Hindi Kala presents Pitne Pitne Mein Fark satire written by Harishankar Parsai.
हरिशंकर परसाई हिंदी के सबसे प्रसिद्ध व्यंग्यकारों में से है। व्यंग्य की जब बात आई है तो वह अपनी ही लेख़क बिरादरी के लोगो की भी खिचांई करने से पीछे नहीं रहे है। उनके इस ‘पिटने-पिटने में फर्क’ Pitne Pitne Mein Fark व्यंग्य में उन्होंने जो अन्य लेखको पर निशाना साधा है वह प्रशंसनीय है। आपके लिए प्रस्तुत है उनका यह व्यंग:
(यह आत्म प्रचार नहीं है। प्रचार का भार मेरे विरोधियों ने ले लिया है। मैं बरी हो गया। यह ललित निबंध है।)
बहुत लोग कहते हैं – तुम पिटे। शुभ ही हुआ। पर तुम्हारे सिर्फ दो अखबारी वक्तव्य छपे। तुम लेखक हो। एकाध कहानी लिखो। रिपोर्ताज लिखो। नहीं तो कोई ललित निबंध लिख डालो। पिट भी जाओ और साहित्य-रचना भी न हो। यह साहित्य के प्रति बड़ा अन्याय है। लोगों को मिरगी आती है और वे मिरगी पर उपन्यास लिख डालते हैं। टी-हाउस में दो लेखकों में सिर्फ माँ-बहन की गाली-गलौज हो गई। दोनों ने दो कहानियाँ लिख डालीं। दोनों बढ़िया। एक ने लिखा कि पहला नीच है। दूसरे ने लिखा – मैं नहीं, वह नीच है। पढ़नेवालों ने निष्कर्ष निकाला कि दोनों ही नीच हैं। देखो, साहित्य का कितना लाभ हुआ कि यह सिद्ध हो गया कि दोनों लेखक नीच हैं। फिर लोगों ने देखा कि दोनों गले मिल रहे हैं। साथ चाय पी रहे हैं। दोनों ने माँ-बहन की गाली अपने मन के कलुष से नहीं दी थी, साहित्य-साधना के लिए दी थी। ऐसे लेखक मुझे पसंद हैं।
पिटाई की सहानुभूति के सिलसिले में जो लोग आए, उनकी संख्या काफी होती थी। मैं उन्हें पान खिलाता था। जब पान का खर्च बहुत बढ़ गया, तो मैंने सोचा पीटने वालों के पास जाऊँ और कहूँ, ‘जब तुमने मेरे लिए इतना किया है, मेरा यश फैलाया है, तो कम से कम पान का खर्च दे दो। चाहे तो एक बेंत और मार लो। लोग तो खरोंच लग जाय तो भी पान का खर्च ले लेते हैं।’
मेरे पास कई तरह के दिलचस्प आदमी आते हैं।
आमतौर पर लोग आकर यही कहते हैं, ‘सुनकर बड़ा दुख हुआ, बड़ा बुरा हुआ।’
मैं इस ‘बुरे लगने’ और ‘दुख’ से बहुत बोर हो गया। पर बेचारे लोग और कहें भी क्या?
