Leo Tolstoy – Prem Mein Parmeshwar | लेव तोल्सतोय – प्रेम में परमेश्वर | Story | Hindi Kahani | Translated by Munshi Premchand
Hindi Kala presents Russian Author Leo Tolstoy Story Prem Mein Parmeshwar | लेव तोल्सतोय – प्रेम में परमेश्वर in Hindi translated by Munshi Premchand. Please read this story and share your views in the comments.

Leo Tolstoy Story Prem Mein Parmeshwar | लेव तोल्सतोय – प्रेम में परमेश्वर
किसी गांव में मूरत नाम का एक बनिया रहता था। सड़क पर उसकी छोटीसी दुकान थी। वहां रहते उसे बहुत काल हो चुका था, इसलिए वहां के सब निवासियों को भलीभांति जानता था। वह बड़ा सदाचारी, सत्यवक्ता, व्यावहारिक और सुशील था। जो बात कहता, उसे जरूर पूरा करता। कभी धेले भर भी कम न तोलता और न घीतेल मिलाकर बेचता। चीज़ अच्छी न होती, तो गराहक से साफसाफ कह देता, धोखा न देता था।
चौथेपन में वह भगवत्भजन का परेमी हो गया था। उसके और बालक तो पहले ही मर चुके थे, अंत में तीन साल का बालक छोड़कर उसकी स्त्री भी जाती रही। पहले तो मूरत ने सोचा, इसे ननिहाल भेज दूं, पर फिर उसे बालक से परेम हो गया। वह स्वयं उसका पालन करने लगा। उसके जीवन का आधार अब यही बालक था। इसी के लिए वह रातदिन काम किया करता था। लेकिन शायद संतान का सुख उसके भाग्य में लिखा ही न था।
पलपलाकर बीस वर्ष की अवस्था में यह बालक भी यमलोक को सिधार गया। अब मूरत के शोक की कोई सीमा न थी। उसका विश्वास हिल गया। सदैव परमात्मा की निन्दा कर वह कहा करता था कि परमेश्वर बड़ा निर्दयी और अन्यायी है; मारना बू़े को चाहिए था, मार डाला युवक को। यहां तक कि उसने ठाकुर के मंदिर में जाना भी छोड़ दिया।
एक दिन उसका पुराना मित्र, जो आठ वर्ष से तीर्थयात्रा को गया हुआ था, उससे मिलने आया। मूरत बोला-मित्र देखो, सर्वनाश हो गया। अब मेरा जीना अकारथ है। मैं नित्य परमात्मा से यही विनती करता हूं कि वह मुझे जल्दी इस मृत्युलोक से उठा ले, मैं अब किस आशा पर जीऊं।
मित्र-मूरत, ऐसा मत कहो। परमेश्वर की इच्छा को हम नहीं जान सकते। वह जो करता है, ठीक करता है। पुत्र का मर जाना और तुम्हारा जीते रहना विधाता के वश है, और कोई इसमें क्या कर सकता है! तुम्हारे शोक का मूल कारण यह है कि तुम अपने सुख में सुख मानते हो। पराए सुख से सुखी नहीं होते।
मूरत-तो मैं क्या करुं?
मित्र-परमात्मा की निष्काम भक्ति करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है। जब सब काम परमेश्वर को अर्पण करके जीवन व्यतीत करोगे तो तुम्हें परमानंद पराप्त होगा।
मूरत-चित्त स्थिर करने का कोई उपाय तो बतलाइए।
मित्र-गीता, भक्तमालादि गरन्थों का श्रवण, पाठन, मनन किया करो। ये गरन्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फलों को देने वाले हैं। इनका पॄना आरम्भ कर दो, चित्त को बड़ी शांति पराप्ति होगी।
मूरत ने इन गरन्थों को पॄना आरम्भ किया। थोड़े ही दिनों में इन पुस्तकों से उसे इतना परेम हो गया कि रात को बारहबारह बजे तक गीता आदि पॄता और उसके उपदेशों पर विचार करता रहता था। पहले तो वह सोते समय छोटे पुत्र को स्मरण करके रोया करता था, अब सब भूल गया। सदा परमात्मा में लवलीन रहकर आनंदपूर्वक अपना जीवन बिताने लगा। पहले इधरउधर बैठकर हंसीठट्ठा भी कर लिया करता था, पर अब वह समय व्यर्थ न खोता था। या तो दुकान का काम करता था या रामायण पॄता था। तात्पर्य यह कि उसका जीवन सुधर गया।
एक रात रामायण पॄतेपढ़ते उसे ये चौपाइयां मिलीं-
एक पिता के विपुल कुमारा। होइ पृथक गुण शील अचारा॥
कोई पंडित कोइ तापस ज्ञाता। कोई धनवंत शूर कोइ दाता॥
कोइ सर्वज्ञ धर्मरत कोई। सब पर पितहिं परीति सम होई॥
अखिल विश्व यह मम उपजाया। सब पर मोहि बराबर दाया॥
मूरत पुस्तक रखकर मन में विचारने लगा कि जब ईश्वर सब पराणियों पर दया करते हैं, तो क्या मुझे सभी पर दया न करनी चाहिए? तत्पश्चात सुदामा और शबरी की कथा पॄकर उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या मुझे भी भगवान के दर्शन हो सकते हैं!
