो तो यूँही महव-ए-आराइश
बाहर इक इज़्तिराब है सो है
तर है दश्त उस के अक्स-ए-मंज़र से
और ख़ुद वो सराब है सो है
जो भी दश्त-ए-तलब का है पस-ए-रू
वही ज़र्रीं-रिकाब है सो है
शैख़ साहब लिए फिरें तेग़ा
बरहमन फ़त्ह-याब है सौ है
दहर आशोब है सवालों का
और ख़ुदा ला-जवाब है सो है
इस शब-ए-तीरा-ए-हमेशा में
रौशनी एक ख़्वाब है सो है
जाने कहाँ गया वो वो जो अभी यहाँ था | Jaane Kahan Gaya Woh Woh Jo Abhi Yahan Tha
जाने कहाँ गया वो वो जो अभी यहाँ था
वो जो अभी यहाँ था वो कौन था कहाँ था
ता लम्हा-ए-गुज़िश्ता ये जिस्म और साए
ज़िंदा थे राएगाँ में जो कुछ था राएगाँ था
अब जिस की दीद का है सौदा हमारे सर में
वो अपनी ही नज़र में अपना ही इक सामाँ था
क्या क्या न ख़ून थूका मैं उस गली में यारो
सच जानना वहाँ तो जो फ़न था राएगाँ था
ये वार कर गया है पहलू से कौन मुझ पर
था मैं ही दाएँ बाएँ और मैं ही दरमियाँ था
उस शहर की हिफाज़त करनी थी हम को जिस में
आँधी की थीं फ़सीलें और गर्द का मकाँ था
थी इक अजब फ़ज़ा सी इमकान-ए-ख़ाल-ओ-ख़द की
था इक अजब मुसव्विर और वो मेरा गुमाँ था
उम्रें गुज़र गई थीं हम को यक़ीन से बिछड़े
और लम्हा इक गुमाँ का सदियों में बे-अमाँ था
जब डूबता चला मैं तारीकियों की तह में
तह में था इक दरीचा और उस में आसमाँ था
जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका | Jab Main Tumhe Nisaat-e-Mohabbat Na De Saka
जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका
ग़म में कभी सुकून-ए-रफ़ाक़त न दे सका
जब मेरे सारे चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं
फिर मुझे चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
तन्हा कराहाने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
ज़ब्त कर के हँसी को भूल गया | Jabt Kar Ke Hansi Ko Bhool Gaya
ज़ब्त कर के हँसी को भूल गया
मैं तो उस ज़ख़्म ही को भूल गया
ज़ात-दर-ज़ात हम-सफ़र रह कर
अजनबी अजनबी को भूल गया
सुब्ह तक वज्ह-ए-जाँ-कनी थी जो बात
मैं उसे शाम ही को भूल गया
अहद-ए-वाबस्तगी गुज़ार के मैं
वज्ह-ए-वाबस्तगी को भूल गया
सब दलीलें तो मुझ को याद रहीं
बहस क्या थी उसी को भूल गया
क्यूँ न हो नाज़ इस ज़ेहानत पर
एक मैं हर किसी को भूल गया
सब से पुर-अम्न वाक़िआ’ ये है
आदमी आदमी को भूल गया
क़हक़हा मारते ही दीवाना
हर ग़म-ए-ज़िंदगी को भूल गया
ख़्वाब-हा-ख़्वाब जिस को चाहा था
रंग-हा-रंग उसी को भूल गया
क्या क़यामत हुई अगर इक शख़्स
अपनी ख़ुश-क़िस्मती को भूल गया
सोच कर उस की ख़ल्वत-अंजुमनी
वाँ मैं अपनी कमी को भूल गया
सब बुरे मुझ को याद रहते हैं
जो भला था उसी को भूल गया
उन से वा’दा तो कर लिया लेकिन
अपनी कम-फ़ुर्सती को भूल गया
बस्तियो अब तो रास्ता दे दो
अब तो मैं उस गली को भूल गया
उस ने गोया मुझी को याद रखा
मैं भी गोया उसी को भूल गया
या’नी तुम वो हो वाक़ई? हद है
मैं तो सच-मुच सभी को भूल गया
आख़िरी बुत ख़ुदा न क्यूँ ठहरे
बुत-शिकन बुत-गरी को भूल गया
अब तो हर बात याद रहती है
ग़ालिबन मैं किसी को भूल गया
उस की ख़ुशियों से जलने वाला ‘जौन’
अपनी ईज़ा-दही को भूल गया
जाओ क़रार-ए-बे-दिलाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर | Jao Karaar-e-Be=Dila Shaam-b-Khair Shab-b-Khair
जाओ क़रार-ए-बे-दिलाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
सहन हुआ धुआँ धुआँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
शाम-ए-विसाल है क़रीब सुब्ह-ए-कमाल है क़रीब
फिर न रहेंगे सरगिराँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
वज्द करेगी ज़िंदगी जिस्म-ब-जिस्म जाँ-ब-जाँ
जिस्म-ब-जिस्म जाँ-ब-जाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
ऐ मिरे शौक़ की उमंग मेरे शबाब की तरंग
तुझ पे शफ़क़ का साएबाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
तू मिरी शायरी में है रंग-ए-तराज़ ओ गुल-फ़िशाँ
तेरी बहार बे-ख़िज़ाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
तेरा ख़याल ख़्वाब ख़्वाब ख़ल्वत-ए-जाँ की आब-ओ-ताब
जिस्म-ए-जमील-ओ-नौजवाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
है मिरा नाम-ए-अर्जुमंद तेरा हिसार-ए-सर-बुलंद
बानो-ए-शहर-ए-जिस्म-ओ-जाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
दीद से जान-ए-दीद तक दिल से रुख़-ए-उमीद तक
कोई नहीं है दरमियाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
हो गई देर जाओ तुम मुझ को गले लगाओ तुम
तू मिरी जाँ है मेरी जाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर मौज-ए-शमीम-ए-पैरहन
तेरी महक रहेगी याँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
जॉन! गुज़ाश्त-ए-वक्त की हालत-ए-हाल पर सला | Jaun Gujaist-e-Waqt Ki Haalat-e-Haal Par Salaa
जॉन ! गुज़ाश्त-ए-वक्त की हालत-ए-हाल पर सलाम
उस के फ़िराक को दुआ, उसके विसाल पर सलाम
तेरा सितम भी था करम, तेरा करम भी था सितम
बंदगी तेरी तेग को, और तेरी ढाल पर सलाम
सूद-ओ-जयां के फर्क का अब नहीं हम से वास्ता
सुबह को अर्ज़-ए-कोर्निश, शाम-ए-मलाल पर सलाम
अब तो नहीं है लज्ज़त-ए-मुमकिन-ए-शौक भी नसीब
रोज़-ओ-शब ज़माना-ए-शौक महाल पर सलाम
हिज्र-ए-सवाल के है दिन, हिज्र-ए-जवाब के हैं दिन
उस के जवाब पर सलाम, अपने सवाल पर सलाम
जाने वोह रंग-ए-मस्ती-ए-ख्वाब-ओ-ख्याल क्या हुई?
इशरत-ए-ख्वाब की सना, ऐश-ए-ख्याल पर सलाम
अपना कमाल था अजब, अपना ज़वाल था अजब
अपने कमाल पर दारूद, अपने ज़वाल पर सलाम
जी ही जी में वो जल रही होगी | Jee Hi Jee Mein Woh Jal Rahi Hogi
जी ही जी में वो जल रही होगी
चाँदनी में टहल रहीं होगी
चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र
अब वो कपड़े बदल रही होगी
सो गई होगी वो शफ़क़ अन्दाम
सब्ज़ किन्दील जल रही होगी
सुर्ख और सब्ज़ वादियों की तरफ
वो मेरे साथ चल रही होगी
चढ़ते-चढ़ते किसी पहाड़ी पर
अब तो करवट बदल रही होगी
पेड़ की छाल से रगड़ खा कर
वो तने से फिसल रही होगी`
नील को झील नाक तक पहने
सन्दली जिस्म मल रही होगी
हो के वो ख़्वाब-ए-ऐश से बेदार
कितनी ही देर शल रही होगी
जो गुज़र दुश्मन है उस का रहगुज़र रक्खा है नाम | Jo Guzar Dushman Hai Uska Rahguzar Rakha Hai Naam
जो गुज़र दुश्मन है उस का रहगुज़र रक्खा है नाम
ज़ात से अपनी न हिलने का सफ़र रक्खा है नाम
पड़ गया है इक भँवर उस को समझ बैठे हैं घर
लहर उठी है लहर का दीवार-ओ-दर रक्खा है नाम
नाम जिस का भी निकल जाए उसी पर है मदार
उस का होना या न होना क्या, मगर रक्खा है नाम
हम यहाँ ख़ुद आए हैं लाया नहीं कोई हमें
और ख़ुदा का हम ने अपने नाम पर रक्खा है नाम
चाक-ए-चाकी देख कर पैराहन-ए-पहनाई की
मैं ने अपने हर नफ़्स का बख़िया-गर रक्खा है नाम
मेरा सीना कोई छलनी भी अगर कर दे तो क्या
मैं ने तो अब अपने सीने का सिपर रक्खा है नाम
दिन हुए पर तू कहीं होना किसी भी शक्ल में
जाग कर ख़्वाबों ने तेरा रात भर रक्खा है नाम
जो हुआ ‘जौन’ वो हुआ भी नहीं | Jo Hua “Jaun’ Woh Hua Bhi Nahi
जो हुआ ‘जौन’ वो हुआ भी नहीं
या’नी जो कुछ भी था वो था भी नहीं
बस गया जब वो शहर-ए-दिल में मिरे
फिर मैं इस शहर में रहा भी नहीं
इक अजब तौर हाल है कि जो है
या’नी मैं भी नहीं ख़ुदा भी नहीं
लम्हों से अब मुआ’मला क्या हो
दिल पे अब कुछ गुज़र रहा भी नहीं
जानिए मैं चला गया हूँ कहाँ
मैं तो ख़ुद से कहीं गया भी नहीं
तू मिरे दिल में आन के बस जा
और तू मेरे पास आ भी नहीं
जो ज़िंदगी बची है उसे मत गंवाइये | Jo Zindgi Bachi Hai Usse Mat Gawaiye
जो ज़िंदगी बची है उसे मत गंवाइये
बेहतर ये है कि आप मुझे भूल जाइए
हर आन इक जुदाई है ख़ुद अपने आप से
हर आन का है ज़ख़्म जो हर आन खाइए
थी मश्वरत की हम को बसाना है घर नया
दिल ने कहा कि मेरे दर-ओ-बाम ढाइए
थूका है मैं ने ख़ून हमेशा मज़ाक़ में
मेरा मज़ाक़ आप हमेशा उड़ाइए
हरगिज़ मिरे हुज़ूर कभी आइए न आप
और आइए अगर तो ख़ुदा बन के आइए
अब कोई भी नहीं है कोई दिल-मोहल्ले में
किस किस गली में जाइए और गुल मचाइए
इक तौर-ए-दह-सदी था जो बे-तौर हो गया
अब जंतरी बजाइये तारीख़ गाइए
इक लाल-क़िलअ’ था जो मियाँ ज़र्द पड़ गया
अब रंग-रेज़ कौन से किस जा से लाइए
शाइ’र है आप या’नी कि सस्ते लतीफ़-गो
रिश्तों को दिल से रोइए सब को हँसाइए
जो हालतों का दौर था वो तो गुज़र गया
दिल को जला चुके हैं सो अब घर जलाइए
अब क्या फ़रेब दीजिए और किस को दीजिए
अब क्या फ़रेब खाइए और किस से खाइए
है याद पर मदार मेरे कारोबार का
है अर्ज़ आप मुझ को बहुत याद आइए
बस फ़ाइलों का बोझ उठाया करें जनाब
मिस्रा ये ‘जौन’ का है इसे मत उठाइए
जुज़ गुमाँ और था ही क्या मेरा | Juz Gumaan Aur Tha Hi Kya Mera
जुज़ गुमाँ और था ही क्या मेरा
फ़क़त इक मेरा नाम था मेरा
निकहत-ए-पैरहन से उस गुल की
सिलसिला बे-सबा रहा मेरा
मुझ को ख़्वाहिश ही ढूँडने की न थी
मुझ में खोया रहा ख़ुदा मेरा
थूक दे ख़ून जान ले वो अगर
आलम-ए-तर्क-ए-मुद्दआ मेरा
जब तुझे मेरी चाह थी जानाँ
बस वही वक़्त था कड़ा मेरा
कोई मुझ तक पहुँच नहीं पाता
इतना आसान है पता मेरा
आ चुका पेश वो मुरव्वत से
अब चलूँ काम हो चुका मेरा
आज मैं ख़ुद से हो गया मायूस
आज इक यार मर गया मेरा
काम की बात मैं ने की ही नहीं | Kaam Ki Baat Maine Ki Hi Nahi
काम की बात मैं ने की ही नहीं
ये मिरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं
ऐ उमीद ऐ उमीद-ए-नौ-मैदाँ
मुझ से मय्यत तिरी उठी ही नहीं
मैं जो था उस गली का मस्त-ए-ख़िराम
उस गली में मिरी चली ही नहीं
ये सुना है कि मेरे कूच के बा’द
उस की ख़ुश्बू कहीं बसी ही नहीं
थी जो इक फ़ाख़्ता उदास उदास
सुब्ह वो शाख़ से उड़ी ही नहीं
मुझ में अब मेरा जी नहीं लगता
और सितम ये कि मेरा जी ही नहीं
वो जो रहती थी दिल-मोहल्ले में
फिर वो लड़की मुझे मिली ही नहीं
जाइए और ख़ाक उड़ाइए आप
अब वो घर क्या कि वो गली ही नहीं
हाए वो शौक़ जो नहीं था कभी
हाए वो ज़िंदगी जो थी ही नहीं
काम मुझ से कोई हुआ ही नहीं | Kaam Mujhse Se Koi Hua Hi Nahi
काम मुझ से कोई हुआ ही नहीं
बात ये है कि मैं तो था ही नहीं
मुझ से बिछड़ी जो मौज-ए-निकहत-ए-यार
फिर मैं उस शहर में रहा ही नहीं
किस तरह तर्क-ए-मुद्दआ कीजे
जब कोई अपना मुद्दआ’ ही नहीं
कौन हूँ मैं जो राएगाँ ही गया
कौन था जो कभी मिला ही नहीं
हूँ अजब ऐश-ग़म की हालत में
अब किसी से कोई गिला ही नहीं
बात है रास्ते पे जाने की
और जाने का रास्ता ही नहीं
है ख़ुदा ही पे मुनहसिर हर बात
और आफ़त ये है ख़ुदा ही नहीं
दिल की दुनिया कुछ और ही होती
क्या कहें अपना बस चला ही नहीं
अब तो मुश्किल है ज़िंदगी दिल की
या’नी अब कोई माजरा ही नहीं
हर तरफ़ एक हश्र बरपा है
‘जौन’ ख़ुद से निकल के जा ही नहीं
मौज आती थी ठहरने की जहाँ
अब वहाँ खेमा-ए-सबा ही नहीं
कब उस का विसाल चाहिए था | Kab Uska Visaal Chahiye Tha
कब उस का विसाल चाहिए था
बस एक ख़याल चाहिए था
कब दिल को जवाब से ग़रज़ थी
होंटों को सवाल चाहिए था
शौक़ एक नफ़स था और वफ़ा को
पास-ए-मह-ओ-साल चाहिए था
इक चेहरा-ए-सादा था जो हम को
