Hindi Kala presents Short Stories by Harishankar Parsai | हरिशंकर परसाई की लघुकथाएँ. Please read these short stories and share your views in the comments.
अपना-पराया | Apna – Paraya
‘आप किस स्कूल में शिक्षक हैं?’
‘मैं लोकहितकारी विद्यालय में हूं। क्यों, कुछ काम है क्या?’
‘हाँ, मेरे लड़के को स्कूल में भरती करना है।’
‘तो हमारे स्कूल में ही भरती करा दीजिए।’
‘पढ़ाई-वढ़ाई कैसी है?
‘नंबर वन! बहुत अच्छे शिक्षक हैं। बहुत अच्छा वातावरण है। बहुत अच्छा स्कूल है।’
‘आपका बच्चा भी वहाँ पढ़ता होगा?’
‘जी नहीं, मेरा बच्चा तो ‘आदर्श विद्यालय’ में पढ़ता है।’
अश्लील | Ashleel
शहर में ऐसा शोर था कि अश्लील साहित्य का बहुत प्रचार हो रहा है। अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुलेआम अश्लील पुस्तकें बिक रही हैं।
दस-बारह उत्साही समाज-सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे।
उन्होंने एक दुकान पर छापा मारकर बीच-पच्चीस अश्लील पुस्तकें हाथों में कीं। हरके के पास दो या तीन किताबें थीं। मुखिया ने कहा – आज तो देर हो गई। कल शाम को अखबार में सूचना देकर परसों किसी सार्वजनिक स्थान में इन्हें जलाएँगे। प्रचार करने से दूसरे लोगों पर भी असर पड़ेगा। कल शाम को सब मेरे घर पर मिलो। पुस्तकें में इकट्ठी अभी घर नहीं ले जा सकता। बीस-पच्चीस हैं। पिताजी और चाचाजी हैं। देख लेंगे तो आफत हो जाएगी। ये दो-तीन किताबें तुम लोग छिपाकर घर ले जाओ। कल शाम को ले आना।
दूसरे दिन शाम को सब मिले पर किताबें कोई नहीं लाया था। मुखिया ने कहा – किताबें दो तो मैं इस बोरे में छिपाकर रख दूँ। फिर कल जलाने की जगह बोरा ले चलेंगे।
किताब कोई लाया नहीं था।
एक ने कहा – कल नहीं, परसों जलाना। पढ़ तो लें।
दूसरे ने कहा – अभी हम पढ़ रहे हैं। किताबों को दो-तीन बाद जला देना। अब तो किताबें जब्त ही कर लीं।
उस दिन जलाने का कार्यक्रम नहीं बन सका। तीसरे दिन फिर किताबें लेकर मिलने का तय हुआ।
तीसरे दिन भी कोई किताबें नहीं लाया।
एक ने कहा – अरे यार, फादर के हाथ किताबें पड़ गईं। वे पढ़ रहे हैं।
दसरे ने कहा – अंकिल पढ़ लें, तब ले आऊँगा।
तीसरे ने कहा – भाभी उठाकर ले गई। बोली की दो-तीन दिनों में पढ़कर वापस कर दूँगी।
चौथे ने कहा – अरे, पड़ोस की चाची मेरी गैरहाजिर में उठा ले गईं। पढ़ लें तो दो-तीन दिन में जला देंगे।
अश्लील पुस्तकें कभी नहीं जलाई गईं। वे अब अधिक व्यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं।
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चंदे का डर | Chande Ka Darr
एक छोटी-सी समिति की बैठक बुलाने की योजना चल रही थी। एक सज्जन थे जो समिति के सदस्य थे, पर काम कुछ नहीं, गड़बड़ पैदा करते थे और कोरी वाहवाही चाहते थे। वे लंबा भाषण देते थे।
वे समिति की बैठक में नहीं आवें, ऐसा कुछ लोग करना चाहते थे, पर वे तो बिना बुलाए पहुँचने वाले थे। फिर यहाँ तो उनको निमंत्रण भेजा ही जाता, क्योंकि वे सदस्य थे।
एक व्यक्ति बोला, ‘एक तरकीब है। साँप मरे, न लाठी टूटे। समिति की बैठक की सूचना में नीचे यह लिखा दिया जाए कि बैठक में बाढ़-पीडि़तों के लिए धन-संग्रह भी किया जाएगा। वे इतने उच्च कोटि के कंजूस हैं कि जहाँ चंदे वगैरह की आशंका होती है, वे नहीं पहुँचते।’
दानी | Daani
बाढ़-पीड़ितों के लिए चंदा हो रहा था। कुछ जनसेवकों ने एक संगीत-समारोह का आयोजन किया, जिसमें धन एकत्र करने की योजना बनाई। वे पहुँचे एक बड़े सेठ साहब के पास। उनसे कहा, ‘देश पर इस समय संकट आया है। लाखों भाई-बहन बेघर-बार हैं, उनके लिए अन्न-वस्त्र जुटाने के लिए आपको एक बड़ी रकम देनी चाहिए। आप समारोह में आइएगा।’
वे बोले, ‘भगवान की इच्छा में कौन बाधा डाल सकता है। जब हरि की इच्छा ही है तो हम किसी की क्या सहायता कर सकते हैं? फिर भैया, रोज दो-चार तरह का चंदा तो हम देते हैं और व्यापार में कुछ दम नहीं हैं।’
एक जनसेवी ने कहा, ‘समारोह में खाद्य मंत्री भी आने वाले हैं और वे स्वयं धन एकत्र करेंगे।’
सेठजी के चेहरे पर चमक आई। जैसे भक्त के मुख पर भगवान का स्मरण करके आती है। वे बोले, ‘हाँ, बेचारे तकलीफ में तो हैं! क्या किया जाए? हमसे तो जहाँ तक हो सकता है, मदद करते ही हैं। आखिर हम भी तो देशवासी हैं। आप आए हो तो खाली थोड़े ही जाने दूँगा। एक हजार दे दूँगा। मंत्रीजी ही लेंगे न? वे ही अपील करेंगे न? उनके ही हाथ में देना होगा न?’