यह विचारतेविचारते उसकी आंख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा-मूरत! बोला-मूरत! देख, याद रख, मैं कल तुझे दर्शन दूंगा।
यह सुनकर वह दुकान से बाहर निकल आया। वह कौन था? वह चकित होकर कहने लगा, यह स्वप्न है अथवा जागृति। कुछ पता न चला। वह दुकान के भीतर जाकर सो गया।
दूसरे दिन परातःकाल उठ, पूजापाठ कर, दुकान में आ, भोजन बना मूरत अपने कामधंधे में लग गया; परंतु उसे रात वाली बात नहीं भूलती थी।
रात्रि को पाला पड़ने के कारण सड़क पर बर्फ के ेर लग गए थे। मूरत अपनी धुन में बैठा था। इतने में बर्फ हटाने को कोई कुली आया। मूरत ने समझा कृष्णचन्द्र आते हैं, आंखें खोलकर देखा कि बू़ा लालू बर्फ हटाने आया है, हंसकर कहने लगा-आवे बू़ा लालू और मैं समझूं कृष्ण भगवान्, वाह री बुद्धि!
लालू बर्फ हटाने लगा। बू़ा आदमी था। शीत के कारण बर्फ न हटा सका। थककर बैठ गया और शीत के मारे कांपने लगा। मूरत ने सोचा कि लालू को ठंड लग रही है, इसे आग तपा दूं।
मूरत-लालू भैया, यहां आओ, तुम्हें ठंड सता रही है। हाथ सेंक लो।
लालू दुकान पर आकर धन्यवाद करके हाथ सेंकने लगा।
मूरत-भाई, कोई चिंता मत करो। बर्फ मैं हटा देता हूं। तुम बू़े हो, ऐसा न हो कि ठंड खा जाओ।
लालू-तुम क्या किसी की बाट देख रहे थे?
मूरत-क्या कहूं, कहते हुए लज्जा आती है। रात मैंने एक ऐसा स्वप्न देखा है कि उसे भूल नहीं सकता। भक्तमाल पॄतेपढ़ते मेरी आंख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा-‘मूरत!’ मैं उठकर बैठ गया। फिर शब्द हुआ, ‘मूरत! मैं तुम्हें दर्शन दूंगा!’ बाहर जाकर देखता हूं तो वहां कोई नहीं। मैं भक्तमाल में सुदामा और शबरी के चरित पॄकर यह जान चुका हूं कि भगवान ने परमेवश होकर किस परकार साधारण जीवों को दर्शन दिए हैं। वही अभ्यास बना हुआ है। बैठा कृष्णचन्द्र की राह देख रहा था कि तुम आ गए।
लालू-जब तुम्हें भगवान से परेम है तो अवश्य दर्शन होंगे। तुमने आग न दी होती, तो मैं मर ही गया था।
मूरत-वाह भाई लालू, यह बात ही क्या है! इस दुकान को अपना घर समझो। मैं सदैव तुम्हारी सेवा करने को तैयार हूं।
लालू धन्यवाद करके चल दिया। उसके पीछे दो सिपाही आये। उनके पीछे एक किसान आया। फिर एक रोटी वाला आया। सब अपनी राह चले गए। फिर एक स्त्री आयी। वह फटेपुराने वस्त्र पहने हुए थी। उसकी गोद में एक बालक था। दोनों शीत के मारे कांप रहे थे।
मूरत-माई, बाहर ठंड में क्यों खड़ी हो? बालक को जाड़ा लग रहा है, भीतर आकर कपड़ा ओ़ लो।
स्त्री भीतर आई। मूरत ने उसे चूल्हे के पास बिठाया और बालक को मिठाई दी।
मूरत-माई, तुम कौन हो?
स्त्री-मैं एक सिपाही की स्त्री हूं। आठ महीने से न जाने कर्मचारियों ने मेरे पति को कहां भेज दिया है, कुछ पता नहीं लगता। गर्भवती होने पर मैं एक जगह रसोई का काम करने पर नौकर थी। ज्योंही यह बालक उत्पन्न हुआ, उन्होंने इस भय से कि दो जीवों को अन्न देना पड़ेगा, मुझे निकाल दिया। तीन महीने से मारीमारी फिरती हूं। कोई टहलनी नहीं रखता। जो कुछ पास था, सब बेचकर खा गई। इधर साहूकारिन के पास जाती हूं। स्यात नौकर रख ले।
मूरत-तुम्हारे पास कोई ऊनी वस्त्र नहीं है?