मगर एक दिलचस्प आदमी आए। बोले, ‘इतने सालों से लिख रहे हो। क्या मिला? कुछ लोगों की तारीफ, बस! लिखने से ज्यादा शोहरत पिटने से मिली। इसलिए हर लेखक को साल में कम से कम एक बार पिटना चाहिए। तुम छ: महीने में एक बार पिटो। फिर देखो कि बिना एक शब्द लिखे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के होते हो या नहीं। तुम चाहो तो तुम्हारा यह काम मैं ही कर सकता हूँ।’
मैंने कहा, ‘बात सही है। जब जरूरत होगी, आपको तकलीफ दूँगा। पर यार ज्यादा मत मारना।’
पिटा पहले भी हूँ।
मैंट्रिक में था तो एक सहपाठी रामेश्वर से मेरा झगड़ा था। एक दिन उसे मैं ढकेलते-ढकेलते कक्षा की दीवार तक ले गया। वह फँस गया था। मैंने उसे पीटा। फिर दोनों में अच्छे संबंध हो गए। स्कूली लड़ाई स्थायी नहीं होती। पर वह गाँठ बाँधे था। हमारे घर से स्कूल डेढ़ मील दूर था। एक दिन हम दोनों गपशप करते शाम के झुटपुटे में आ रहे थे कि वह एकाएक बोला, ‘अरे, यह रामदास कहाँ से आ रहा है? वह देखो।’ मैं उस तरफ देखने लगा। उसने बिजली की तेजी से मेरी टाँगों में हाथ डाला और वह पटखनी दी कि मैं नाले के पुल से नीचे गिर पड़ा। उठा। शरीर से ताकत से मैं डेवढ़ा पड़ता था। सोचा, इसे दमचूँ। पर उसने बड़े मजे की बात कही। कहने लगा, ‘देखो, अदा-बदा हो गए। अपन अब पक्के दोस्त। मैंने तुम्हें कैसी बढ़िया तरकीब सिखाई है।’ मैंने भी कहा, ‘हाँ यार, तरकीब बढ़िया है। मैं काफी दुश्मनों को ठीक करूँगा।’ फिर मैंने चार विरोधियों को वहीं आम के झुरमुट में पछाड़ा। तरकीब वही – साथ जा रहे हैं। एकाएक कहता – अरे, वह उधर से श्याम सुंदर आ रहा है। वह उधर देखने लगता और मैं उसकी टाँगों में हाथ डालकर सड़क के नीचे गढ़े में फेंक देता।
यह तो स्कूल की पिटाई हुई।
लिखने लगा, तो फिर एक बार पिटाई हुई। आज से पंद्रह-बीस साल पहले। मैं कहानियाँ लिखता और उसमें ‘कमला’ नाम की पात्री आ जाती। कुछ नाम कमला, विमला, आशा, सरस्वती ऐसे हैं कि कलम पर यों ही आ जाते हैं।
मुझे दो चिट्ठियाँ मिलीं – ‘खबरदार, कभी कमला कहानी में आई तो ठीक कर दिए जाओगे। वह मेरी प्रेमिका है और तुम उससे कहानी में हर कुछ करवाते हो। वह ऐसी नहीं है।’
मैं बात टाल गया।
एक दिन सँकरी गली से घर आ रहा था। आगे गली का मोड़ था। वहीं मकान के पीछे की दीवार थी। एक आदमी चुपचाप पीछे से आया और ऐसे जोर से धक्का दिया कि मैं दीवार तक पहुँच गया। हाथ आगे बढ़ाकर मैंने दीवार पर रख दिए और सिर बचा लिया, वरना सिर फूट जाता। बाद में मालूम हुआ कि वह शहर का नंबर एक का पहलवान है। मैंने कमला को विमला कर दिया। लेखक को नाम से क्या फर्क पड़ता है। Pitne Pitne Mein Fark
पर यह जूनवाली ताजा पिटाई बड़ी मजेदार रही। मारने वाले आए। पाँच-छ: बेंत मारे। मैंने हथेलियों से आँखें बचा लीं। पाँच-सात सेकंड में काम खत्म। वे दो वाक्य राजनीति के बोलकर हवा में विलीन हो गए।
मैंने डिटाल लगाया और एक-डेढ़ घंटे सोया। ताजा हो गया।
तीन दिन बाद अखबारों में खबर छपी तो मजे की बातें मेरे कानों में शहर और बाहर से आने लगीं। स्नेह, दुख की आती ही थीं। पर – अच्छा पिटा – पिटने लायक ही था – घोर अहंकारी आदमी – ऐसा लिखेगा तो पिटेगा ही – जो लिखता है, वह साहित्य है क्या? अरे, प्रेम कहानी लिख। उसमें कोई नहीं पिटता।
कुछ लेखकों की प्रसन्नता मेरे पास तक आई। उनका कहना था – अब यह क्या लिखेगा? सब खत्म। हो गया इसका काम-तमाम। बहुत आग मूतता था। पर मैंने ठीक वैसा ही लिखना जारी रखा और इस बीच पाँच कहानियाँ तथा चार निबंध लिख डाले और एक डायरी उपन्यास तिहाई लिख लिया है।