वे बोले, ‘जी हाँ, मंत्रीजी ही रकम लेंगे।’
सेठजी बोले, ‘बस-बस, तो ठीक है। मैं ठीक वक्त पर आ जाऊँगा।’
समारोह में सेठजी एक हजार रुपए लेकर पहुँचे, पर संयोगवश मंत्रीजी जरा पहले उठकर जरूरी काम से चले गए। वे अपील नहीं कर पाए, चंदा नहीं ले पाए।
संयोजकों ने अपील की। पैसा आने लगा। सेठजी के पास पहुँचे।
सेठजी बोले, ‘हमीं को बुद्धू बनाते हो! तुमने तो कहा था, मंत्री खुद लेंगे, और वे तो चल दिए।’
रसोई घर और पाखाना | Rasoi Ghar Aur Pakhana
गरीब लड़का है। किसी तरह हाई स्कूल परीक्षा पास करके कॉलेज में पढ़ना चाहता है। माता-पिता नहीं हैं। ब्राह्मण है।
शहर में उसी के सजातीय सज्जन के यहाँ उसके रहने और खाने का प्रबंध हो गया। मैंने इस मामले में थोड़ी-सी मदद कर दी थी, इसलिए लड़का अक्सर मुझसे मिला करता है। बड़ा ही सरल, सभ्य और सीधा लड़का है। साथ ही कुशाग्रबुद्धि थी।
एक दिन मैंने पूछा, ‘क्यों, तुम्हारा सब काम ठीक जम गया न? कोई तकलीफ तो नहीं है उन सज्जन के यहाँ?’
वह तनिक मुस्कराया, कहने लगा, ‘तकलीफ तो नहीं है, पर वहाँ एक बात बड़ी विचित्र और मनोरंजक है।’
‘क्या बात है?’ मैंने पूछा।
वह बोला, ‘वैसे तो मैं उनके चौके में सबके साथ ही बैठकर खाना खाता हूँ, पर घर में जो एक वृद्धा है, वे मुझसे कहती हैं कि बाहर की टट्टी में पाखाना जाया करो। घर में बड़ी और प्रमुख टट्टी है, जिसमें घर के लोग जाते हैं, एक और है जिसमें नौकर-चाकर जाते हैं। मुझसे वे कहने लगीं कि बाहर वालों के लिए यह बाहर वाली टट्टी है। मुझे चौके में तो प्रवेश मिल गया है, पर टट्टी में प्रवेश नहीं मिला।
अगर तेरी झूठी प्रतिष्ठा भोजन में प्रदर्शित न हो पाएगी तो तू मल-मूत्र में ही प्रदर्शित करके रहेगा। अगर मेरे रसोई घर में ऊँच-नीच कोई नहीं रहेगा तो तू संडास मेँ ऊँचा बनकर दूसरे को नीचा बनाएगा। शाबाश!