स्त्री-वस्त्र कहां से हो, छदाम भी तो पास नहीं।
मूरत-यह लो लोई, इसे ओ़ लो।
स्त्री-भगवान तुम्हारा भला करे। तुमने बड़ी दया की। बालक शीत के मारे मरा जाता था।
मूरत-मैंने दया कुछ नहीं की। श्री कृष्णचन्द्र की इच्छा ही ऐसी है।
फिर मूरत ने स्त्री को रात वाला स्वप्न सुनाया।
स्त्री-क्या अचरज है, दर्शन होने कोई असम्भव तो नहीं।
स्त्री के चले जाने पर सेव बेचने वाली आयी। उसके सिर पर सेवों की टोकरी थी और पीठ पर अनाज की गठरी। टोकरी धरती पर रखकर खम्भे का सहारा ले वह विश्राम करने लगी कि एक बालक टोकरी में से सेव उठाकर भागा। सेव वाली ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और सिर के बाल खींचकर मारने लगी। बालक बोला-मैंने सेव नहीं उठाया।
मूरत ने उठकर बालक को छुड़ा दिया।
मूरत-माई, क्षमा कर, बालक है।
सेव वाली-यह बालक बड़ा उत्पाती है। मैं इसे दंड दिये बिना कभी न छोडूंगी।
मूरत-माई, जाने दे, दया कर। मैं इसे समझा दूंगा। वह ऐसा काम फिर नहीं करेगा।
बुयि ने बालक को छोड़ दिया। वह भागना चाहता था कि सूरत ने उसे रोका और कहा-बुयि से अपना अपराध क्षमा कराओ और परतिज्ञा करो कि चोरी नहीं करोगे। मैंने आप तुम्हें सेव उठाते देखा है। तुमने यह झूठ क्यों कहा?
बालक ने रोकर बुयि से अपना अपराध क्षमा कराया और परतिज्ञा की कि फिर झूठ नहीं बोलूंगा। इस पर मूरत ने उसे एक सेव मोल ले दिया।
बुयि-वाहवाह, क्या कहना है! इस परकार तो तुम गांव के समस्त बालकों का सत्यानाश कर डालोगे। यह अच्छी शिक्षा है! इस तरह तो सब लड़के शेर हो जायेंगे।
मूरत-माई, यह क्या कहती हो! बदला और दंड देना तो मनुष्यों का स्वभाव है, परमात्मा का नहीं, वह दयालु है। यदि इस बालक को एक सेव चुराने का कठिन दंड मिलना उचित है, तो हमको हमारे अनन्त पापों का क्या दंड मिलना चाहिए? माई, सुनो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। एक कर्मचारी पर राजा के दस हजार रुपये आते थे। उसके बहुत विनय करने पर राजा ने वह ऋ़ण छोड़ दिया। उस कर्मचारी की भी अपने सेवकों से सौसौ रुपये पावने थे, वह उन्हें बड़ा कष्ट देने लगा। उन्होंने बहुतेरा कहा कि हमारे पास पैसा नहीं, ऋण कहां से चुकावें? कर्मचारी ने एक न सुनी। वे सब राजा के पास जाकर फरियादी हुए। राजा ने उसी दम कर्मचारी को कठिन दंड दिया। तात्पर्य यह कि हम जीवों पर दया नहीं करेंगे, तो परमात्मा भी हम पर दया नहीं करेगा।
बुयि-यह सत्य है, परंतु ऐसे बर्ताव से बालक बिगड़ जाते हैं।
मूरत-कदापि नहीं। बिगड़ते नहीं, वरंच सुधरते हैं।
बुयि टोकरा उठाकर चलने लगी कि उसी बालक ने आकर विनय की कि माई, यह टोकरा तुम्हारे घर तक मैं पहुंचा आता हूं।
रात्रि होने पर मूरत भोजन करने के बाद गीतापाठ कर रहा था कि उसकी आंख झपकी और उसने यह दृश्य देखा-
‘मूरत! मूरत!’
मूरत-कौन हो?
‘मैं-लालू।’ इतना कहकर लालू हंसता हुआ चला गया।
फिर आवाज आयी-‘मैं हूं।’ मूरत देखता है कि दिन वाली स्त्री लोई ओ़े, बालक को गोद में लिये, सम्मुख आकर खड़ी हुई, हंसी और लोप हो गई। फिर शब्द सुनाई दिया-‘मैं हूं।’ देखा कि सेव बेचने वाली और बालक हंसतेहंसते सामने आये और अन्तर्धान हो गए!
मूरत उठकर बैठ गया। उसे विश्वास हो गया कि कृष्णचन्द्र के दर्शन हो गए, क्योंकि पराणिमात्र पर दया करना ही परमात्मा का दर्शन करना है।
(अनुवाद: प्रेमचंद)
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