बे-मिस्ल-ओ-मिसाल चाहिए था
इक कर्ब में ज़ात-ओ-ज़िंदगी हैं
मुमकिन को मुहाल चाहिए था
मैं क्या हूँ बस इक मलाल-ए-माज़ी
इस शख़्स को हाल चाहिए था
हम तुम जो बिछड़ गए हैं हम को
कुछ दिन तो मलाल चाहिए था
वो जिस्म जमाल था सरापा
और मुझ को जमाल चाहिए था
वो शोख़ रमीदा मुझ को अपनी
बाँहों में निढाल चाहिए था
था वो जो कमाल-ए-शौक़-ए-वसलत
ख़्वाहिश को ज़वाल चाहिए था
जो लम्हा-ब-लम्हा मिल रहा है
वो साल-ब-साल चाहिए था
कभी कभी तो बहुत याद आने लगते हो | Kabhi Kabhi To Bahut Yaad Aane Lagte Ho
कभी कभी तो बहुत याद आने लगते हो
कि रूठते हो कभी और मनाने लगते हो
गिला तो ये है तुम आते नहीं कभी लेकिन
जब आते भी हो तो फ़ौरन ही जाने लगते हो
ये बात ‘जौन’ तुम्हारी मज़ाक़ है कि नहीं
कि जो भी हो उसे तुम आज़माने लगते हो
तुम्हारी शाइ’री क्या है बुरा भला क्या है
तुम अपने दिल की उदासी को गाने लगते हो
सुरूद-ए-आतिश-ए-ज़र्रीन-ए-सहन-ए-ख़ामोशी
वो दाग़ है जिसे हर शब जलाने लगते हो
सुना है काहकशानों में रोज़-ओ-शब ही नहीं
तो फिर तुम अपनी ज़बाँ क्यूँ जलाने लगते हो
कभी जब मुद्दतों के बा’द उस का सामना होगा | Kabhi Jab Muddato Ke Baad Uska Saamna Hoga
कभी जब मुद्दतों के बा’द उस का सामना होगा
सिवाए पास आदाब-ए-तकल्लुफ़ और क्या होगा
यहाँ वो कौन है जो इंतिख़ाब-ए-ग़म पे क़ादिर हो
जो मिल जाए वही ग़म दोस्तों का मुद्दआ’ होगा
नवेद-ए-सर-ख़ुशी जब आएगी उस वक़्त तक शायद
हमें ज़हर-ए-ग़म-ए-हस्ती गवारा हो चुका होगा
सलीब-ए-वक़्त पर मैं ने पुकारा था मोहब्बत को
मिरी आवाज़ जिस ने भी सुनी होगी हँसा होगा
अभी इक शोर-ए-हा-ओ-हू सुना है सारबानों ने
वो पागल क़ाफ़िले की ज़िद में पीछे रह गया होगा
हमारे शौक़ के आसूदा-ओ-ख़ुश-हाल होने तक
तुम्हारे आरिज़-ओ-गेसू का सौदा हो चुका होगा
नवाएँ निकहतें आसूदा चेहरे दिल-नशीं रिश्ते
मगर इक शख़्स इस माहौल में क्या सोचता होगा
हँसी आती है मुझ को मस्लहत के इन तक़ाज़ों पर
कि अब इक अजनबी बन कर उसे पहचानना होगा
दलीलों से दवा का काम लेना सख़्त मुश्किल है
मगर इस ग़म की ख़ातिर ये हुनर भी सीखना होगा
वो मुंकिर है तो फिर शायद हर इक मकतूब-ए-शौक़ उस ने
सर-अंगुश्त-ए-हिनाई से ख़लाओं में लिखा होगा
है निस्फ़-ए-शब वो दीवाना अभी तक घर नहीं आया
किसी से चाँदनी रातों का क़िस्सा छिड़ गया होगा
सबा शिकवा है मुझ को उन दरीचों से दरीचों से
दरीचों में तो दीमक के सिवा अब और क्या होगा
कैसा दिल और इस के क्या ग़म जी | Kaisa Dil Aur Iss Ke Kya Gham Ji
कैसा दिल और इस के क्या ग़म जी
यूँही बातें बनाते हैं हम जी
क्या भला आस्तीन और दामन
कब से पलकें भी अब नहीं नम जी
उस से अब कोई बात क्या करना
ख़ुद से भी बात कीजे कम-कम जी
दिल जो दिल क्या था एक महफ़िल था
अब है दरहम जी और बरहम जी
बात बे-तौर हो गई शायद
ज़ख़्म भी अब नहीं है मरहम जी
हार दुनिया से मान ले शायद
दिल हमारे में अब नहीं दम जी
है ये हसरत के ज़ब्ह हो जाऊँ
है शिकन उस शिकम कि ज़ालिम जी
कैसे आख़िर न रंग खेलें हम
दिल लहू हो रहा है जानम जी
है ख़राबा हुसैनिया अपना
रोज़ मज्लिस है और मातम जी
वक़्त दम भर का खेल है इस में
बेश-अज़-बेश है कम-अज़-कम जी
है अज़ल से अबद तलक का हिसाब
और बस एक पल है पैहम जी
बे-शिकन हो गई हैं वो ज़ुल्फ़ें
उस गली में नहीं रहे ख़म जी
दश्त-ए-दिल का ग़ज़ाल ही न रहा
अब भला किस से कीजिए रम जी
कौन से शौक़ किस हवस का नहीं | Kaun Se Shauq Kis Hawas Ka Nahi
कौन से शौक़ किस हवस का नहीं
दिल मिरी जान तेरे बस का नहीं
राह तुम कारवाँ की लो कि मुझे
शौक़ कुछ नग़्मा-ए-जरस का नहीं
हाँ मिरा वो मोआ’मला है कि अब
काम यारान-ए-नुक्ता-रस का नहीं
हम कहाँ से चले हैं और कहाँ
कोई अंदाज़ा पेश-ओ-पस का नहीं
हो गई उस गले में उम्र तमाम
पास शो’ले को ख़ार-ओ-ख़स का नहीं
मुझ को ख़ुद से जुदा न होने दो
बात ये है मैं अपने बस का नहीं
क्या लड़ाई भला कि हम में से
कोई भी सैंकड़ों बरस का नहीं
ख़ामोशी कह रही है कान में क्या | Khamoshi Keh Rahi Hai Kaan Mein Kya
ख़ामोशी कह रही है, कान में क्या
आ रहा है मेरे, गुमान में क्या
अब मुझे कोई, टोकता भी नहीं
यही होता है, खानदान में क्या
बोलते क्यों नहीं, मेरे हक़ में
आबलेछाले पड़ गये, ज़बान में क्या
मेरी हर बात, बे-असर ही रही
नुक़्स है कुछ, मेरे बयान में क्या
वो मिले तो ये, पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तेरी, अमान में क्या
शाम ही से, दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुकसान तक, दुकान में क्या
यूं जो तकता है, आसमान को तू
कोई रहता है, आसमान में क्या
ये मुझे चैन, क्यूँ नहीं पड़ता
इक ही शख़्स था, जहान में क्या
ख़्वाब के रंग दिल-ओ-जाँ में सजाए भी गए | Khawab Ke Rang Dil-o-Jaan Mein Sajaye Bhi Gaye
ख़्वाब के रंग दिल-ओ-जाँ में सजाए भी गए
फिर वही रंग ब-सद तौर जलाए भी गए
उन्हीं शहरों को शिताबी से लपेटा भी गया
जो ‘अजब शौक़-ए-फ़राख़ी से बिछाए भी गए
बज़्म शोख़ी का किसी की कहें क्या हाल-ए-जहाँ
दिल जलाए भी गए और बुझाए भी गए
पुश्त मिट्टी से लगी जिस में हमारी लोगो
उसी दंगल में हमें दाव सिखाए भी गए
याद-ए-अय्याम कि इक महफ़िल-ए-जाँ थी कि जहाँ
हाथ खींचे भी गए और मिलाए भी गए
हम कि जिस शहर में थे सोग-नशीन-ए-अहवाल
रोज़ इस शहर में हम धूम मचाए भी गए
याद मत रखियो ये रूदाद हमारी हरगिज़
हम थे वो ताज-महल ‘जौन’ जो ढाए भी गए
ख़्वाब की हालातों के साथ तेरी हिकायतों में हैं | Khawab Ki Haalato Ke Saath Teri Hikayaton Mein Hai
ख़्वाब की हालातों के साथ तेरी हिकायतों में हैं
हम भी दयार-ए-अहल-ए-दिल तेरी रिवायतों में हैं
वो जो थे रिश्ता-हा-ए-जाँ टूट सके भला कहाँ
जान वो रिश्ता-हा-ए-जाँ अब भी शिकायतों में हैं
एक ग़ुबार है कि है दायरा-वार पुर-फ़िशाँ
क़ाफ़िला-हा-ए-कहकशाँ तंग हैं वहशतों में हैं
वक़्त की दरमियानियाँ कर गईं जाँ-कनी को जाँ
वो जो अदावतें कि थीं आज मोहब्बतों में हैं
परतव-ए-रंग है कि है दीद में जाँ-नशीन-ए-रंग
रंग कहाँ हैं रूनुमा रंग तो निकहतों में हैं
है ये वजूद की नुमूद अपनी नफ़स नफ़स गुरेज़
वक़्त की सारी बस्तियाँ अपनी हज़ीमतों में हैं
गर्द का सारा ख़ानुमाँ है सर-ए-दश्त-ए-बे-अमाँ
शहर हैं वो जो हर तरह गर्द की ख़िदमतों में हैं
वो दिल ओ जान सूरतें जैसे कभी न थीं कहीं
हम उन्हीं सूरतों के हैं हम उन्हीं सूरतों में हैं
मैं न सुनूँगा माजरा मा’रका-हा-ए-शौक़ का
ख़ून गए हैं राएगाँ रंग नदामतों में हैं
ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी | Khoob Hai Shauq Ka Yeh Pehloo Bhi
ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी
मैं भी बरबाद हो गया तू भी
हुस्न-ए-मग़मूम तमकनत में तिरी
फ़र्क़ आया न यक-सर-ए-मू भी
ये न सोचा था ज़ेर-ए-साया-ए-ज़ुल्फ़
कि बिछड़ जाएगी ये ख़ुश-बू भी
हुस्न कहता था छेड़ने वाले
छेड़ना ही तो बस नहीं छू भी
हाए वो उस का मौज-ख़ेज़ बदन
मैं तो प्यासा रहा लब-ए-जू भी
याद आते हैं मो’जिज़े अपने
और उस के बदन का जादू भी
यासमीं उस की ख़ास महरम-ए-राज़
याद आया करेगी अब तू भी
याद से उस की है मिरा परहेज़
ऐ सबा अब न आइयो तू भी
हैं यही ‘जौन-एलिया’ जो कभी
सख़्त मग़रूर भी थे बद-ख़ू भी
ख़ून थूकेगी ज़िंदगी कब तक | Khoon Thookegi Zindgi Kab Tak
ख़ून थूकेगी ज़िंदगी कब तक
याद आएगी अब तिरी कब तक
जाने वालों से पूछना ये सबा
रहे आबाद दिल-गली कब तक
हो कभी तो शराब-ए-वस्ल नसीब
पिए जाऊँ मैं ख़ून ही कब तक
दिल ने जो उम्र-भर कमाई है
वो दुखन दिल से जाएगी कब तक
जिस में था सोज़-ए-आरज़ू उस का
शब-ए-ग़म वो हवा चली कब तक
बनी-आदम की ज़िंदगी है अज़ाब
ये ख़ुदा को रुलाएगी कब तक
हादिसा ज़िंदगी है आदम की
साथ देगी भला ख़ुशी कब तक
है जहन्नुम जो याद अब उस की
वो बहिश्त-ए-वजूद थी कब तक
वो सबा उस के बिन जो आई थी
वो उसे पूछती रही कब तक
मीर-‘जौनी’ ज़रा बताएँ तो
ख़ुद में ठहरेंगे आप ही कब तक
हाल-ए-सहन-ए-वजूद ठहरेगा
तेरा हंगाम-ए-रुख़्सती कब तक
ख़ुद मैं ही गुज़र के थक गया हूँ | Khud Main Hi Guzar Ke Thak Gaya Hoon
ख़ुद मैं ही गुज़र के थक गया हूँ
मैं काम न कर के थक गया हूँ
ऊपर से उतर के ताज़ा-दम था
नीचे से उतर के थक गया हूँ
अब तुम भी तो जी के थक रहे हो
अब मैं भी तो मर के थक गया हूँ
मैं या’नी अज़ल का आर्मीदा
लम्हों में बिखर के थक गया हूँ
अब जान का मेरी जिस्म शल है
मैं ख़ुद से ही डर के थक गया हूँ
ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ | Khud Se Hum Ek Nafas Hile Bhi Kahan
ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ|
उस को ढूँढें तो वो मिले भी कहाँ|
ख़ेमा-ख़ेमा गुज़ार ले ये शब,
सुबह-दम ये क़ाफिले भी कहाँ|
अब त’मुल न कर दिल-ए- ख़ुदकाम,
रूठ ले फिर ये सिलसिले भी कहाँ|
आओ आपस में कुछ गिले कर लें,
वर्ना यूँ है के फिर गिले भी कहाँ|
ख़ुश हो सीने की इन ख़राशों पर,
फिर तनफ़्फ़ुस के ये सिले भी कहाँ
ख़ुद से रिश्ते रहे कहाँ उन के | Khud Se Rishtey Rahe Kahan Unke
ख़ुद से रिश्ते रहे कहाँ उन के
ग़म तो जाने थे राएगाँ उन के
मस्त उन को गुमाँ में रहने दे
ख़ाना-बर्बाद हैं गुमाँ उन के
यार सुख नींद हो नसीब उन को
दुख ये है दुख हैं बे-अमाँ उन के
कितनी सरसब्ज़ थी ज़मीं उन की
कितने नीले थे आसमाँ उन के
नौहा-ख़्वानी है क्या ज़रूर उन्हें
उन के नग़्मे हैं नौहा-ख़्वाँ उन के
किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे | Kis Se Izhaar-e-Muddaa Keeje
किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे
आप मिलते नहीं हैं क्या कीजे
हो न पाया ये फ़ैसला अब तक
आप कीजे तो क्या किया कीजे
आप थे जिस के चारा-गर वो जवाँ
सख़्त बीमार है दुआ कीजे
एक ही फ़न तो हम ने सीखा है
जिस से मिलिए उसे ख़फ़ा कीजे
है तक़ाज़ा मिरी तबीअ’त का
हर किसी को चराग़-पा कीजे
है तो बारे ये आलम-ए-असबाब
बे-सबब चीख़ने लगा कीजे
आज हम क्या गिला करें उस से
गिला-ए-तंगी-ए-क़बा कीजे
नुत्क़ हैवान पर गराँ है अभी
गुफ़्तुगू कम से कम किया कीजे
हज़रत-ए-ज़ुल्फ़-ए-ग़ालिया-अफ़्शाँ
नाम अपना सबा सबा कीजे
ज़िंदगी का अजब मोआ’मला है
एक लम्हे में फ़ैसला कीजे
मुझ को आदत है रूठ जाने की
आप मुझ को मना लिया कीजे
मिलते रहिए इसी तपाक के साथ
बेवफ़ाई की इंतिहा कीजे
कोहकन को है ख़ुद-कुशी ख़्वाहिश
शाह-बानो से इल्तिजा कीजे
मुझ से कहती थीं वो शराब आँखें
आप वो ज़हर मत पिया कीजे
रंग हर रंग में है दाद-तलब
ख़ून थूकूँ तो वाह-वा कीजे
किसी लिबास की ख़ुशबू जब उड़ के आती है | Kisi Libaas Ki Khushboo Jab Udd Ke Aati Hai
किसी लिबास की ख़ुशबू जब उड़ के आती है
तेरे बदन की जुदाई बहुत सताती है
तेरे बगैर मुझे चैन कैसे पड़ता है
मेरे बगैर तुझे नींद कैसे आती है
रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में
रस्म ही क्या निभानी होती
मुस्कुराए हम उससे मिलते वक्त
रो न पड़ते अगर खुशी होती
दिल में जिनका कोई निशाँ न रहा
क्यों न चेहरो पे वो रंग खिले
अब तो ख़ाली है रूह जज़्बों से
अब भी क्या तबाज़ से न मिले