समझौता
अगर दो साइकिल सचार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़े तो उनके लिए यह लाजिमी हो जाता है कि वे उठकर सबसे पहले लड़ें, फिर धूल झाड़ें। यह पद्धति इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी हैं कि गिरकर न लड़ने वाला साइकिल सवार बुजदिल माना जाता है, क्षमाशील संत नहीं।
एक दिन दो साइकिलें बीच सड़क पर भिड़ गईं। उनके सवार जब उठे तो एक-दूसरे को ललकारा, ‘अंधा है क्या? दिखता भी नहीं।’
दूसरे ने जवाब दिया, ‘साले, गलत ‘साइड’ से चलेंगे और आँखें दिखाएँगे।’
पहले ने गाली का बदला उससे बड़ी गाली से चुकाकर ललकारा, ‘जबान सँभालकर बोलना, अभी खोपड़ी फोड़ दूँगा।’
दूसरे ने सिर को और ऊँचा करके जवाब दिया, ‘अरे, तू क्या खोपड़ा फोड़ेगा मैं एक हाथ दूँगा तो कनपटा फूट जायगा।’
और वे दोनों एक-दूसरे का सिर फोड़ने के लिए उलझने ही वाले थे कि अचानक एक आदमी उन दोनों के बीच में आ गया और बोला, ‘अरे देखो भाई, मेरी एक बात सुन लो, फिर लड़ लेना। देखो, तुम इसका सिर फोड़ना चाहते हो, और तुम इसका! मतलब कुल मिलाकर इतना ही हुआ कि दोनों के सिर फूट जाएँ तो दोनों को संतोष हो जाए। तो ऐसा करो भैया, दोनों जाकर उस बिजली के खंभे से सिर फोड़ लो और लड़ाई बंद कर दो।’
बात कुछ ऐसा असर कर गई कि भीड़ हँस दी और वे दोनों ही हँसी रोक नहीं पाए। उनका समझौता संपन्न हो गया।
सुधार | Sudhaar
एक जनहित की संस्था में कुछ सदस्यों ने आवाज उठाई, ‘संस्था का काम असंतोषजनक चल रहा है। इसमें बहुत सुधार होना चाहिए। संस्था बरबाद हो रही है। इसे डूबने से बचाना चाहिए। इसको या तो सुधारना चाहिए या भंग कर देना चाहिए।
संस्था के अध्यक्ष ने पूछा कि किन-किन सदस्यों को असंतोष है।
दस सदस्यों ने असंतोष व्यक्त किया।
अध्यक्ष ने कहा, ‘हमें सब लोगों का सहयोग चाहिए। सबको संतोष हो, इसी तरह हम काम करना चाहते हैं। आप दस सज्जन क्या सुधार चाहते हैं, कृपा कर बतलावें।’
और उन दस सदस्यों ने आपस में विचार कर जो सुधार सुझाए, वे ये थे –
‘संस्था में चार सभापति, तीन उप-सभापति और तीन मंत्री और होने चाहिए…’
दस सदस्यों को संस्था के काम से बड़ा असंतोष था।
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यस सर | Yes Sir
एक काफी अच्छे लेखक थे। वे राजधानी गए। एक समारोह में उनकी मुख्यमंत्री से भेंट हो गयी। मुख्यमंत्री से उनका परिचय पहले से था। मुख्यमंत्री ने उनसे कहा- आप मजे में तो हैं। कोई कष्ट तो नहीं है? लेखक ने कह दिया- कष्ट बहुत मामूली है। मकान का कष्ट। अच्छा सा मकान मिल जाए, तो कुछ ढंग से लिखना-पढ़ना हो। मुख्यमंत्री ने कहा- मैं चीफ सेक्रेटरी से कह देता हूं। मकान आपका ‘एलाट’ हो जाएगा।
मुख्यमंत्री ने चीफ सेक्रेटरी से कह दिया कि अमुक लेखक को मकान ‘एलाट’ करा दो।
चीफ सेक्रेटरी ने कहा- यस सर।
चीफ सेक्रेटरी ने कमिश्नर से कह दिया। कमिश्नर ने कहा- यस सर।
कमिश्नर ने कलेक्टर से कहा- अमुक लेखक को मकान ‘एलाट’ कर दो। कलेक्टर ने कहा- यस सर।
कलेक्टर ने रेंट कंट्रोलर से कह दिया। उसने कहा- यस सर।
रेंट कंट्रोलर ने रेंट इंस्पेक्टर से कह दिया। उसने भी कहा- यस सर।
सब बाजाब्ता हुआ। पूरा प्रशासन मकान देने के काम में लग गया। साल डेढ़ साल बाद फिर मुख्यमंत्री से लेखक की भेंट हो गई। मुख्यमंत्री को याद आया कि इनका कोई काम होना था। मकान ‘एलाट’ होना था।
उन्होंने पूछा- कहिए, अब तो अच्छा मकान मिल गया होगा?
लेखक ने कहा- नहीं मिला।
मुख्यमंत्री ने कहा- अरे, मैंने तो दूसरे ही दिन कह दिया था।
लेखक ने कहा- जी हां, ऊपर से नीचे तक ‘यस सर’ हो गया।
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