सहानुभूति वाले बड़े दिलचस्प होते हैं। तरह-तरह की बातें करते हैं। बुजुर्ग-बीमार-वरिष्ठ साहित्यकार बाबू रामानुजलाल श्रीवास्तव ने अपनी मोटी छड़ी भेजी और लिखा – ‘अब यह मेरे काम की नहीं रही। मेरी दुनिया अब बिस्तर हो गई है। इस छड़ी को साथ रखो।’
लाठी में गुन बहुत हैं, सदा राखिए संग…
एक अपरिचित आए और एक छड़ी दे गए। वह गुप्ती थी, पर भीतर फलक नहीं था। मूठ पर पैने लोहे का ढक्कन लगा था, जिसके कनपटी पर एक वार से आदमी पछाड़ खा जाए।
मेरे चाचा नंबर एक के लठैत थे। वे लट्ठ को तेल पिलाते थे और उसे दुखभंजन कहते थे। मुहल्ले के रंगदार को, जो सबको तंग करता था, उन्होंने पकड़ा। सामने एक पतले झाड़ से बाँधा और वह पिटाई की कि वह हमेशा के लिए ठीक हो गया। मैंने ही कहा, ‘दादा इसे अब छोड़ दो।’ उन्होंने छोड़ दिया, मगर कहा, ‘देख मैंने दुखभंजन से काम नहीं लिया। गड़बड़ की तो दुखभंजन अपना काम करेगा।’
वह दुखभंजन पता नहीं कहाँ चला गया। उनकी मृत्यु हो गई। पर वे शीशम की अपनी छड़ी छोड़ गए हैं।
एक साहब एक दिन आए। एक-दो बार दुआ-सलाम हुई होगी। पर उन्होंने प्रेमी मित्रों से ज्यादा दुख जताया। मुझे आशंका हुई कि कहीं वे रो न पड़ें।
वे मुझे उस जगह ले गए, जहाँ मैं पिटा था। जगह का मुलाहजा किया।
- कहाँ खड़े थे?
- किस तरफ देख रहे थे?
- क्या वे पीछे से चुपचाप आए?
- तुम सावधान नहीं थे?
- कुल पाँच-सात सेकंड में हो गया?
- बिना चुनौती दिए हमला करना कायरता है। सतयुग से चुनौती देकर हमला किया जाता रहा है, पर यह कलियुग है।
मैं परेशान। जिस बात को ढाई महीने हो गए, जिसे मैं भूल जाना चाहता हूँ, उसी की पूरी तफ्शीश कर रहा है। कहीं यह खुफिया विभाग का आदमी तो नहीं है? पर जिसका सब खुला है, उसे खुफिया से क्या डर।
वे आकर बैठ गए।
कहने लगे, ‘नाम बहुत फैल गया है। मंत्रियों ने दिलचस्पी ली होगी?’
मैंने कहा, ‘हाँ, ली।’
वे बोले, ‘मुख्यमंत्री ने भी ली होगी। मुख्यमंत्री से आपके संबंध बहुत अच्छे होंगे?’
मैंने कहा, ‘अच्छे संबंध हैं।’
वे बोले, ‘मुख्यमंत्री आपकी बात मानते हैं?’
मैंने कहा, ‘हाँ, मान भी लेते हैं।’
मैं परेशान कि आखिर ये बातें क्यों करते हैं। क्या मकसद है?
आखिर वे खुले।
कहने लगे, ‘मुख्यमंत्री आपकी बात मानते हैं। लड़के का तबादला अभी काँकरे हो गया है। जरा मुख्यमंत्री से कहकर उसका तबादला यहीं करवा दीजिए।’
पिटे तो तबादला करवाने, नियुक्ति कराने की ताकत आ गई – ऐसा लोग मानने लगे हैं। मानें। मानने से कौन किसे रोक सकता है। यह क्या कम साहित्य की उपलब्धि है कि पिटकर लेखक तबादला कराने लायक हो जाए। सन 1973 की यह सबसे बड़ी साहित्यिक उपलब्धि है। पर अकादमी माने तो।
आशा है आपको रचना Pitne Pitne Mein Fark पसंद आई होगी, यदि हमारे ब्लॉग के लिए या इस व्यंग्य के सन्दर्भ में आपके कुछ विचार है तो हमें नीचे कमेंट बॉक्स में अवश्य बताये। धन्यवाद !
Best Deals of the day: Click Here
Tags:
You Might Also Like:
- Harishankar Parsai – Apni Apni Beemari | हरिशंकर परसाई – अपनी अपनी बीमारी | Vyangya
- Harishankar Parsai – Pitne Pitne Mein Fark | हरिशंकर परसाई – पिटने-पिटने में फर्क | Vyangya
- Sharad Joshi – Hum Jiske Mama Hai | शरद जोशी – जिसके हम मामा हैं | Vyangya
- Harishankar Parsai Vyangya Naya Saal | हरिशंकर परसाई – नया साल | Satire
- Sharad Joshi – Rail Yatra | रेल-यात्रा | शरद जोशी | Vyangya | व्यंग्य