किसी से अहद-ओ-पैमाँ कर न रहियो | Kisi Se Ahad-o-Paimaan Kar Na Rahiyo
किसी से अहद-ओ-पैमाँ कर न रहियो
तो उस बस्ती में रहियो पर न रहियो
सफ़र करना है आख़िर दो पलक बीच
सफ़र लम्बा है बे बिस्तर न रहियो
हर इक हालत के बेरी हैं ये लम्हे
किसी ग़म के भरोसे पर न रहियो
सुहूलत से गुज़र जाओ मिरी जाँ
कहीं जीने की ख़ातिर मर न रहियो
हमारा उम्र-भर का साथ ठेरा
सो मेरे साथ तू दिन-भर न रहियो
बहुत दुश्वार हो जाएगा जीना
यहाँ तो ज़ात के अंदर न रहियो
सवेरे ही से घर आजाइयो आज
है रोज़-ए-वाक़िआ’ बाहर न रहियो
कहीं छुप जाओ तह ख़ानों में जा कर
शब-ए-फ़ित्ना है अपने घर न रहियो
नज़र पर बार हो जाते हैं मंज़र
जहाँ रहियो वहाँ अक्सर न रहियो
किसी से कोई ख़फ़ा भी नहीं रहा अब तो | Kisi Se Koi Khafa Bhi Nahi Raha Ab To
किसी से कोई ख़फ़ा भी नहीं रहा अब तो
गिला करो कि गिला भी नहीं रहा अब तो
वो काहिशें हैं कि ऐश-ए-जुनूँ तो क्या या’नी
ग़ुरूर-ए-ज़ेहन-ए-रसा भी नहीं रहा अब तो
शिकस्त-ए-ज़ात का इक़रार और क्या होगा
कि इद्दा-ए-वफ़ा भी नहीं रहा अब तो
चुने हुए हैं लबों पर तिरे हज़ार जवाब
शिकायतों का मज़ा भी नहीं रहा अब तो
हूँ मुब्तला-ए-यक़ीं मेरी मुश्किलें मत पूछ
गुमान-ए-उक़्दा-कुशा भी नहीं रहा अब तो
मिरे वजूद का अब क्या सवाल है या’नी
मैं अपने हक़ में बुरा भी नहीं रहा अब तो
यही अतिय्या-ए-सुब्ह-ए-शब-ए-विसाल है क्या
कि सेहर-ए-नाज़-ओ-अदा भी नहीं रहा अब तो
यक़ीन कर जो तिरी आरज़ू में था पहले
वो लुत्फ़ तेरे सिवा भी नहीं रहा अब तो
वो सुख वहाँ कि ख़ुदा की हैं बख़्शिशें क्या क्या
यहाँ ये दुख कि ख़ुदा भी नहीं रहा अब तो
कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे | Kitne Aish Udate Hoge Kitne Itrate Hoge
कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा,
यूँ ही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे
बंद रहे जिन का दरवाज़ा ऐसे घरों की मत पूछो,
दीवारें गिर जाती होंगी आँगन रह जाते होंगे
मेरी साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएंगे,
यानी मेरे बाद भी यानी साँस लिये जाते होंगे
यारो कुछ तो हाल सुनाओ उस की क़यामत बाहों की,
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे
यारो कुछ तो बात बताओ उस की क़यामत बाहों की,
वो जो सिमटते होंगे इन में वो तो मर जाते होंगे
कोई दम भी मैं कब अंदर रहा हूँ | Koi Dum Bhi Main Kab Andar Raha Hoon
कोई दम भी मैं कब अंदर रहा हूँ
लिए हैं साँस और बाहर रहा हूँ
धुएं में साँस हैं साँसों में पल हैं
मैं रौशन-दान तक बस मर रहा हूँ
फ़ना हर दम मुझे गिनती रही है
मैं इक दम का था और दिन भर रहा हूँ
ज़रा इक साँस रोका तो लगा यूँ
के इतनी देर अपने घर रहा हूँ
ब-जुज़ अपने मयस्सर है मुझे क्या
सो ख़ुद से अपनी जेबें भर रहा हूँ
हमेशा ज़ख़्म पहुँचे हैं मुझी को
हमेशा मैं पस-ए-लश्कर रहा हूँ
लिटा दे नींद के बिस्तर पे ऐ रात
मैं दिन भर अपनी पलकों पर रहा हूँ
कोई हालत नहीं ये हालत है | Koi Haalat Nahi Yeh Haalat Hai
कोई हालत नहीं ये हालत है
ये तो आशोभना सूरत है
अन्जुमन में ये मेरी खामोशी
गुर्दबारी नहीं है वहशत है
तुझ से ये गाह-गाह का शिकवा
जब तलक है बस गनिमत है
ख्वाहिशें दिल का साथ छोड़ गईं
ये अज़ीयत बड़ी अज़ीयत है
लोग मसरूफ़ जानते हैं मुझे
या मेरा गम ही मेरी फुरसत है
तंज़ पैरा-या-ए-तबस्सुम में
इस तक्ल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है
हमने देखा तो हमने ये देखा
जो नहीं है वो ख़ूबसूरत है
वार करने को जाँनिसार आए
ये तो इसार है इनायत है
गर्म-जोशी और इस कदर क्या बात
क्या तुम्हें मुझ से कुछ शिकायत है
अब निकल आओ अपने अन्दर से
घर में सामान की ज़रूरत है
आज का दिन भी ऐश से गुज़रा
सर से पाँव तक बदन सलामत है
कू-ए-जानाँ में और क्या माँगो | Koo-e-Jaana Mein Aur Kya Maango
कू-ए-जानाँ में और क्या माँगो
हालत-ए-हाल यक सदा माँगो
हर-नफ़स तुम यक़ीन-ए-मुनइम से
रिज़्क़ अपने गुमान का माँगो
है अगर वो बहुत ही दिल नज़दीक
उस से दूरी का सिलसिला माँगो
दर-ए-मतलब है क्या तलब-अंगेज़
कुछ नहीं वाँ सो कुछ भी जा माँगो
गोशा-गीर-ए-ग़ुबार-ए-ज़ात हूँ में
मुझ में हो कर मिरा पता माँगो
मुनकिरान-ए-ख़ुदा-ए-बख़शिंदा
उस से तो और इक ख़ुदा माँगो
उस शिकम-रक़्स-गर के साइल हो
नाफ़-प्याले की तुम अता माँगो
लाख जंजाल माँगने में हैं
कुछ न माँगो फ़क़त दुआ माँगो
क्या हो गया है गेसू-ए-ख़म-दार को तेरे | Kya Ho Gaya Hai Gesu-e-Kham Daar Ko Tere
क्या हो गया है गेसू-ए-ख़म-दार को तेरे
आज़ाद कर रहे हैं गिरफ़्तार को तेरे
अब तू है मुद्दतों से शब ओ रोज़ रू-ब-रू
कितने ही दिन गुज़र गए दीदार को तेरे
कल रात चोब-दार समेत आ के ले गया
इक ग़ोल-ए-तरह-दार सर-ए-दार को तेरे
अब इतनी कुंद हो गई धार ऐ यक़ीं तेरी
अब रोकता नहीं है कोई वार को तेरे
अब रिश्ता-ए-मरीज़-ओ-मसीहा हुआ है ख़्वार
सब पेशा-वर समझते हैं बीमार को तेरे
बाहर निकल के आ दर-ओ-दीवार-ए-ज़ात से
ले जाएगी हवा दर ओ दीवार को तेरे
ऐ रंग उस में सूद है तेरा ज़ियाँ नहीं
ख़ुशबू उड़ा के ले गई ज़ंगार को तेरे
क्या हुए आशुफ़्ता-काराँ क्या हुए | Kya Huye Aashufta-Kaaran Kya Huye
क्या हुए आशुफ़्ता-काराँ क्या हुए
याद-ए-याराँ यार-ए-याराँ क्या हुए
अब तो अपनों में से कोई भी नहीं
वो परेशाँ रोज़गाराँ क्या हुए
सो रहा है शाम ही से शहर-ए-दिल
शहर के शब-ज़िंदा-दाराँ क्या हुए
उस की चश्म-ए-नीम-वा से पूछियो
वो तिरे मिज़्गाँ-शुमाराँ क्या हुए
ऐ बहार-ए-इंतिज़ार-ए-फ़स्ल-ए-गुल
वो गरेबाँ-तार-ताराँ क्या हुए
क्या हुए सूरत-निगाराँ ख़्वाब के
ख़्वाब के सूरत-निगाराँ क्या हुए
याद उस की हो गई है बे-अमाँ
याद के बे-यादगाराँ क्या हुए
क्या कहें तुम से बूद-ओ-बाश अपनी | Kya Kahe Tum Se Bood-o-Baash Apni
क्या कहें तुम से बूद-ओ-बाश अपनी
काम ही क्या वही तलाश अपनी
कोई दम ऐसी ज़िंदगी भी करें
अपना सीना हो और ख़राश अपनी
अपने ही तेशा-ए-नदामत से
ज़ात है अब तो पाश पाश अपनी
है लबों पर नफ़स-ज़नी की दुकाँ
यावा-गोई है बस मआश अपनी
तेरी सूरत पे हूँ निसार प अब
और सूरत कोई तराश अपनी
जिस्म ओ जाँ को तो बेच ही डाला
अब मुझे बेचनी है लाश अपनी
क्या यक़ीं और क्या गुमाँ चुप रह | Kya Yakeen Aur Kya Gumaan Chup Rah
क्या यक़ीं और क्या गुमाँ चुप रह
शाम का वक़्त है मियाँ चुप रह
हो गया क़िस्सा-ए-वजूद तमाम
है अब आग़ाज़-ए-दास्ताँ चुप रह
मैं तो पहले ही जा चुका हूँ कहीं
तू भी जानाँ नहीं यहाँ चुप रह
तू अब आया है हाल में अपने
जब ज़मीं है न आसमाँ चुप रह
तू जहाँ था जहाँ जहाँ था कभी
तू भी अब तो नहीं वहाँ चुप रह
ज़िक्र छेड़ा ख़ुदा का फिर तू ने
याँ है इंसाँ भी राएगाँ चुप रह
सारा सौदा निकाल दे सर से
अब नहीं कोई आस्ताँ चुप रह
अहरमन हो ख़ुदा हो या आदम
हो चुका सब का इम्तिहाँ चुप रह
दरमियानी ही अब सभी कुछ है
तू नहीं अपने दरमियाँ चुप रह
अब कोई बात तेरी बात नहीं
नहीं तेरी तिरी ज़बाँ चुप रह
है यहाँ ज़िक्र-ए-हाल-ए-मौजूदाँ
तू है अब अज़-गुज़िश्तगाँ चुप रह
हिज्र की जाँ-कनी तमाम हुई
दिल हुआ ‘जौन’ बे-अमाँ चुप रह
क्या ये आफ़त नहीं ‘अज़ाब नहीं | Kya Yeh Aafat Nahi Ajaab Nahi
क्या ये आफ़त नहीं ‘अज़ाब नहीं
दिल की हालत बहुत ख़राब नहीं
बूद पल पल की बे-हिसाबी है
कि मुहासिब नहीं हिसाब नहीं
ख़ूब गाओ बजाओ और पियो
इन दिनों शहर में जनाब नहीं
सब भटकते हैं अपनी गलियों में
ता-ब-ख़ुद कोई बारयाब नहीं
तू ही मेरा सवाल अज़ल से है
और साजन तिरा जवाब नहीं
हिफ़्ज़ है शम्स-ए-बाज़ग़ा मुझ को
पर मयस्सर वो माहताब नहीं
तुझ को दिल-दर्द का नहीं एहसास
सो मिरी पिंडलियों को दाब नहीं
नहीं जुड़ता ख़याल को भी ख़याल
ख़्वाब में भी तो कोई ख़्वाब नहीं
सतर-ए-मू उस की ज़ेर-ए-नाफ़ की हाए
जिस की चाक़ू-ज़नों को ताब नहीं
लम्हे लम्हे की ना-रसाई है | Lamhe Lamhe Ki Na Rasayi Hai
लम्हे लम्हे की ना-रसाई है
ज़िंदगी हालत-ए-जुदाई है
मर्द-ए-मैदाँ हूँ अपनी ज़ात का मैं
मैं ने सब से शिकस्त खाई है
इक अजब हाल है कि अब उस को
याद करना भी बेवफ़ाई है
अब ये सूरत है जान-ए-जाँ कि तुझे
भूलने में मिरी भलाई है
ख़ुद को भूला हूँ उस को भूला हूँ
उम्र भर की यही कमाई है
मैं हुनर-मंद-ए-रंग हूँ मैं ने
ख़ून थूका है दाद पाई है
जाने ये तेरे वस्ल के हंगाम
तेरी फ़ुर्क़त कहाँ से आई है
लाज़िम है अपने आप की इमदाद कुछ करूँ | Lazim Hai Apne Aap Ki Imdaad Kuch Karu
लाज़िम है अपने आप की इमदाद कुछ करूँ
सीने में वो ख़ला है के ईजाद कुछ करूँ
हर लम्हा अपने आप में पाता हूँ कुछ कमी
हर लम्हा अपने आप में ईज़ाद कुछ करूँ
रू-कार से तो अपनी मैं लगता हूँ पाए-दार
बुनियाद रह गई पा-ए-बुनियाद कुछ करूँ
तारी हुआ है लम्हा-ए-मौजूद इस तरह
कुछ भी न याद आए अगर याद कुछ करूँ
मौसम का मुझ से कोई तक़ाज़ा है दम-ब-दम
बे-सिलसिला नहीं नफ़स-ए-बाद कुछ करूँ
मैं न ठहरूँ न जान तू ठहरे | Main Na Thehru Na Jaan Tu Thehre
मैं न ठहरूँ न जान तू ठहरे
कौन लम्हों के रू-ब-रू ठहरे
न गुज़रने पे ज़िंदगी गुज़री
न ठहरने पे चार-सू ठहरे
है मिरी बज़्म-ए-बे-दिली भी अजीब
दिल पे रक्खूँ जहाँ सुबू ठहरे
मैं यहाँ मुद्दतों में आया हूँ
एक हंगामा कू-ब-कू ठहरे
महफ़िल-ए-रुख़्सत-ए-हमेशा है
आओ इक हश्र-ए-हा-ओ-हू ठहरे
इक तवज्जोह अजब है सम्तों में
कि न बोलूँ तो गुफ़्तुगू ठहरे
कज-अदा थी बहुत उमीद मगर
हम भी ‘जौन’ एक हीला-जू ठहरे
एक चाक-ए-बरहंगी है वजूद
पैरहन हो तो बे-रफ़ू ठहरे
मैं जो हूँ क्या नहीं हूँ मैं ख़ुद भी
ख़ुद से बात आज दू-बदू ठहरे
बाग़-ए-जाँ से मिला न कोई समर
‘जौन’ हम तो नुमू नुमू ठहरे
मस्कन-ए-माह-ओ-साल छोड़ गया | Maskan-e-Maah-o-Saal Chhod Gaya
मस्कन-ए-माह-ओ-साल छोड़ गया
दिल को उस का ख़याल छोड़ गया
ताज़ा-दम जिस्म-ओ-जाँ थे फ़ुर्क़त में
वस्ल उस का निढाल छोड़ गया
अहद-ए-माज़ी जो था अजब पुर-हाल
एक वीरान हाल छोड़ गया
झाला-बारी के मरहलों का सफ़र
क़ाफ़िले पाएमाल छोड़ गया
दिल को अब ये भी याद हो कि न हो
कौन था क्या मलाल छोड़ गया
मैं भी अब ख़ुद से हूँ जवाब-तलब
वो मुझे बे-सवाल छोड़ गया
मसनद-ए-ग़म पे जच रहा हूँ मैं | Masnad-e-Gham Pe Jach Raha Hoon Main
मसनद-ए-ग़म पे जच रहा हूँ मैं
अपना सीना खुरच रहा हूँ मैं
ऐ सगान-ए-गुरसना-ए-अय्याम
जूँ ग़िज़ा तुम को पच रहा हूँ मैं
अन्दरून-ए-हिसार-ए-ख़ामोशी
शोर की तरह मच रहा हूँ मैं
वक़्त का ख़ून-ए-राएगाँ हूँ मगर
ख़ुश्क लम्हों में रच रहा हूँ मैं
ख़ून में तर-ब-तर रहा मिरा नाम
हर ज़माने का सच रहा हूँ मैं
हाल ये है कि अपनी हालत पर
ग़ौर करने से बच रहा हूँ मैं
महक उठा है आंगन इस खबर से | Mehak Utha Hai Aangan Iss Khabar Se
महक उठा है आँगन इस ख़बर से
वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से
जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम
दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे
मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से
गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की
मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से
उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद
हमारी चाँदनी छाए तो तरसे
मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान
कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से
मुझ को तो गिर के मरना है | Mujhko To Gir Ke Marna Hai
मुझ को तो गिर के मरना है
बाक़ी को क्या करना है
शहर है चेहरों की तमसील
सब का रंग उतरना है
वक़्त है वो नाटक जिस में
सब को डरा कर डरना है
मेरे नक़्श-ए-सानी को
मुझ में ही से उभरना है
कैसी तलाफ़ी क्या तदबीर
करना है और भरना है
जो नहीं गुज़रा है अब तक
वो लम्हा तो गुज़रना है
अपने गुमाँ का रंग था मैं
अब ये रंग बिखरना है
हम दो पाए हैं सो हमें
मेज़ पे जा कर चरना है
चाहे हम कुछ भी कर लें
हम ऐसों को सुधरना है
हम तुम हैं इक लम्हे के
फिर भी वा’दा करना है
मुझे ग़रज़ है मिरी जान ग़ुल मचाने से | Mujhe Garaz Hai Meri Jaan Gul Machane Se
मुझे ग़रज़ है मिरी जान ग़ुल मचाने से
न तेरे आने से मतलब न तेरे जाने से
अजीब है मिरी फ़ितरत कि आज ही मसलन
मुझे सुकून मिला है तिरे न आने से
इक इज्तिहाद का पहलू ज़रूर है तुझ में
ख़ुशी हुई तिरे ना-वक़्त मुस्कुराने से
ये मेरा जोश-ए-मोहब्बत फ़क़त इबारत है
तुम्हारी चम्पई रानों को नोच खाने से
मोहज़्ज़ब आदमी पतलून के बटन तो लगा
कि इर्तिक़ा है इबारत बटन लगाने से
नाम ही क्या निशाँ ही क्या ख़्वाब-ओ-ख़याल हो गए | Naam Hi Kya Nishaan Hi Kya Khawaab-o-Khayaal Ho Gaye
नाम ही क्या निशाँ ही क्या ख़्वाब-ओ-ख़याल हो गए
तेरी मिसाल दे के हम तेरी मिसाल हो गए
साया-ए-ज़ात से भी रम अक्स-ए-सिफ़ात से भी रम
दश्त-ए-ग़ज़ल में आ के देख हम तो ग़ज़ाल हो गए
कहते ही नश्शा-हा-ए-ज़ौक़ कितने ही जज़्बा-हा-ए-शौक़
रस्म-ए-तपाक-ए-यार से रू-ब-ज़वाल हो गए
इश्क़ है अपना पाएदार तेरी वफ़ा है उस्तुवार
हम तो हलाक-ए-वर्ज़िश-ए-फ़र्ज़-ए-मुहाल हो गए
जादा-ए-शौक़ में पड़ा क़हत-ए-गुबार-ए-कारवाँ
वाँ के शजर तो सर-ब-सर दस्त-ए-सवाल हो गए
सख़्त ज़मीं-परस्त थे अहद-ए-वफ़ा के पासदार
उड़ के बुलंदियों में हम गर्द-ए-मलाल हो गए
क़ुर्ब-ए-जमाल और हम ऐश-ए-विसाल और हम
हाँ ये हुआ कि साकिन-ए-शहर-ए-जमाल हो गए
हम-नफ़सान-ए-वज़्अ’-दार मुस्तमिआन-ए-बुर्द-बार
हम तो तुम्हारे वास्ते एक वबाल हो गए
कौन सा क़ाफ़िला है ये जिस के जरस का है ये शोर
मैं तो निढाल हो गया हम तो निढाल हो गए
ख़ार-ब-ख़ार गुल-ब-गुल फ़स्ल-ए-बहार आ गई
फ़स्ल-ए-बहार आ गई ज़ख़्म बहाल हो गए
शोर उठा मगर तुझे लज़्ज़त-ए-गोश तो मिली
ख़ून बहा मगर तिरे हाथ तो लाल हो गए
‘जौन’ करोगे कब तलक अपना मिसालिया तलाश
अब कई हिज्र हो चुके अब कई साल हो गए
न हुआ नसीब क़रार-ए-जाँ हवस-ए-क़रार भी अब नहीं | Na Hua Naseeb Karaar-e-Jaan Hawas-e-Karaar Bhi Ab Nahi
न हुआ नसीब क़रार-ए-जाँ हवस-ए-क़रार भी अब नहीं
तिरा इंतिज़ार बहुत किया तिरा इंतिज़ार भी अब नहीं
तुझे क्या ख़बर मह-ओ-साल ने हमें कैसे ज़ख़्म दिए यहाँ
तिरी यादगार थी इक ख़लिश तिरी यादगार भी अब नहीं
न गिले रहे न गुमाँ रहे न गुज़ारिशें हैं न गुफ़्तुगू
वो निशात-ए-वादा-ए-वस्ल क्या हमें ए’तिबार भी अब नहीं
रहे नाम-ए-रिश्ता-ए-रफ़्तगाँ न शिकायतें हैं न शोख़ियाँ
कोई ‘उज़्र-ख़्वाह तो अब कहाँ कोई उज़्र-दार भी अब नहीं
किसे नज़्र दें दिल-ओ-जाँ बहम कि नहीं वो काकुल-ए-खम-ब-ख़म
किसे हर-नफ़स का हिसाब दें कि शमीम-ए-यार भी अब नहीं
वो हुजूम-ए-दिल-ज़दगाँ कि था तुझे मुज़्दा हो कि बिखर गया
तिरे आस्ताने की ख़ैर हो सर-ए-रह-ए-गुबार भी अब नहीं
वो जो अपनी जाँ से गुज़र गए उन्हें क्या ख़बर है कि शहर में
किसी जाँ-निसार का ज़िक्र क्या कोई सोगवार भी अब नहीं
नहीं अब तो अहल-ए-जुनूँ में भी वो जो शौक़-ए-शहर में ‘आम था
वो जो रंग था कभी कू-ब-कू सर-ए-कू-ए-यार भी अब नहीं
न हम रहे न वो ख़्वाबों की ज़िंदगी ही रही | Na Hum Rahe Na Woh Khawabo Ki Zindgi Hi Rahi
न हम रहे न वो ख़्वाबों की ज़िंदगी ही रही
गुमाँ गुमाँ सी महक ख़ुद को ढूँढती ही रही
अजब तरह रुख़-ए-आइन्दगी का रंग उड़ा
दयार-ए-ज़ात में अज़-ख़ुद गुज़श्तगी ही रही
हरीम-ए-शौक़ का आलम बताएँ क्या तुम को
हरीम-ए-शौक़ में बस शौक़ की कमी ही रही
पस-ए-निगाह-ए-तग़ाफ़ुल थी इक निगाह कि थी
जो दिल के चेहरा-ए-हसरत की ताज़गी ही रही
अजीब आईना-ए-परतव-ए-तमन्ना था
थी उस में एक उदासी कि जो सजी ही रही
बदल गया सभी कुछ उस दयार-ए-बूदश में
गली थी जो तिरी जाँ वो तिरी गली ही रही
तमाम दिल के मोहल्ले उजड़ चुके थे मगर
बहुत दिनों तो हँसी ही रही ख़ुशी ही रही
वो दास्तान तुम्हें अब भी याद है कि नहीं
जो ख़ून थूकने वालों की बे-हिसी ही रही
सुनाऊँ मैं किसे अफ़साना-ए-ख़याल-ए-मलाल
तिरी कमी ही रही और मिरी कमी ही रही
न कोई हिज्र न कोई विसाल है शायद | Na Koi Hizra Na Koi Visaal Hai Shayad
न कोई हिज्र न कोई विसाल है शायद
बस एक हालत-ए-बे-माह-ओ-साल है शायद
हुआ है दैर-ओ-हरम में जो मोतकिफ़ वो यक़ीन
तकान-ए-कश्मकश-ए-एहतिमाल है शायद
ख़याल-ओ-वहम से बरतर है उस की ज़ात सो वो
निहायत-ए-हवस-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल है शायद
मैं सत्ह-ए-हर्फ़ पे तुझ को उतार लाया हूँ
तिरा ज़वाल ही मेरा कमाल है शायद
मैं एक लम्हा-ए-मौजूद से इधर न उधर
सो जो भी मेरे लिए है मुहाल है शायद
वो इंहिमाक हर इक काम में कि ख़त्म न हो
तो कोई बात हुई है मलाल है शायद
गुमाँ हुआ है ये अम्बोह से जवाबों के
सवाल ख़ुद ही जवाब-ए-सवाल है शायद
न पूछ उस की जो अपने अंदर छुपा | Na Pooch Uss Ki Jo Apne Andar Chhupa
न पूछ उस की जो अपने अंदर छुपा
ग़नीमत के मैं अपने बाहर छुपा
मुझे याँ किसी पे भरोसा नहीं
मैं अपनी निगाहों से छुप कर छुपा
पहुँच मुख़बिरों की सुख़न तक कहाँ
सो मैं अपने होंटों पे अक्सर छुपा
मेरी सुन न रख अपने पहलू में दिल
उसे तू किसी और के घर छुपा
यहाँ तेरे अंदर नहीं मेरी ख़ैर
मेरी जाँ मुझे मेरे अंदर छुपा
ख़यालों की आमद में ये ख़ार-ज़ार
है तीरों की यलग़ार तू सर छुपा
न तो दिल का न जाँ का दफ़्तर है | Na To Dil Ka Na Jaan Ka Daftar Hai
न तो दिल का न जाँ का दफ़्तर है
ज़िंदगी इक ज़ियाँ का दफ़्तर है
पढ़ रहा हूँ मैं काग़ज़ात-ए-वजूद
और नहीं और हाँ का दफ़्तर है
कोई सोचे तो सोज़-ए-कर्ब-ए-जाँ
सारा दफ़्तर गुमाँ का दफ़्तर है
हम में से कोई तो करे इसरार
कि ज़मीं आसमाँ का दफ़्तर है
हिज्र ता’तील-ए-जिस्म-ओ-जाँ है मियाँ
वस्ल जिस्म और जाँ का दफ़्तर है
वो जो दफ़्तर है आसमानी-तर
वो मियाँ जी यहाँ का दफ़्तर है
है जो बूद-ओ-नबूद का दफ़्तर
आख़िरश ये कहाँ का दफ़्तर है
जो हक़ीक़त है दम-ब-दम की याद
वो तो इक दास्ताँ का दफ़्तर है
हो रहा है गुज़िश्तगाँ का हिसाब
और आइंदगाँ का दफ़्तर है
नहीं निबाही ख़ुशी से ग़मी को छोड़ दिया | Nahi Nibahi Khushi Se Ghami Ko Chhod Diya
नहीं निबाही ख़ुशी से ग़मी को छोड़ दिया
तुम्हारे बा’द भी मैं ने कई को छोड़ दिया
हों जो भी जान की जाँ वो गुमान होते हैं
सभी थे जान की जाँ और सभी को छोड़ दिया
शुऊ’र एक शुऊ’र-ए-फ़रेब है सो तो है
ग़रज़ कि आगही ना-आगही को छोड़ दिया
ख़याल-ओ-ख़्वाब की अंदेशगी के सुख झेले
ख़याल-ओ-ख़्वाब की अंदेशगी को छोड़ दिया
नश्शा-ए-शौक़-ए-रंग में तुझ से जुदाई की गई | Nassa-e-Shauq-e-Rang Mein Tujhse Judai Ki Gayi
नश्शा-ए-शौक़-ए-रंग में तुझ से जुदाई की गई
एक लकीर ख़ून की बीच में खींच दी गई
थी जो कभी सर-ए-सुख़न मेरी वो ख़ामुशी गई
हाए कुहन-ए-सिनन की बात हाए वो बात ही गई
शौक़ की एक उम्र में कैसे बदल सकेगा दिल
नब्ज़-ए-जुनून ही तो थी शहर में डूबती गई
उस की गली से उठ के मैं आन पड़ा था अपने घर
एक गली की बात थी और गली गली गई
उस की उमीद-ए-नाज़ का मुझ से ये मान था कि आप
उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गई
दौर-ब-दौर दिल-ब-दिल दर्द-ब-दर्द दम-ब-दम
तेरे यहाँ रिआ’यत-ए-हाल नहीं रखी गई
‘जौन’ जुनूब-ए-ज़र्द के ख़ाक-बसर ये दुख उठा
मौज-ए-शिमाल-ए-सब्ज़-जाँ आई थी और चली गई
क्या वो गुमाँ नहीं रहा हाँ वो गुमाँ नहीं रहा
क्या वो उमीद भी गई हाँ वो उमीद भी गई
नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम | Naya Ik Rishta Paida Kyun Kare Hum
नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम
ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम
ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम
वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम
सुना दें इस्मत-ए-मरियम का क़िस्सा
पर अब इस बाब को वा क्यों करें हम
ज़ुलेख़ा-ए-अज़ीज़ाँ बात ये है
भला घाटे का सौदा क्यों करें हम
हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम
किया था अहद जब लम्हों में हम ने
तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम
उठा कर क्यों न फेंकें सारी चीज़ें
फ़क़त कमरों में टहला क्यों करें हम
जो इक नस्ल फ़रोमाया को पहुँचे
वो सरमाया इकट्ठा क्यों करें हम
नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी
तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम
बरहना हैं सर-ए-बाज़ार तो क्या
भला अंधों से पर्दा क्यों करें हम
हैं बाशिंदे उसी बस्ती के हम भी
सो ख़ुद पर भी भरोसा क्यों करें हम
चबा लें क्यों न ख़ुद ही अपना ढाँचा
तुम्हें रातिब मुहय्या क्यों करें हम
पड़ी हैं दो इंसानों की लाशें
ज़मीं का बोझ हल्का क्यों करें हम
ये बस्ती है मुसलामानों की बस्ती
यहाँ कार-ए-मसीहा क्यूँ करें हम
रंज है हालत-ए-सफ़र हाल-ए-क़याम रंज है | Ranz Hai Haalat-e-Safar Haal-e-Kayaam Ranz Hai
रंज है हालत-ए-सफ़र हाल-ए-क़याम रंज है
सुब्ह-ब-सुब्ह रंज है शाम-ब-शाम रंज है
उस की शमीम-ए-ज़ुल्फ़ का कैसे हो शुक्रिया अदा
जब के शमीम रंज है जब के मशाम रंज है
सैद तो क्या के सैद-कार ख़ुद भी नहीं ये जानता
दाना भी रंज है यहाँ यानी के दाम रंज है
मानी-ए-जावेदान-ए-जाँ कुछ भी नहीं मगर ज़ियाँ
सारे कलीम हैं ज़ुबूँ सारा कलाम रंज है
बाबा अलिफ़ मेरी नुमूद रंज है आप के ब-क़ौल
क्या मेरा नाम भी है रंज हाँ तेरा नाम रंज है
कासा गदा-गरी का है नाफ़ प्याला यार का
भूक है वो बदन तमाम वस्ल तमाम रंज है
जीत के कोई आए तब हार के कोई आए तब
जौहर-ए-तेग़ शर्म है और नियाम रंज है
दिल ने पढ़ा सबक़ तमाम बूद तो है क़लक़ तमाम
हाँ मेरा नाम रंज है हाँ तेरा नाम रंज है
पैक-ए-क़ज़ा है दम-ब-दम ‘जौन’ क़दम क़दम शुमार
लग़्ज़िश-ए-गाम रंज है हुस्न-ए-ख़िराम रंज है
बाबा अलिफ़ ने शब कहा नश्शा-ब-नश्शा कर गिले
जुरआ-ब-जुरआ रंज है जाम-ब-जाम रंज है
आन पे हो मदार क्या बूद के रोज़गार का
दम हमा-दम है दूँ ये दम वहम-ए-दवाम रंज है
रज़्म है ख़ून का हज़र कोई बहाए या बहे
रुस्तम ओ ज़ाल हैं मलाल यानी के साम रंज है
रूह प्यासी कहाँ से आती है | Rooh Pyaasi Kahan Se Aati Hai
रूह प्यासी कहाँ से आती है
ये उदासी कहाँ से आती है
है वो यक-सर सुपुर्दगी तो भला
बद-हवासी कहाँ से आती है
वो हम-आग़ोश है तो फिर दिल में
ना-शनासी कहाँ से आती है
दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद
तू निदासी कहाँ से आती है
शौक में ऐशे वत्ल के हन्गाम
नाशिफासी कहाँ से आती है
एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम
ये सबासी कहाँ से आती है
तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू
होके बासी कहाँ से आती है
मैं हूँ तुझ में और आस हूँ तेरी
तो निरासी कहाँ से आती है
रूठा था तुझ से या’नी ख़ुद अपनी ख़ुशी से मैं | Rootha Tha Tujhse Yaahi Khud Apni Khushi Se Main
रूठा था तुझ से या’नी ख़ुद अपनी ख़ुशी से मैं
फिर उस के बा’द जान न रूठा किसी से मैं
बाँहों से मेरी वो अभी रुख़्सत नहीं हुआ
पर गुम हूँ इंतिज़ार में उस के अभी से मैं
दम-भर तिरी हवस से नहीं है मुझे क़रार
हलकान हो गया हूँ तिरी दिलकशी से मैं
इस तौर से हुआ था जुदा अपनी जान से
जैसे भुला सकूँगा उसे आज ही से मैं
ऐ तराह-दार-ए-इश्वा-तराज़-ए-दयार-ए-नाज़
रुख़्सत हुआ हूँ तेरे लिए दिल-गली से मैं
तू ही हरीम-ए-जल्वा है हंगाम-ए-रंग है
जानाँ बहुत उदास हूँ अपनी कमी से मैं
कुछ तो हिसाब चाहिए आईने से तुझे
लूँगा तिरा हिसाब मिरी जाँ तुझी से मैं
सारे रिश्ते तबाह कर आया | Saare Rishtey Tabaah Kar Aaya
सारे रिश्ते तबाह कर आया
दिल-ए-बर्बाद अपने घर आया
आख़िरश ख़ून थूकने से मियाँ
बात में तेरी क्या असर आया
था ख़बर में ज़ियाँ दिल ओ जाँ का
हर तरफ़ से मैं बे-ख़बर आया
अब यहाँ होश में कभी अपने
नहीं आऊँगा मैं अगर आया
मैं रहा उम्र भर जुदा ख़ुद से
याद मैं ख़ुद को उम्र भर आया
वो जो दिल नाम का था एक नफ़र
आज मैं इस से भी मुकर आया
मुद्दतों बा’द घर गया था मैं
जाते ही मैं वहाँ से डर आया
सब चले जाओ मुझ में ताब नहीं | Sab Chale Jao Mujhme Taab Nahi
सब चले जाओ मुझ में ताब नहीं
नाम को भी अब इज़्तिराब नहीं
ख़ून कर दूँ तिरे शबाब का मैं
मुझ सा क़ातिल तिरा शबाब नहीं
इक किताब-ए-वजूद है तो सही
शायद इस में दुआ का बाब नहीं
तू जो पढ़ता है बू-अली की किताब
क्या ये आलम कोई किताब नहीं
अपनी मंज़िल नहीं कोई फ़रियाद
रख़्श भी अपना बद-रिकाब नहीं
हम किताबी सदा के हैं लेकिन
हस्ब-ए-मंशा कोई किताब नहीं
भूल जाना नहीं गुनाह उसे
याद करना उसे सवाब नहीं
पढ़ लिया उस की याद का नुस्ख़ा
उस में शोहरत का कोई बाब नहीं
समझ में ज़िंदगी आए कहाँ से | Samajh Mein Zindgi Aaye Kahan Se
समझ में ज़िंदगी आए कहाँ से
पढ़ी है ये इबारत दरमियाँ से
यहाँ जो है तनफ़्फ़ुस ही में गुम है
परिंदे उड़ रहे हैं शाख़-ए-जाँ से
मकान-ओ-ला-मकाँ के बीच क्या है
जुदा जिस से मकाँ है ला-मकाँ से
दरीचा बाज़ है यादों का और मैं
हवा सुनता हूँ मैं पेड़ों की ज़बाँ से
था अब तक मा’रका बाहर का दरपेश
अभी तो घर भी जाना है यहाँ से
ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का
तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से
फुलाँ से थी ग़ज़ल बेहतर फुलाँ की
फुलाँ के ज़ख़्म अच्छे थे फुलाँ से
सर-ए-सहरा हबाब बेचे हैं | Sar-e-Sehra Hawab Beche Hai
सर-ए-सहरा हबाब बेचे हैं
लब-ए-दरिया सराब बेचे हैं
और तो क्या था बेचने के लिए
अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं
ख़ुद सवाल उन लबों से कर के मियाँ
ख़ुद ही उन के जवाब बेचे हैं
ज़ुल्फ़-कूचों में शाना-कुश ने तिरे
कितने ही पेच-ओ-ताब बेचे हैं
शहर में हम ख़राब हालों ने
हाल अपने ख़राब बेचे हैं
जान-ए-मन तेरी बे-नक़ाबी ने
आज कितने नक़ाब बेचे हैं
मेरी फ़रियाद ने सुकूत के साथ
अपने लब के अज़ाब बेचे हैं
सर ये फोड़िए अब नदामत में | Sar Yeh Phodiye Ab Nadamat Mein
सर ये फोड़िए अब नदामत में
नीन्द आने लगी है फुरकत में
हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर
सोचता हूँ तेरी हिमायत में
इश्क को दरम्यान ना लाओ के मैं
चीखता हूँ बदन की उसरत में
ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी है मुर्रबत में
वो जो तामीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में
वो खला है कि सोचता हूँ मैं
उससे क्या गुफ्तगू हो खलबत में
ज़िन्दगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में
मेरे कमरे का क्या बया कि यहाँ
खून थूका गया शरारत में
रूह ने इश्क का फरेब दिया
ज़िस्म को ज़िस्म की अदावत में
अब फकत आदतो की वर्जिश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में
ऐ खुदा जो कही नहीं मौज़ूद
क्या लिखा है हमारी किस्मत में
सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई | Seena Dehak Raha Ho To Kya Chup Rahe Koi
सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई
साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँढा करे कोई
तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई
दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी
अब मुझ को एतिमाद की दावत न दे कोई
मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हूँ ख़राब
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई
ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई
हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र
काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई
शाख़-ए-उम्मीद जल गई होगी | Shaakh-e-Ummeed Jal Gayi Hogi
शाख़-ए-उम्मीद जल गई होगी
दिल की हालत सँभल गई होगी
‘जौन’ उस आन तक ब-ख़ैर हूँ मैं
ज़िंदगी दाव चल गई होगी
इक जहन्नुम है मेरा सीना भी
आरज़ू कब की गल गई होगी
सोज़िश-ए-परतव-ए-निगाह न पूछ
मर्दुमक तो पिघल गई होगी
हम ने देखे थे ख़्वाब शो’लों के
नींद आँखों में जल गई होगी
उस ने मायूस कर दिया होगा
फाँस दिल से निकल गई होगी
अब तो दिल ही बदल गया अब तो
सारी दुनिया बदल गई होगी
दिल गली में रक़ीब दिल का जुलूस
वाँ तो तलवार चल गई होगी
घर से जिस रोज़ मैं चला हूँगा
दिल की दिल्ली मचल गई होगी
धूप या’नी कि ज़र्द ज़र्द इक धूप
लाल क़िलए’ से ढल गई होगी
हिज्र-ए-हिद्दत में याद की ख़ुश्बू
एक पंखा सा झल गई होगी
आई थी मौज-ए-सब्ज़-ए-बाद-ए-शिमाल
याद की शाख़ फल गई होगी
वो दम-ए-सुब्ह ग़ुस्ल-ख़ाने में
मेरे पहलू से शल गई होगी
शाम-ए-सुब्ह-ए-फ़िराक़ दाइम है
अब तबीअ’त बहल गई होगी
शाम हुई है यार आए हैं यारों के हम-राह चलें | Shaam Huyi Hai Yaar Aaye Hai Yaaro Ke Hum Raah Chale
शाम हुई है यार आए हैं यारों के हम-राह चलें
आज वहाँ क़व्वाली होगी ‘जौन’ चलो दर-गाह चलें
अपनी गलियाँ अपने रमने अपने जंगल अपनी हवा
चलते चलते वज्द में आएँ राहों में बे-राह चलें
जाने बस्ती में जंगल हो या जंगल में बस्ती हो
है कैसी कुछ ना-आगाही आओ चलो ना-गाह चलें
कूच अपना उस शहर तरफ़ है नामी हम जिस शहर के हैं
कपड़े फाड़ें ख़ाक-ब-सर हों और ब-इज़्ज़-ओ-जाह चलें
राह में उस की चलना है तो ऐश करा दें क़दमों को
चलते जाएँ चलते जाएँ यानी ख़ातिर ख़्वाह चलें
शाम तक मेरी बेकली है शराब | Shaam Tak Meri Bekali Hai Sharab
शाम तक मेरी बेकली है शराब
शाम को मेरी सरख़ुशी है शराब
जहल-ए-वाइ’ज़ का इस को रास आए
साहिबो मेरी आगही है शराब
रंग-रस है मेरी रगों में रवाँ
ब-ख़ुदा मेरी ज़िंदगी है शराब
नाज़ है अपनी दिलबरी पे मुझे
मेरा दिल मेरी दिलबरी है शराब
है ग़नीमत जो होश में नहीं मैं
शैख़ तुझ को बचा रही है शराब
हिस जो होती तो जाने क्या करता
मुफ़्तियों मेरी बे-हिसी है शराब
शाम थी और बर्ग-ओ-गुल शल थे मगर सबा भी थी | Shaam Thi Aur Barg-o-Gul Shal The Magar Saba Bhi Thi
शाम थी और बर्ग-ओ-गुल शल थे मगर सबा भी थी
एक अजीब सुकूत था एक अजब सदा भी थी
एक मलाल का सा हाल महव था अपने हाल में
रक़्स-ओ-नवा थे बे-तरफ़ महफ़िल-ए-शब बपा भी थी
सामेआ-ए-सदा-ए-जाँ बे-सरोकार था कि था
एक गुमाँ की दास्ताँ बर-लब नीम-वा भी थी
क्या मह-ओ-साल माजरा एक पलक थी जो मियाँ
बात की इब्तिदा भी थी बात की इंतिहा भी थी
एक सुरूद-ए-रौशनी नीमा-ए-शब का ख़्वाब था
एक ख़मोश तीरगी सानेहा-आश्ना भी थी
दिल तिरा पेशा-ए-गिला-ए-काम ख़राब कर गया
वर्ना तो एक रंज की हालत-ए-बे-गिला भी थी
दिल के मुआ’मले जो थे उन में से एक ये भी है
इक हवस थी दिल में जो दिल से गुरेज़-पा भी थी
बाल-ओ-पर-ए-ख़याल को अब नहीं सम्त-ओ-सू नसीब
पहले थी इक अजब फ़ज़ा और जो पुर-फ़ज़ा भी थी
ख़ुश्क है चश्मा-सार-ए-जाँ ज़र्द है सब्ज़ा-ज़ार-ए-दिल
अब तो ये सोचिए कि याँ पहले कभी हवा भी थी
शमशीर मेरी, मेरी सिपर किस के पास है | Shamsheri Meri, Meri Sipar Kis Ke Paas Hai
शमशीर मेरी, मेरी सिपर किस के पास है
दो मेरा ख़ूद पर मिरा सर किस के पास है
दरपेश एक काम है हिम्मत का साथियो
कसना है मुझ को मेरी कमर किस के पास है
तारी हो मुझ पे कौन सी हालत मुझे बताओ
मेरा हिसाब-ए-नफ़-ओ-ज़रर किस के पास है
ऐ अहल-ए-शहर मैं तो दुआ-गो-ए-शहर हूँ
लब पर मिरे दुआ है असर किस के पास है
दाद-ओ-सितद के शहर में होने को आई शाम
ख़्वाहिश है मेरे पास ख़बर किस के पास है
पुर-हाल हूँ प सूरत-ए-अहवाल कुछ नहीं
हैरत है मेरे पास नज़र किस के पास है
इक आफ़्ताब है मिरी जेब-ए-निगाह में
पहनाई-ए-नुमूद-ए-सहर किस के पास है
क़िस्सा किशोर का नहीं कोशक का है कि है
दरवाज़ा सब के पास है घर किस के पास है
मेहमान-ए-क़स्र हैं हमें कुछ रम्ज़ चाहिएँ
ये पूछ के बताओ खंडर किस के पास है
उथला सा नाफ़-प्याला हमारी नहीं तलाश
ऐ लड़कियो! बताओ भँवर किस के पास है
नाख़ुन बढ़े हुए हैं मिरे मुझ से कर हज़र
ये जा के देख नेल-कटर किस के पास है
शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें | Sharmindgi Hai Hum Ko Bahut Hum Mile Tumhe
शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें
तुम सर-ब-सर ख़ुशी थे मगर ग़म मिले तुम्हें
मैं अपने आप में न मिला इस का ग़म नहीं
ग़म तो ये है के तुम भी बहुत कम मिले तुम्हें
है जो हमारा एक हिसाब उस हिसाब से
आती है हम को शर्म के पैहम मिले तुम्हें
तुम को जहान-ए-शौक़-ओ-तमन्ना में क्या मिला
हम भी मिले तो दरहम ओ बरहम मिले तुम्हें
अब अपने तौर ही में नहीं तुम सो काश के
ख़ुद में ख़ुद अपना तौर कोई दम मिले तुम्हें
इस शहर-ए-हीला-जू में जो महरम मिले मुझे
फ़रियाद जान-ए-जाँ वही महरम मिले तुम्हें
देता हूँ तुम को ख़ुश्की-ए-मिज़गाँ की मैं दुआ
मतलब ये है के दामन-ए-पुर-नम मिले तुम्हें
मैं उन में आज तक कभी पाया नहीं गया
जानाँ जो मेरे शौक़ के आलम मिले तुम्हें
तुम ने हमारे दिल में बहुत दिन सफ़र किया
शर्मिंदा हैं के उस में बहुत ख़म मिले तुम्हें
यूँ हो के और ही कोई हव्वा मिले मुझे
हो यूँ के और ही कोई आदम मिले तुम्हें
शौक़ का बार उतार आया हूँ | Shauq Ka Baar Utaar Aaya Hoon
शौक़ का बार उतार आया हूँ
आज मैं उस को हार आया हूँ
उफ़ मिरा आज मय-कदे आना
यूँ तो मैं कितनी बार आया हूँ
दोस्तो दोस्त को सँभाला दो
दूर से पा-फ़िगार आया हूँ
सफ़-ए-आख़िर से लड़ रहा था मैं
और यहाँ लाश-वार आया हूँ
वही दश्त-ए-अज़ाब-ए-मायूसी
वहीं अंजाम-कार आया हूँ
शौक का रंग बुझ गया, याद के ज़ख्म भर गए | Shauq Ka Rang Bujh Gaya, Yaad Ke Zakhm Bhar Gaye
शौक का रंग बुझ गया , याद के ज़ख्म भर गए
क्या मेरी फसल हो चुकी, क्या मेरे दिन गुज़र गए?
हम भी हिजाब दर हिजाब छुप न सके, मगर रहे
वोह भी हुजूम दर हुजूम रह न सके, मगर गए
रहगुज़र-ए-ख्याल में दोष बा दोष थे जो लोग
वक्त की गर्द ओ बाद में जाने कहाँ बिखर गए
शाम है कितनी बे तपाक, शहर है कितना सहम नाक
हम नफ़सो कहाँ तो तुम, जाने ये सब किधर गए
आज की रात है अजीब, कोई नहीं मेरे करीब
आज सब अपने घर रहे, आज सब अपने घर गए
हिफ्ज़-ए- हयात का ख्याल हम को बहुत बुरा लगा
पास बा हुजूम-ए-मारका, जान के भी सिपर गए
मैं तो सापों के दरमियान, कब से पड़ा हूँ निम-जान
मेरे तमाम जान-निसार मेरे लिए तो मर गए
रौनक-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी, तुरफा हैं तेरे लोग भी
एक तो कभी न आये थे, आये तो रूठ कर गए
खुश नफास-ए-बे-नवा, बे-खबरां-ए-खुश अदा
तीरह-नसीब था मगर शहर में नाम कर गए
आप में ‘जॉन अलिया’ सोचिये अब धरा है क्या
आप भी अब सिधारिये, आप के चारागर गए
शहर-ब-शहर कर सफ़र ज़ाद-ए-सफ़र लिए बग़ैर | Shehar-b-Shehar Ka Safar Jaad-e-Safar Liye Bagair
शहर-ब-शहर कर सफ़र ज़ाद-ए-सफ़र लिए बग़ैर
कोई असर किए बग़ैर कोई असर लिए बग़ैर
कोह-ओ-कमर में हम-सफ़ीर कुछ नहीं अब ब-जुज़ हवा
देखियो पलटियो न आज शहर से पर लिए बग़ैर
वक़्त के मा’रके में थीं मुझ को रिआयतें हवस
मैं सर-ए-मा’रका गया अपनी सिपर लिए बग़ैर
कुछ भी हो क़त्ल-गाह में हुस्न-ए-बदन का है ज़रर
हम न कहीं से आएँगे दोश पे सर लिए बग़ैर
करया-ए-गिरया में मिरा गिर्या हुनर-वराना है
याँ से कहीं टलूँगा मैं दाद-ए-हुनर लिए बग़ैर
उस के भी कुछ गिले हैं दिल उन का हिसाब तुम रखो
दीद ने उस में की बसर उस की ख़बर लिए बग़ैर
उस का सुख़न भी जा से है और वो ये कि ‘जौन’ तुम
शोहरा-ए-शहर हो तो क्या शहर में घर लिए बग़ैर
शिकवा अव्वल तो बे-हिसाब किया | Shikwa Awwal To Behisaab Kiya
शिकवा अव्वल तो बे-हिसाब किया
और फिर बंद ही ये बाब किया
जानते थे बदी अवाम जिसे
हम ने उस से भी इज्तिनाब किया
थी किसी शख़्स की तलाश मुझे
मैं ने ख़ुद को ही इंतिख़ाब किया
इक तरफ़ मैं हूँ इक तरफ़ तुम हो
जाने किस ने किसे ख़राब किया
आख़िर अब किस की बात मानूँ मैं
जो मिला उस ने ला-जवाब किया
यूँ समझ तुझ को मुज़्तरिब पा कर
मैं ने इज़हार-ए-इज़्तिराब किया
सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी | Silsila Jumbaan Ik Tanha Se Rooh Kisi Tanha Ki Thi
सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी
एक आवाज़ अभी आई थी वो आवाज़ हवा की थी
बे-दुनियाई ने इस दिल की और भी दुनिया-दार किया
दिल पर ऐसी टूटी दुनिया तर्क ज़रा दुनिया की थी
अपने अंदर हँसता हूँ मैं और बहुत शरमाता हूँ
ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी
अपने-आप से जब मैं गया हूँ तब की रिवायत सुनता हूँ
आ कर कितने दिन तक उस की याद मुझे पूछा की थी
हूँ सौदाई सौदाई सा जब से मैं ने जाना है
तय वो राह-ए-सर-ए-सौदाई मैं ने बे-सौदा की थी
गर्द थी बेगाना-गर्दी की जो थी निगह मेरी ताहम
जब भी कोई सूरत बिछड़ी आँखों में नम-नाकी थी
है ये क़िस्सा कितना अच्छा पर मैं अच्छा समझूँ तो
एक था कोई जिस ने यक-दम ये दुनिया पैदा की थी
सोचा है के अब कार-ए-मसीहा न करेंगे | Socha Hai Ab Kaar-e-Maseeha Na Karege
सोचा है के अब कार-ए-मसीहा न करेंगे
वो ख़ून भी थूकेगा तो परवा न करेंगे
इस बार वो तल्ख़ी है के रूठे भी नहीं हम
अब के वो लड़ाई है के झगड़ा न करेंगे
याँ उस के सलीक़े के ही आसार तो क्या हम
इस पर भी ये कमरा तह ओ बाला न करेंगे
अब नग़मा-तराज़ान-ए-बर-अफ़रोख़्ता ऐ शहर
वासोख़्त कहेंगे ग़ज़ल इंशा न करेंगे
ऐसा है के सीने में सुलगती हैं ख़राशें
अब साँस भी हम लेंगे तो अच्छा न करेंगे
तमन्ना कई थे, आज दिल में उनके लिए | Tamanna Kayi The, Aaj Dil Mein Unke Liye
तमन्ना कई थे, आज दिल में उनके लिए
लेकिन वो आज न आये मुझे मिलने के लिए
काम करने का जोश न रहा
उनके बिना कोई होश न रहा
कैसे समझाऊ उन्हें की वो मेरी ज़िन्दगी है
मेरी ज़िन्दगी को कैसे समझाऊ के मोहब्बत मेरी बंदगी है
लेकिन आज मैं काम ज़रूर करूँगा
उनके बिना मैं नहीं मरूँगा
कमबख्त यह दिल है कि मानता नहीं
यह क्या मजबूरी हैं उनके बिना काम बनता नहीं
काश उनको भी मेरी याद सताये
यह मोहब्बत का रोग उन्हें जलाये
तंग आग़ोश में आबाद करूँगा तुझ को | Tang Aagosh Mein Aabaad Karuga Tujhko
तंग आग़ोश में आबाद करूँगा तुझ को
हूँ बहुत शाद कि नाशाद करूँगा तुझ को
फ़िक्र-ए-ईजाद में गुम हूँ मुझे ग़ाफ़िल न समझ
अपने अंदाज़ पर ईजाद करूँगा तुझ को
नश्शा है राह की दूरी का कि हमराह है तू
जाने किस शहर में आबाद करूँगा तुझ को
मेरी बाँहों में बहकने की सज़ा भी सुन ले
अब बहुत देर में आज़ाद करूँगा तुझ को
मैं कि रहता हूँ ब-सद-नाज़ गुरेज़ाँ तुझ से
तू न होगा तो बहुत याद करूँगा तुझ को
तिरे ग़ुरूर का हुलिया बिगाड़ डालूँगा | Tere Guroor Ka Huliya Bigaad Daaluga
तिरे ग़ुरूर का हुलिया बिगाड़ डालूँगा
मैं आज तेरा गरेबान फाड़ डालूँगा
तरह तरह के शगूफ़े जो छोड़ता है तू
मैं दिल का बाग़-ए-नुमू ही उजाड़ डालूँगा
कहाँ का सैल-ए-अजल ता-किनार-गाह-ए-अबद
मैं हूँ अदम में सभी को लताड़ डालूँगा
बहुत अदा से तू गुज़रा है चश्मा-सारों से
ये सुन कि राह में तेरी मैं बाड़ डालूँगा
शगुफ़्तगी की तिरी याद जो दिलाते हैं
मैं ऐसे सारे ही पौधे उखाड़ डालूँगा
ये तय किया है कि दरिया-ए-मौज-मस्ती को
सराब-दश्त-तपीदा में गाड़ डालूँगा
तमाम नक़्श-ए-तमन्ना फ़रेब थे सो थे
मैं सारे नक़्श-ए-तमन्ना बिगाड़ डालूँगा
जो रिश्ता है दिल-ए-जाँ का है सर-ब-सर झूटा
सौ मैं तो अब दिल-ओ-जाँ में दराड़ डालूँगा
झंड़ोले बालों की पुर-फ़ित्ना उस से कह देना
मैं इस कमीन को ज़िंदा ही गाड़ डालूँगा
मुझे तो अब उसे दंगल में गंदा करना है
सौ मैं उसे बुरे हालों पछाड़ डालूँगा
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं | Theek Hai Khud Ko Hum Badalte Hai
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं
हो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाद
देखने वाले हाथ मलते हैं
है वो जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं
है उसे दूर का सफ़र दर-पेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं
तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुश्बू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं
मैं उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलते हैं
है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं
तिफ़्लान-ए-कूचा-गर्द के पत्थर भी कुछ नहीं | Tiflaan-e-Koocha Gard Ke Patthar Bhi Kuch Nahi
तिफ़्लान-ए-कूचा-गर्द के पत्थर भी कुछ नहीं
सौदा भी एक वहम है और सर भी कुछ नहीं
मैं और ख़ुद को तुझ से छुपाऊँगा या’नी मैं
ले देख ले मियाँ मिरे अंदर भी कुछ नहीं
बस इक गुबार-ए-वहम है इक कूचा-गर्द का
दीवार-ए-बूद कुछ नहीं और दर भी कुछ नहीं
ये शहर-दार-ओ-मुहतसिब-ओ-मौलवी ही क्या
पीर-ए-मुग़ान-ओ-रिन्द-ओ-क़लंदर भी कुछ नहीं
शैख़-ए-हराम-लुक़्मा की पर्वा है क्यूँ तुम्हें
मस्जिद भी उस की कुछ नहीं मिम्बर भी कुछ नहीं
मक़्दूर अपना कुछ भी नहीं इस दयार में
शायद वो जब्र है कि मुक़द्दर भी कुछ नहीं
जानी मैं तेरे नाफ़-पियाले पे हूँ फ़िदा
ये और बात है तिरा पैकर भी कुछ नहीं
ये शब का रक़्स-ओ-रंग तो क्या सुन मिरी कुहन
सुब्ह-ए-शिताब-कोश को दफ़्तर भी कुछ नहीं
बस इक ग़ुबार तूर-ए-गुमाँ का है तह-ब-तह
या’नी नज़र भी कुछ नहीं मंज़र भी कुछ नहीं
है अब तो एक जाल सुकून-ए-हमेशगी
पर्वाज़ का तो ज़िक्र ही क्या पर भी कुछ नहीं
कितना डरावना है ये शहर-ए-नबूद-ओ-बूद
ऐसा डरावना कि यहाँ डर भी कुछ नहीं
पहलू में है जो मेरे कहीं और है वो शख़्स
या’नी वफ़ा-ए-अहद का बिस्तर भी कुछ नहीं
निस्बत में उन की जो है अज़िय्यत वो है मगर
शह-रग भी कोई शय नहीं और सर भी कुछ नहीं
याराँ तुम्हें जो मुझ से गिला है तो किस लिए
मुझ को तो ए’तिराज़ ख़ुदा पर भी कुछ नहीं
गुज़रेगी ‘जौन’ शहर में रिश्तों के किस तरह
दिल में भी कुछ नहीं है ज़बाँ पर भी कुछ नहीं
तिश्नगी ने सराब ही लिक्खा | Tishnagi Ne Sharab Hi Likha
तिश्नगी ने सराब ही लिक्खा
ख़्वाब देखा था ख़्वाब ही लिक्खा
हम ने लिक्खा निसाब-ए-तीरा-शबी
और ब-सद आब-ओ-ताब ही लिक्खा
मुंशियान-ए-शुहूद ने ता-हाल
ज़िक्र-ए-ग़ैब-ओ-हिजाब ही लिक्खा
न रखा हम ने बेश-ओ-कम का ख़याल
शौक़ को बे-हिसाब ही लिक्खा
दोस्तो हम ने अपना हाल उसे
जब भी लिक्खा ख़राब ही लिक्खा
न लिखा उस ने कोई भी मक्तूब
फिर भी हम ने जवाब ही लिक्खा
हम ने इस शहर-ए-दीन-ओ-दौलत में
मस्ख़रों को जनाब ही लिक्खा
तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है | Tu Bhi Chup Hai Main Bhi Chup Hoon Yah Kaisi Tanhai Hai
तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है
शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है
उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास
जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है
हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है
हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है
हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़ ए रक़बत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है
हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तू ने कैसी शक्ल बनाई है
इश्क़ ए पैचान की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है
हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पैशा हुस्न परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है
आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की खुश्बू आई है
एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है
तुझ में पड़ा हुआ हूँ हरकत नहीं है मुझ में | Tujhme Mein Pada Hua Hoon Harkat Nahi Hai Mujh Mein
तुझ में पड़ा हुआ हूँ हरकत नहीं है मुझ में
हालत न पूछियो तू हालत नहीं है मुझ में
अब तो नज़र में आ जा बाँहों के घर में आ जा
ऐ जान तेरी कोई सूरत नहीं है मुझ में
ऐ रंग रंग में आ आग़ोश-ए-तंग में आ
बातें ही रंग की हैं रंगत नहीं है मुझ में
अपने में ही किसी की हो रू-ब-रूई मुझ को
हूँ ख़ुद से रू-ब-रू मैं हिम्मत नहीं है मुझ में
अब तो सिमट के आ जा और रूह में समा जा
वैसे किसी की प्यारे वुसअत नहीं है मुझ में
शीशे के इस तरफ़ से मैं सब को तक रहा हूँ
मरने की भी किसी को फ़ुर्सत नहीं है मुझ में
तुम मुझ को अपने रम में ले जाओ साथ अपने
अपने से ऐ ग़ज़ालो वहशत नहीं है मुझ में
तुझ से गिले करूँ तुझे जानाँ मनाऊँ मैं | Tujhse Se Gile Karu Tujhe Jaana Manau Main
तुझ से गिले करूँ तुझे जानाँ मनाऊँ मैं
इक बार अपने-आप में आऊँ तो आऊँ मैं
दिल से सितम की बे-सर-ओ-कारी हवा को है
वो गर्द उड़ रही है कि ख़ुद को गँवाऊँ मैं
वो नाम हूँ कि जिस पे नदामत भी अब नहीं
वो काम हैं कि अपनी जुदाई कमाऊँ मैं
क्यूँकर हो अपने ख़्वाब की आँखों में वापसी
किस तौर अपने दिल के ज़मानों में जाऊँ मैं
इक रंग सी कमान हो ख़ुश्बू सा एक तीर
मरहम सी वारदात हो और ज़ख़्म खाऊँ मैं
शिकवा सा इक दरीचा हो नश्शा सा इक सुकूत
हो शाम इक शराब सी और लड़खड़ाऊँ मैं
फिर उस गली से अपना गुज़र चाहता है दिल
अब उस गली को कौन सी बस्ती से लाऊँ मैं
तुम हकीकत नहीं हो हसरत हो | Tum Haqiqat Nahi Ho Hasrat Ho
तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो
तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
और इतने ही बेमुरव्वत हो
तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो
है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा
तुम्हें सब शायरों से वहशत हो
किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ
तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो
किसलिए देखते हो आईना
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो
दास्ताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़िरी मुहब्बत हो
तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं | Tum Jis Zameen Par Ho Main Uss Ka Khuda Nahi
तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर- ब-सर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो
मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
मैंने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैंने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो
तुम से भी अब तो जा चुका हूँ मैं | Tum Se Bhi Ab To Jaa Chuka Hoon Main
तुम से भी अब तो जा चुका हूँ मैं
दूर-हा-दूर आ चुका हूँ मैं
ये बहुत ग़म की बात हो शायद
अब तो ग़म भी गँवा चुका हूँ मैं
इस गुमान-ए-गुमाँ के आलम में
आख़िरश क्या भुला चुका हूँ मैं
अब बबर शेर इश्तिहा है मिरी
शाइ’रों को तो खा चुका हूँ मैं
मैं हूँ मे’मार पर ये बतला दूँ
शहर के शहर ढह चुका हूँ मैं
हाल है इक अजब फ़राग़त का
अपना हर ग़म मना चुका हूँ मैं
लोग कहते हैं मैं ने जोग लिया
और धूनी रमा चुका हूँ मैं
नहीं इमला दुरुस्त ‘ग़ालिब’ का
‘शेफ़्ता’ को बता चुका हूँ मैं
तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो | Tumhara Hizra Mana Lu Agar Ijajat Ho
तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो
मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारे बा’द भला क्या हैं वअदा-ओ-पैमाँ
बस अपना वक़्त गँवा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारे हिज्र की शब-हा-ए-कार में जानाँ
कोई चराग़ जला लूँ अगर इजाज़त हो
जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नया
यहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो
किसे है ख़्वाहिश-ए-मरहम-गरी मगर फिर भी
मैं अपने ज़ख़्म दिखा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी
कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो
उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या | Umra Gujregi Imtihaan Mein Kya
उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या
दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या
मेरी हर बात बे-असर ही रही
नुक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या
मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है ख़ानदान में क्या
अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं
हम ग़रीबों की आन-बान में क्या
ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से
आ गया था मिरे गुमान में क्या
शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या
ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़
तू नहाती है अब भी बान में क्या
बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में
आबले पड़ गए ज़बान में क्या
ख़ामुशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मिरे गुमान में क्या
दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत
ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या
वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या
यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या
है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद
ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या
उसके पहलू से लग के चलते हैं | Uske Pehlu Se Lag Ke Chalte Hai
उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने से टलते हैं
मै उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलतें हैं
वो है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं
क्या तकल्लुफ्फ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं
है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं
है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं
हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं
तुम बनो रंग, तुम बनो ख़ुशबू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं
Uske Pehlu Se Lag Ke Chalte Hain
Hum Kahin Ṭaalane Se Ṭalte Hain
(I walk closer to her side
I’m not someone who get avoided by avoiding)
Main Usi Tarah To Behalta Hoon
Aur Sab Jis Tarah Behalte Hain
(I also get pacify the same
like everyone else get pacify)
Woh Hai Jaan Ab Har Ek Mehfil Ki
Hum Bhi Ab Ghar Se Kam Nikalte Hain
(Now she is the life of every gathering
I also leave the house less now)
Kya Takalluf Kare Yeh Kehne Mein
Jo Bhi Khush Hai Hum Usse Jalte Hain
(why bother saying this
I am jealous of anyone who is happy)
उस ने हम को गुमान में रक्खा | Usne Hum Ko Gumaan Mein Rakha
उस ने हम को गुमान में रक्खा
और फिर कम ही ध्यान में रक्खा
क्या क़यामत-नुमू थी वो जिस ने
हश्र उस की उठान में रक्खा
जोशिश-ए-ख़ूँ ने अपने फ़न का हिसाब
एक चुप इक चटान में रक्खा
लम्हे लम्हे की अपनी थी इक शान
तू ने ही एक शान में रक्खा
हम ने पैहम क़ुबूल-ओ-रद कर के
उस को एक इम्तिहान में रक्खा
तुम तो उस याद की अमान में हो
उस को किस की अमान में रक्खा
अपना रिश्ता ज़मीं से ही रक्खो
कुछ नहीं आसमान में रक्खा
वो जो था वो कभी मिला ही नहीं | Woh Jo Tha Woh Kabhi Mila Hi Nahi
वो जो था वो कभी मिला ही नहीं
सो गरेबाँ कभी सिला ही नहीं
उस से हर दम मोआ’मला है मगर
दरमियाँ कोई सिलसिला ही नहीं
बे-मिले ही बिछड़ गए हम तो
सौ गिले हैं कोई गिला ही नहीं
चश्म-ए-मयगूँ से है मुग़ाँ ने कहा
मस्त कर दे मगर पिला ही नहीं
तू जो है जान तू जो है जानाँ
तू हमें आज तक मिला ही नहीं
मस्त हूँ मैं महक से उस गुल की
जो किसी बाग़ में खिला ही नहीं
हाए ‘जौन’ उस का वो पियाला-ए-नाफ़
जाम ऐसा कोई मिला ही नहीं
तू है इक उम्र से फ़ुग़ाँ-पेशा
अभी सीना तिरा छिला ही नहीं
वो ख़याल-ए-मुहाल किस का था | Woh Khayale-Muhaal Kis Ka Tha
वो ख़याल-ए-मुहाल किस का था
आइना बे-मिसाल किस का था
सफ़री अपने आप से था मैं
हिज्र किस का विसाल किस का था
मैं तो ख़ुद में कहीं न था मौजूद
मेरे लब पर सवाल किस का था
थी मिरी ज़ात इक ख़याल-आशोब
जाने मैं हम-ख़याल किस का था
जब कि मैं हर-नफ़स था बे-अहवाल
वो जो था मेरा हाल किस का था
दोपहर बाद-ए-तुंद कूचा-ए-यार
वो ग़ुबार-ए-मलाल किस का था
वो क्या कुछ न करने वाले थे | Woh Kya Kuch Na Karne Wale The
वो क्या कुछ न करने वाले थे
बस कोई दम में मरने वाले थे
थे गिले और गर्द-ए-बाद की शाम
और हम सब बिखरने वाले थे
वो जो आता तो उस की ख़ुश्बू में
आज हम रंग भरने वाले थे
सिर्फ़ अफ़्सोस है ये तंज़ नहीं
तुम न सँवरे सँवरने वाले थे
यूँ तो मरना है एक बार मगर
हम कई बार मरने वाले थे
याद उसे इंतिहाई करते हैं | Yaad Usse Intihaayi Karte Hai
याद उसे इंतिहाई करते हैं
सो हम उस की बुराई करते हैं
पसंद आता है दिल से यूसुफ़ को
वो जो यूसुफ़ के भाई करते हैं
है बदन ख़्वाब-ए-वस्ल का दंगल
आओ ज़ोर-आज़माई करते हैं
उस को और ग़ैर को ख़बर ही नहीं
हम लगाई बुझाई करते हैं
हम अजब हैं कि उस की बाँहों में
शिकवा-ए-नारसाई करते हैं
हालत-ए-वस्ल में भी हम दोनों
लम्हा लम्हा जुदाई करते हैं
आप जो मेरी जाँ हैं मैं दिल हूँ
मुझ से कैसे जुदाई करते हैं
बा-वफ़ा एक दूसरे से मियाँ
हर-नफ़स बेवफ़ाई करते हैं
जो हैं सरहद के पार से आए
वो बहुत ख़ुद-सताई करते हैं
पल क़यामत के सूद-ख़्वार हैं ‘जौन’
ये अबद की कमाई करते हैं
यादों का हिसाब रख रहा हूँ | Yaadon Ka Hisaab Rakh Raha Hoon
यादों का हिसाब रख रहा हूँ
सीने में अज़ाब रख रहा हूँ
तुम कुछ कहे जाओ क्या कहूँ मैं
बस दिल में जवाब रख रहा हूँ
दामन में किए हैं जमा गिर्दाब
जेबों में हबाब रख रहा हूँ
आएगा वो नख़वती सो मैं भी
कमरे को ख़राब रख रहा हूँ
तुम पर मैं सहीफ़ा-हा-ए-कोहना
इक ताज़ा किताब रख रहा हूँ
ये अक्सर तल्ख़-कामी सी रही क्या | Yeh Aksar Talkh Kaami Si Rahi Kya
ये अक्सर तल्ख़-कामी सी रही क्या
मोहब्बत ज़क उठा कर आई थी क्या
न कसदम हैं न अफ़ई हैं न अज़दर
मिलेंगे शहर में इंसान ही क्या
मैं अब हर शख़्स से उक्ता चुका हूँ
फ़क़त कुछ दोस्त हैं और दोस्त भी क्या
ये रब्त-ए-बे-शिकायत और ये मैं
जो शय सीने में थी वो बुझ गई क्या
मोहब्बत में हमें पास-ए-अना था
बदन की इश्तिहा सादिक़ न थी क्या
नहीं है अब मुझे तुम पर भरोसा
तुम्हें मुझ से मोहब्बत हो गई क्या
जवाब-ए-बोसा सच अंगड़ाइयाँ सच
तो फिर वो बे-वफ़ाई झूट थी क्या
शिकस्त-ए-ए’तिमाद-ए-ज़ात के वक़्त
क़यामत आ रही थी आ गई क्या
ये ग़म क्या दिल की ‘आदत है नहीं तो | Yeh Gham Kya Dil Ki Aadat Hai Nahi To
ये ग़म क्या दिल की ‘आदत है नहीं तो
किसी से कुछ शिकायत है नहीं तो
किसी के बिन किसी की याद के बिन
जिए जाने की हिम्मत है नहीं तो
है वो इक ख़्वाब-ए-बे-ताबीर उस को
भुला देने की नीयत है नहीं तो
किसी सूरत भी दिल लगता नहीं हाँ
तो कुछ दिन से ये हालत है नहीं तो
तिरे इस हाल पर है सब को हैरत
तुझे भी इस पे हैरत है नहीं तो
हम-आहंगी नहीं दुनिया से तेरी
तुझे इस पर नदामत है नहीं तो
हुआ जो कुछ यही मक़्सूम था क्या
यही सारी हिकायत है नहीं तो
अज़िय्यत-नाक उम्मीदों से तुझ को
अमाँ पाने की हसरत है नहीं तो
तू रहता है ख़याल-ओ-ख़्वाब में गुम
तो इस की वज्ह फ़ुर्सत है नहीं तो
सबब जो इस जुदाई का बना है
वो मुझ से ख़ूबसूरत है नहीं तो
ये जो सुना इक दिन वो हवेली यकसर बे-आसार गिरी | Yeh Jo Suna Ik Din Woh Haveli Yaksar-be-Aasaar Giri
ये जो सुना इक दिन वो हवेली यकसर बे-आसार गिरी
हम जब भी साए में बैठे दिल पर इक दीवार गिरी
जूँही मुड़ कर देखा मैं ने बीच उठी थी इक दीवार
बस यूँ समझो मेरे ऊपर बिजली सी इक बार गिरी
धार पे बाड़ रखी जाए और हम उस के घायल ठहरें
मैं ने देखा और नज़रों से उन पलकों की धार गिरी
गिरने वाली उन तामीरों में भी एक सलीक़ा था
तुम ईंटों की पूछ रहे हो मिट्टी तक हमवार गिरी
बेदारी के बिस्तर पर मैं उन के ख़्वाब सजाता हूँ
नींद भी जिन की टाट के ऊपर ख़्वाबों से नादार गिरी
ख़ूब ही थी वो क़ौम-ए-शहीदाँ या’नी सब बे-ज़ख़म-ओ-ख़राश
मैं भी उस सफ़ में था शामिल वो सफ़ जो बे-वार गिरी
हर लम्हा घमसान का रन है कौन अपने औसान में है
कौन है ये? अच्छा तो मैं हूँ लाश तो हाँ इक यार गिरी
ये पैहम तल्ख़-कामी सी रही क्या | Yeh Paiham Talkh-Kaami Si Rahi Kya
ये पैहम तल्ख़-कामी सी रही क्या
मोहब्बत ज़हर खा के आई थी क्या
मुझे अब तुम से डर लगने लगा है
तुम्हें मुझ से मोहब्बत हो गई क्या
शिकस्त-ए-ए’तिमाद-ए-ज़ात के वक़्त
क़यामत आ रही थी आ गई क्या
मुझे शिकवा नहीं बस पूछना है
ये तुम हँसती हो अपनी ही हँसी क्या
हमें शिकवा नहीं इक दूसरे से
मनाना चाहिए उस पर ख़ुशी क्या
पड़े हैं एक गोश में गुमाँ के
भला हम क्या हमारी ज़िंदगी क्या
मैं रुख़्सत हो रहा हूँ पर तुम्हारी
उदासी हो गई है मुल्तवी क्या
मैं अब हर शख़्स से उक्ता चुका हूँ
फ़क़त कुछ दोस्त हैं और दोस्त भी क्या
मोहब्बत में हमें पास-ए-अना था
बदन की इश्तिहा सादिक़ न थी क्या
नहीं रिश्ता समूचा ज़िंदगी से
न जाने हम में है अपनी कमी क्या
अभी होने की बातें हैं सो कर लो
अभी तो कुछ नहीं होना अभी क्या
यही पूछा किया मैं आज दिन-भर
हर इक इंसान को रोटी मिली क्या
ये रब्त-ए-बे-शिकायत और ये मैं
जो शय सीने में थी वो बुझ गई क्या
ज़ख़्म-ए-उम्मीद भर गया कब का | Zakham-e-Ummeed Bhar Gaya Kab
ज़ख़्म-ए-उम्मीद भर गया कब का
क़ैस तो अपने घर गया कब का
अब तो मुँह अपना मत दिखाओ मुझे
नासेहो मैं सुधर गया कब का
आप अब पूछने को आए हैं
दिल मिरी जान मर गया कब का
आप इक और नींद ले लीजे
क़ाफ़िला कूच कर गया कब का
मेरा फ़िहरिस्त से निकाल दो नाम
मैं तो ख़ुद से मुकर गया कब का
ज़िक्र भी उस से क्या भला मेरा | Zikra Bhi Uss Se Kya Bhala Mera
ज़िक्र भी उस से क्या भला मेरा
उस से रिश्ता ही क्या रहा मेरा
आज मुझ को बहुत बुरा कह कर
आप ने नाम तो लिया मेरा
आख़िरी बात तुम से कहना है
याद रखना न तुम कहा मेरा
अब तो कुछ भी नहीं हूँ मैं वैसे
कभी वो भी था मुब्तला मेरा
वो भी मंज़िल तलक पहुँच जाता
उस ने ढूँडा नहीं पता मेरा
तुझ से मुझ को नजात मिल जाए
तो दुआ कर कि हो भला मेरा
क्या बताऊँ बिछड़ गया याराँ
एक बिल्क़ीस से सबा मेरा
ज़िक्र-ए-गुल हो ख़ार की बातें करें | Zikra-e-Gul Ho Khaar Ki Baatein Kare
ज़िक्र-ए-गुल हो ख़ार की बातें करें
लज़्ज़त-ओ-आज़ार की बातें करें
है मशाम-ए-शौक़ महरूम-ए-शमीम
ज़ुल्फ़-ए-अम्बर-बार की बातें करें
दूर तक ख़ाली है सहरा-ए-नज़र
आहू-ए-तातार की बातें करें
आज कुछ ना-साज़ है तब-ए-ख़िरद
नर्गिस-ए-बीमार की बातें करें
यूसुफ़-ए-कनआँ’ का हो कुछ तज़्किरा
मिस्र के बाज़ार की बातें करें
आओ ऐ ख़ुफ़्ता-नसीबो मुफ़लिसो
दौलत-ए-बेदार की बातें करें
‘जौन’ आओ कारवाँ-दर-कारवाँ
मंज़िल-ए-दुश्वार की बातें करें
ज़िंदगी क्या है इक कहानी है | Zindgi Kya Hai Ik Kahani Hai
ज़िंदगी क्या है इक कहानी है
ये कहानी नहीं सुनानी है
है ख़ुदा भी अजीब या’नी जो
न ज़मीनी न आसमानी है
है मिरे शौक़-ए-वस्ल को ये गिला
उस का पहलू सरा-ए-फ़ानी है
अपनी तामीर-ए-जान-ओ-दिल के लिए
अपनी बुनियाद हम को ढानी है
ये है लम्हों का एक शहर-ए-अज़ल
याँ की हर बात ना-गहानी है
चलिए ऐ जान-ए-शाम आज तुम्हें
शम्अ इक क़ब्र पर जलानी है
रंग की अपनी बात है वर्ना
आख़िरश ख़ून भी तो पानी है
इक अबस का वजूद है जिस से
ज़िंदगी को मुराद पानी है
शाम है और सहन में दिल के
इक अजब हुज़न-ए-आसमानी है
Jaun Elia’s Nazm | जॉन एलिया की नज़्में
अजब था उसकी दिलज़ारी का अन्दाज़ | Ajab Tha Uski Dildari Ka Andaz
अजब था उसकी दिलज़ारी का अन्दाज़
वो बरसों बाद जब मुझ से मिला है
भला मैं पूछता उससे तो कैसे
मताए-जां तुम्हारा नाम क्या है?
साल-हा-साल और एक लम्हा
कोई भी तो न इनमें बल आया
खुद ही एक दर पे मैंने दस्तक दी
खुद ही लड़का सा मैं निकल आया
दौर-ए-वाबस्तगी गुज़ार के मैं
अहद-ए-वाबस्तगी को भूल गया
यानी तुम वो हो, वाकई, हद है
मैं तो सचमुच सभी को भूल गया
रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में
रस्म ही क्या निबाहनी होती
मुस्कुराए हम उससे मिलते वक्त
रो न पड़ते अगर खुशी होती
दिल में जिनका निशान भी न रहा
क्यूं न चेहरों पे अब वो रंग खिलें
अब तो खाली है रूह, जज़्बों से
अब भी क्या हम तपाक से न मिलें
शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी
नाज़ से काम क्यों नहीं लेतीं
आप, वो, जी, मगर ये सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेतीं
अजनबी शाम | Ajnabi Shaam
धुँद छाई हुई है झीलों पर
उड़ रहे हैं परिंद टीलों पर
सब का रुख़ है नशेमनों की तरफ़
बस्तियों की तरफ़ बनों की तरफ़
अपने गल्लों को ले के चरवाहे
सरहदी बस्तियों में जा पहुँचे
दिल-ए-नाकाम मैं कहाँ जाऊँ
अजनबी शाम मैं कहाँ जाऊँ
बस एक अंदाज़ा | Bas Ek Andaza
बरस गुज़रे तुम्हें सोए हुए
उठ जाओ सुनती हो अब उठ जाओ
मैं आया हूँ
मैं अंदाज़े से समझा हूँ
यहाँ सोई हुई हो तुम
यहाँ रू-ए-ज़मीं के इस मक़ाम-ए-आसमानी-तर की हद में
बाद-हा-ए-तुंद ने
मेरे लिए बस एक अंदाज़ा ही छोड़ा है!
चार सू मेहरबाँ है चौराहा | Chaar Su Meharbaan Chouraha
चार सू मेहरबाँ है चौराहा
अजनबी शहर अजनबी बाज़ार
मेरी तहवील में हैं समेटे चार
कोई रास्ता कहीं तो जाता है
चार सू मेहरबाँ है चौराहा
दरीचा-हा-ए-ख़याल | Dareecha-Ha-E-Khayaal
चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें
और ये सब दरीचा-हा-ए-ख़याल
जो तुम्हारी ही सम्त खुलते हैं
बंद कर दूँ कुछ इस तरह कि यहाँ
याद की इक किरन भी आ न सके
चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें
और ख़ुद भी न याद आऊँ तुम्हें
जैसे तुम सिर्फ़ इक कहानी थीं
जैसे मैं सिर्फ़ इक फ़साना था
फ़न पारा | Fun Paara
ये किताबों की सफ़-ब-सफ़ जिल्दें
काग़ज़ों का फ़ुज़ूल इस्ती’माल
रौशनाई का शानदार इसराफ़
सीधे सीधे से कुछ सियह धब्बे
जिन की तौजीह आज तक न हुई
चंद ख़ुश-ज़ौक़ कम-नसीबों ने
बसर औक़ात के लिए शायद
ये लकीरें बिखेर डाली हैं
कितनी ही बे-क़ुसूर नस्लों ने
इन को पढ़ने के जुर्म में ता-उम्र
ले के कश्कूल-ए-इल्म-ओ-हिक्मत-ओ-फ़न
कू-ब-कू जाँ की भीक माँगी है
आह ये वक़्त का अज़ाब-ए-अलीम
वक़्त ख़ल्लाक़ बे-शुऊर क़दीम
सारी तारीफ़ें उन अँधेरों की
जिन में परतव न कोई परछाईं
आह ये ज़िंदगी की तन्हाई
सोचना और सोचते रहना
चंद मासूम पागलों की सज़ा
आज मैं ने भी सोच रक्खा है
वक़्त से इंतिक़ाम लेने को
यूँही ता-शाम सादे काग़ज़ पर
टेढ़े टेढ़े ख़ुतूत खींचे जाएँ
हमेशा क़त्ल हो जाता हूँ मैं | Hamesha Qatal Ho Jata Hoon Main
बिसात-ए-ज़िंदगी तो हर घड़ी बिछती है उठती है
यहाँ पर जितने ख़ाने जितने घर हैं
सारे
ख़ुशियाँ और ग़म इनआ’म करते हैं
यहाँ पर सारे मोहरे
अपनी अपनी चाल चलते हैं
कभी महसूर होते हैं कभी आगे निकलते है
यहाँ पर शह भी पड़ती है
यहाँ पर मात होती है
कभी इक चाल टलती है
कभी बाज़ी पलटती है
यहाँ पर सारे मोहरे अपनी अपनी चाल चलते हैं
मगर मैं वो पियादा हूँ
जो हर घर में
कभी इस शह से पहले और कभी उस मात से पहले
कभी इक बुर्द से पहले कभी आफ़ात से पहले
हमेशा क़त्ल हो जाता है
ख़ल्वत | Khalvat
मुझे तुम अपनी बाँहों में जकड़ लो और मैं तुम को
किसी भी दिल-कुशा जज़्बे से यकसर ना-शनासाना
नशात-ए-रंग की सरशारी-ए-हालत से बेगाना
मुझे तुम अपनी बाँहों में जकड़ लो और मैं तुम को
फ़ुसूँ-कारा निगारा नौ-बहारा आरज़ू-आरा
भला लम्हों का मेरी और तुम्हारी ख़्वाब-परवर
आरज़ू-मंदी की सरशारी से क्या रिश्ता
हमारी बाहमी यादों की दिलदारी से क्या रिश्ता
मुझे तुम अपनी बाँहों में जकड़ लो और मैं तुम को
यहाँ अब तीसरा कोई नहीं या’नी मोहब्बत भी
लौ-ए-दिल जला दूँ क्या | Lau-E-Dil Jala Doon Kya
फारेहा निगारिना, तुमने मुझको लिखा है
“मेरे ख़त जला दीजे !
मुझको फ़िक्र रहती है !
आप उन्हें गँवा दीजे !
आपका कोई साथी, देख ले तो क्या होगा !
देखिये! मैं कहती हूँ ! ये बहुत बुरा होगा !”
मैं भी कुछ कहूँ तुमसे,
फारेहा निगारिना
ए बनाजुकी मीना
इत्र बेज नसरीना
रश्क-ए-सर्ब-ए-सिरमीना
मैं तुम्हारे हर ख़त को लौह-ए-दिल समझता हूँ !
लौह-ए-दिल जला दूं क्या ?
जो भी सत्र है इनकी, कहकशां है रिश्तों की
कहकशां लुटा दूँ क्या ?
जो भी हर्फ़ है इनका, नक्श-ए-जान है जनानां
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?
है सवाद-ए-बीनाई, इनका जो भी नुक्ता है
मैं उसे गंवा दूँ क्या ?
लौह-ए-दिल जला दूँ क्या ?
कहकशां लुटा दूँ क्या ?
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?
मुझको लिख के ख़त जानम
अपने ध्यान में शायद
ख्वाब ख्वाब ज़ज्बों के
ख्वाब ख्वाब लम्हों में
यूँ ही बेख्यालाना
जुर्म कर गयी हो तुम
और ख्याल आने पर
उस से डर गयी हो तुम
जुर्म के तसव्वुर में
गर ये ख़त लिखे तुमने
फिर तो मेरी राय में
जुर्म ही किये तुमने
जुर्म क्यूँ किये जाएँ ?
ख़त ही क्यूँ लिखे जाएँ ?
मगर ये ज़ख़्म ये मरहम | Magar Yeh Zakhm Yeh Marham
तुम्हारे नाम तुम्हारे निशाँ से बे-सरोकार
तुम्हारी याद के मौसम गुज़रते जाते हैं
बस एक मन्ज़र-ए-बे-हिज्र-ओ-विसाल है जिस में
हम अपने आप ही कुछ रंग भरते जाते हैं
न वो नशात-ए-तसव्वुर कि लो तुम आ ही गए
न ज़ख़्म-ए-दिल की है सोज़िश कोई जो सहनी हो
न कोई वा’दा-ओ-पैमाँ की शाम है न सहर
न शौक़ की है कोई दास्ताँ जो कहनी हो
नहीं जो महमिल-ए-लैला-ए-आरज़ू सर-ए-राह
तो अब फ़ज़ा में फ़ज़ा के सिवा कुछ और नहीं
नहीं जो मौज-ए-सबा में कोई शमीम-ए-पयाम
तो अब सबा में सबा के सिवा कुछ और नहीं
उतार दे जो किनारे पे हम को कश्ती-ए-वहम
तो गिर्द-ओ-पेश को गिर्दाब ही समझते हैं
तुम्हारे रंग महकते हैं ख़्वाब में जब भी
तो ख़्वाब में भी उन्हें ख़्वाब ही समझते हैं
न कोई ज़ख़्म न मरहम कि ज़िंदगी अपनी
गुज़र रही है हर एहसास को गँवाने में
मगर ये ज़ख़्म ये मरहम भी कम नहीं शायद
कि हम हैं एक ज़मीं पर और इक ज़माने में
मेरी अक्ल-ओ-होश की सब आसाईशें | Meri Akal-O-Hosh Ki Sab Aasaieshe
मेरी अक्ल-ओ-होश की सब आसाईशें
तुमने सांचे में ज़ुनूं के ढाल दी
कर लिया था मैंने अहद-ए-तर्क-ए-इश्क
तुमने फिर बाँहें गले में डाल दी
यूँ तो अपने कासिदाने-दिल के पास
जाने किस-किस के लिए पैगाम है
जो लिखे जाते थे औरो के नाम
मेरे वो खत भी तुम्हारे नाम हैं
ये तेरे खत, तेरी खुशबू, ये तेरे ख्वाब-ओ-खयाल,
मताऐ-जाँ है तेरे कौल-ओ-कसम की तरह
गुजश्ता सालों मैनें इन्हे गिन के रखा है
किसी गरीब की जोड़ी हुई रकम की तरह
है मुहब्ब्त हयात की लज्जत
वरना कुछ लज़्ज़त-ए-हयात नहीं
क्या इज़ाज़त है एक बात कहूँ
मगर खैर कोई बात नहीं
नाकारा | Nakaara
कौन आया है
कोई नहीं आया है पागल
तेज़ हवा के झोंके से दरवाज़ा खुला है
अच्छा यूँ है
बेकारी में ज़ात के ज़ख़्मों की सोज़िश को और बढ़ाने
तेज़-रवी की राहगुज़र से
मेहनत-कोश और काम के दिन की
धूल आई है धूप आई है
जाने ये किस ध्यान में था मैं
आता तो अच्छा कौन आता
किस को आना था कौन आता
क़ातिल | Qaatil
सुना है तुम ने अपने आख़िरी लम्हों में समझा था
कि तुम मेरी हिफ़ाज़त में हो मेरे बाज़ुओं में हो
सुना है बुझते बुझते भी तुम्हारे सर्द ओ मुर्दा लब से
एक शो’ला शोला-ए-याक़ूत-फ़ाम ओ रंग ओ उम्मीद-ए-फ़रोग़-ए-ज़िंदगी-आहंग लपका था
हमें ख़ुद में छुपा लीजे
ये मेरा वो अज़ाब-ए-जाँ है जो मुझ को
मिरे अपने ख़ुद अपने ही जहन्नम में जलाता है
तुम्हारा सीना-ए-सीमीं
तुम्हारे बाज़ूवान-ए-मर-मरीं
मेरे लिए
मुझ इक हवसनाक-ए-फ़रोमाया की ख़ातिर
साज़ ओ सामान-ए-नशात ओ नश्शा-ए-इशरत-फ़ुज़ूनी थे
मिरे अय्याश लम्हों की फ़ुसूँ-गर पुर-जुनूनी के लिए
सद-लज़्ज़त आगीं सद-करिश्मा पुर-ज़बानी थे
तुम्हें मेरी हवस-पेशा
मिरी सफ़्फ़ाक क़ातिल बेवफ़ाई का गुमाँ तक
इस गुमाँ का एक वहम-ए-ख़ुद गुरेज़ाँ तक नहीं था
क्यूँ नहीं था क्यूँ नहीं था क्यूँ
कोई होता कोई तो होता
जो मुझ से मिरी सफ़्फ़ाक क़ातिल बेवफ़ाई की सज़ा में
ख़ून थुकवाता
मुझे हर लम्हे की सूली पे लटकाता
मगर फ़रियाद कोई भी नहीं कोई
दरेग़ उफ़्ताद कोई भी
मुझे मफ़रूर होना चाहिए था
और मैं सफ़्फ़ाक-क़ातिल बेवफ़ा ख़ूँ-रेज़-तर मैं
शहर में ख़ुद-वारदाती
शहर में ख़ुद-मस्त आज़ादाना फिरता हूँ
निगार-ए-ख़ाक-आसूदा
बहार-ए-ख़ाक-आसूदा
रम्ज़ | Ramz
तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
मुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता
रातें सच्ची हैं दिन झूटे हैं | Raatein Sacchi Hai Din Jhoothe Hai
चाहे तुम मेरी बीनाई खुरच डालो फिर भी अपने ख़्वाब नहीं छोड़ूँगा
उन की लज़्ज़त और अज़िय्यत से मैं अपना कोई अहद नहीं तोडूँगा
तेज़ नज़र ना-बीनाओं की आबादी में
क्या मैं अपने ध्यान की ये पूँजी भी गिनवा दूँ
हाँ मेरे ख़्वाबों को तुम्हारी सुब्हों की सर्द और साया-गूँ ताबीरों से नफ़रत है
इन सुब्हों ने शाम के हाथों अब तक जितने सूरज बेचे
वो सब इक बर्फ़ानी भाप की चमकीली और चक्कर खाती गोलाई थे
सो मेरे ख़्वाबों की रातें जलती और दहकती रातें
ऐसी यख़-बस्ता ताबीरों के हर दिन से अच्छी हैं और सच्ची भी हैं
जिस में धुँदला चक्कर खाता चमकीला-पन छे अतराफ़ का रोग बना है
मेरे अंधेरे भी सच्चे हैं
और तुम्हारे ”रोग उजाले” भी झूटे हैं
रातें सच्ची हैं दिन झूटे
जब तक दिन झूटे हैं जब तक
रातें सहना और अपने ख़्वाबों में रहना
ख़्वाबों को बहकाने वाले दिन के उजालों से अच्छा है
हाँ मैं बहकावों की धुँद नहीं ओढूँगा
चाहे तुम मेरी बीनाई खुरच डालो मैं फिर भी अपने ख़्वाब नहीं छोड़ूँगा
अपना अहद नहीं तोडूँगा
यही तो बस मेरा सब कुछ है
माह ओ साल के ग़ारत-गर से मेरी ठनी है
मेरी जान पर आन बनी है
चाहे कुछ हो मेरे आख़िरी साँस तलक अब चाहे कुछ हो
सफ़र के वक़्त | Safar Ke Waqt
तुम्हारी याद मिरे दिल का दाग़ है लेकिन
सफ़र के वक़्त तो बे-तरह याद आती हो
बरस बरस की हो आदत का जब हिसाब तो फिर
बहुत सताती हो जानम बहुत सताती हो
मैं भूल जाऊँ मगर कैसे भूल जाऊँ भला
अज़ाब-ए-जाँ की हक़ीक़त का अपनी अफ़्साना
मिरे सफ़र के वो लम्हे तुम्हारी पुर-हाली
वो बात बात मुझे बार बार समझाना
ये पाँच कुर्ते हैं देखो ये पाँच पाजामे
डले हुए हैं क़मर-बंद इन में और देखो
ये शेव-बॉक्स है और ये है ओलड असपाइस
नहीं हुज़ूर की झोंजल का अब कोई बाइ’स
ये डाइरी है और इस में पते हैं और नंबर
इसे ख़याल से बक्से की जेब में रखना
है अर्ज़ ”हज़रत-ए-ग़ाएब-दिमाग़” बंदी की
कि अपने ऐब की हालत को ग़ैब में रखना
ये तीन कोट हैं पतलून हैं ये टाइयाँ हैं
बंधी हुई हैं ये सब तुम को कुछ नहीं करना
ये ‘वेलियम’ है ‘ओनटल’ है और ‘टरपटी-नाल’
तुम इन के साथ मिरी जाँ ड्रिंक से डरना
बहुत ज़ियादा न पीना कि कुछ न याद आए
जो लखनऊ में हुआ था वो अब दोबारा न हो
हो तुम सुख़न की अना और तमकनत जानम
मज़ाक़ का किसी ‘इंशा’ को तुम से यारा न हो
वो ‘जौन’ जो नज़र आता है उस का ज़िक्र नहीं
तुम अपने ‘जौन’ का जो तुम में है भरम रखना
अजीब बात है जो तुम से कह रही हूँ मैं
ख़याल मेरा ज़ियादा और अपना कम रखना
हो तुम बला के बग़ावत-पसंद तल्ख़-कलाम
ख़ुद अपने हक़ में इक आज़ार हो गए हो तुम
तुम्हारे सारे सहाबा ने तुम को छोड़ दिया
मुझे क़लक़ है कि बे-यार हो गए हो तुम
ये बैंक-कार मैनेजर ये अपने टेक्नोक्रेट
कोई भी शुबह नहीं हैं ये एक अबस का ढिढोल
मैं ख़ुद भी इन को क्रो-मैग्नन समझती हूँ
ये शानदार जनावर हैं दफ़्तरों का मख़ौल
मैं जानती हूँ कि तुम सुन नहीं रहे मिरी बात
समाज झूट सही फिर भी उस का पास करो
है तुम को तैश है बालिशतियों की ये दुनिया
तो फिर क़रीने से तुम उन को बे-लिबास करो
तुम एक सादा ओ बरजस्ता आदमी ठहरे
मिज़ाज-ए-वक़्त को तुम आज तक नहीं समझे
जो चीज़ सब से ज़रूरी है वो मैं भूल गई
ये पासपोर्ट है इस को सँभाल के रखना
जो ये न हो तो ख़ुदा भी बशर तक आ न सके
सो तुम शुऊ’र का अपने कमाल कर रखना
मिरी शिकस्त के ज़ख़्मों की सोज़िश-ए-जावेद
नहीं रहा मिरे ज़ख़्मों का अब हिसाब कोई
है अब जो हाल मिरा वो अजब तमाशा है
मिरा अज़ाब नहीं अब मिरा अज़ाब कोई
नहीं कोई मिरी मंज़िल पे है सफ़र दरपेश
है गर्द गर्द अबस मुझ को दर-ब-दर पेश
सज़ा | Saza
हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं
तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम
मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं
तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो अज़ाब में
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं
तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
पस सर-ब-सर अज़िय्यत ओ आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िंदगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहाँ के साया ओ परतव से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो
मैं इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-मेहर ही रहा
तुम इंतिहा-ए-इश्क़ का मेआ’र ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
मैं ने ये कब कहा था मोहब्बत में है नजात
मैं ने ये कब कहा था वफ़ादार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मिरे लिए
बाज़ार-ए-इल्तिफ़ात में नादार ही रहो
जब मैं तुम्हें नशात-ए-मोहब्बत न दे सका
ग़म में कभी सुकून-ए-रिफ़ाक़त न दे सका
जब मेरे सब चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं
फिर मुझ को चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
तन्हा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
शायद | Shayad
मैं शायद तुम को यकसर भूलने वाला हूँ
शायद जान-ए-जाँ शायद
कि अब तुम मुझ को पहले से ज़ियादा याद आती हो
है दिल ग़मगीं बहुत ग़मगीं
कि अब तुम याद दिलदाराना आती हो
शमीम-ए-दूर-माँदा हो
बहुत रंजीदा हो मुझ से
मगर फिर भी
मशाम-ए-जाँ में मेरे आश्ती-मंदाना आती हो
जुदाई में बला का इल्तिफ़ात-ए-मेहरमाना है
क़यामत की ख़बर-गीरी है
बेहद नाज़-बरदारी का आलम है
तुम्हारे रंग मुझ में और गहरे होते जाते हैं
मैं डरता हूँ
मिरे एहसास के इस ख़्वाब का अंजाम क्या होगा
ये मेरे अंदरून-ए-ज़ात के ताराज-गर
जज़्बों के बैरी वक़्त की साज़िश न हो कोई
तुम्हारे इस तरह हर लम्हा याद आने से
दिल सहमा हुआ सा है
तो फिर तुम कम ही याद आओ
मता-ए-दिल मता-ए-जाँ तो फिर तुम कम ही याद आओ
बहुत कुछ बह गया है सैल-ए-माह-ओ-साल में अब तक
सभी कुछ तो न बह जाए
कि मेरे पास रह भी क्या गया है
कुछ तो रह जाए
तआ’क़ुब | Taaqub
मुझ से पहले के दिन
अब बहुत याद आने लगे हैं तुम्हें
ख़्वाब-ओ-ता’बीर के गुम-शुदा सिलसिले
बार बार अब सताने लगे हैं तुम्हें
दुख जो पहुँचे थे तुम से किसी को कभी
देर तक अब जगाने लगे हैं तुम्हें
अब बहुत याद आने लगे हैं तुम्हें
अपने वो अहद-ओ-पैमाँ जो मुझ से न थे
क्या तुम्हें मुझ से अब कुछ भी कहना नहीं
वो | Woh
वो किताब-ए-हुस्न वो इल्म ओ अदब की तालीबा
वो मोहज़्ज़ब वो मुअद्दब वो मुक़द्दस राहिबा
किस क़दर पैराया परवर और कितनी सादा-कार
किस क़दर संजीदा ओ ख़ामोश कितनी बा-वक़ार
गेसू-ए-पुर-ख़म सवाद-ए-दोश तक पहुँचे हुए
और कुछ बिखरे हुए उलझे हुए सिमटे हुए
रंग में उस के अज़ाब-ए-ख़ीरगी शामिल नहीं
कैफ़-ए-एहसासात की अफ़्सुर्दगी शामिल नहीं
वो मिरे आते ही उस की नुक्ता-परवर ख़ामुशी
जैसे कोई हूर बन जाए यकायक फ़लसफ़ी
मुझ पे क्या ख़ुद अपनी फ़ितरत पर भी वो खुलती नहीं
ऐसी पुर-असरार लड़की मैं ने देखी ही नहीं
दुख़तरान-ए-शहर की होती है जब महफ़िल कहीं
वो तआ’रुफ़ के लिए आगे कभी बढ़ती नहीं